इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 30 मई 2017

मई 2017 से जुलाई 2017

सम्पादकीय

आलेख

नारद की कल्‍याणकारी पत्रकारिता : लोकेन्‍द्र सिंह
यही तो मजदूर है : ललित साहू '' जख्‍मी ''


कहानी
घास काटने की मशीन : उपेन्‍द्रनाथ '' अश्‍क ''
रिसते घाव : बूटासिंह
अनंत यात्रा : नरेन्‍द्र अनिकेत
अलगाव से लगाव तक : डॉ. दीप्ति गुप्‍ता
सम्‍मान के लिए समाजसेवा : कुबेर
अाखिरी पारी : भावसिंह हिरवानी
देवदासी : आलोक कुमार सातपुजे
उसी बिंदू पर लौटते हुए : सुरेश सर्वेद

बाल कथा
बिजली और तूफान

नैतिक कथा
जीवन का मूल्‍य
चार मोमबत्तियां
मकड़ी का जाला

व्यंग्य
सावधान, हम ईमानदार है : लतीफ घोंघी

लघुकथा
पार्टी
अपनी - अपनी किस्‍मत : शिवराज गुजर
पेंशन की तारीख

गीत / ग़ज़ल / कविता
' नवरंग' के मुक्‍तक
नोट की महिमा ( कविता ): सुशील यादव
गज़ल़ : अशोक ' अंजुम '
मेरा गॉव ( कविता ) : सुरेश सर्वेद
बस इतना ही ( कविता ) : रोजलीन
डॉ. कृष्‍ण कुमार सिंह ' मयंक ' की चार गज़लें
यशपाल जंघेल की कविताएं   
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ग्राम पंचायत करेला

यशपाल जंघेल की कविताएं

यशपाल जंघेल  
दूब
कितनी भयानक त्रासदी
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी ....
बाढ़ और काल
पयार्यवाची हो गए
इस बाढ़ के बाद
सहम गई सभ्यताएं
सिंधुघाटी सभ्यता को
याद करके
ऊब गई चीटियां
चोटी मे डेरा डाले
थक गई गौरय्या
ठीहा ढूंढते - ढूंढते
देखी नहीं कभी
ऐसी विभीषिका
मनराखन बुदबुदाता
ढह गया मकान,
बह गए मवेशी,
फसलें हो गई बर्बाद
कुछ भी न रहा
शेष कुछ भी ...
उखड़ गया बबूल
और, उसकी सांसें
धराशायी हो गया महुआ
और ढह गया एक बूढ़़ा
बरगद,
बाढ़ के बाद मैं भी
गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी...
तभी दिख जाती है एक दूब
पैरों के पास
कराहती, जूझती,हरियाती,
मुझको झुठलाती
एक दूब।
बाजार
मैं खेत जाता हूं
मैं जंगलों और पहाड़ों में भी
जाता हूं
मैं जाता हूं हर दिन
नदियों के पास
मैं न जाऊँ,
तो क्या मेरे घर आएंगे?
खेत, जंगल, पहाड़ और नदी
मैं बाजार भी जाता हूं
मैं न जाऊं बाजार
तो क्या बाजार
नहीं आएगा मेरे घर
जब बंद रहते हैं
घर के दरवाजे,
खिड़कियाँ
तब भी मेरे घर में
घुस आता है बाजार
बाजार आता है
बिना बुलाए
मेरे घर में,
मेरे  रास्तें में,
खेत, जंगल, पहाड़, नदी
और मेरे बीच में
घर
भूकंप  आया
मेरा घर खड़ा रहा
बाढ़़ आई
मेरा घर खड़ा रहा
तूफान आया
मेरा घर खड़ा रहा
सुनामी आई
मेरा घर खड़ा रहा
एक दिन,
अविश्वास का एक झोंका आया
मेरा घर ढह गया।
आँख
क्या आँख को सिर्फ
आँख होनी चाहिए
वह जीभ भी तो हो सकती है,
कान और नाक भी होती है
क्या आपने आँख को
पेट बनते देखा है?
मैंने तो आँखों को
पंजों मे तब्दील होते देखा है
यहां इस समय
अंधेपन को परिभाषित करना उतना ही मुश्किल है
जितना कि शहर में गांव ढूंढना
शायद खतरनाक भी
जबकि हम यहां कई अँधों को
आँखे दिखाते हुए देख रहे हैं
और आँख वालों को
आँखे चुराते हुए
विचित्र स्थिति बन रही है
आँखें खुली रखने की सलाह
मंच से दी जाती है
और बंद कमरों मेें
आँखें  मूंदी रहने की हिदायतें
हिदायतें सुनो तो
आँखों का तारा
न सुनो तो आँख की किरकिरी
इस समय अंधेरे पर यकीन
हरगिज नहीं किया जा सकता
यकीन तो रौशनी पर भी
नहीं किया जा सकता
उधेड़ना होगा
रौशनी का रेशा-रेशा
न जाने किस तह में
छिपा बैठा हो धृतराष्ट्र
हमें सबसे ज्यादा
स्वयं पर यकीन करना होगा
देखना होगा आँखें उठाकर
जबकि सभाओं में
तेजी से पनप रहा है गंधारीपन
हम अपनी आँखें
जितनी नीची करते हैं
लोगों की आँखें
हम पर उतनी ही गड़ती हैं
आज हम
जब अपनी ही आँखों में
गिरते जा रहे हैं
शकुनि ने फेंक दिया है पासा
पितामह भीष्म खुद से
आँखें मिला नहीं पा रहा है
ऐसी स्थिति में
आँख जीभ हो या न हो
वह नाक,कान,पेट और पंजा
रहे या न रहे
कम से कम
आँख को
आँख होनी ही चाहिए  
घास
घास उगाई नही जाती
उग आती है  
मैदानों में,
पठारों, जंगलों, पहाड़ों  में
पाखरों, पगडंडियों, खेत की मेड़ों
और खंडहर की दीवारों में
धास घूरे में भी खोज लेती है
अपने लिए जगह
पीपल के कंधों पर बैठकर
सेंकती वह धूप
यात्रियों की थकी नींद में
शामिल हो जाना चाहती है घास
वह जगह पाना चाहती है
गाय के सपनों में
दूध बनकर उसकी थनों में
इतराना चाहती है वह
घास उगाई नहीं जाती
उग आती है
एक दिन आदमी की छाती में
पीती नहीं खाद का पानी
वह चट्टानों से रस खींचती है
हजारों बार हुई उसे मिटानें की साजिश
रौंदा गया वह कई बार
लेकिन उसनें हर बार दिखाया ठेंगा
आंधियों को
भूकंप और बाढ़ को
घास उगाई नही जाती
उग आती है
राजा के आंगन में भी
और जब वह उखाड़कर
फेंक दिया जाता है
एतिहातन
तब एक दिन वह उग आती है
राजमहल के गर्दन में
उसके ईटों के बीच
अपनी जड़ें धंसाती
घास उगाई नही जाती
न ही मिटाई जा सकती है।

 पता
सहायक शिक्षक
पी:एस: - बैगा साल्हेवारा
जिला - राजनांदगाँव (छत्‍तीसगढ )
 मो- 9009910363

शुक्रवार, 26 मई 2017

मेरा गांव

सुरेश सर्वेद 

खोजता हूं लेकर दीया,कहाँ है मेरा गाँव
जहाँ खड़ा हूं मैं वहां पर
जहाँ न अपनापन है न छाँव।
खेतों की हरियाली खो गई
उन्मुक्त और निस्वार्थ गूंजती हंसी
आज खो गई है।

जब पड़ती थी
पहली बारिस की बूंदे धरा पर
मिट्टी से उठती सौंधी सुगंध से
तन - मन पुलकित हो उठता।
अब बारिस के साथ
क्रांकीट और तारकोल की गंध से
तन - मन विचलित हो उठता है।

खोजता हूं वह उन्मुक्त हंसी
महसूस करना चाहता हूं वह सौंधी सुगंध
पर दूर - दूर
बहुत दूर तक
न सुनाई देती है वह उन्मुक्त हंसी
और न महसूस होता है सौंधी सुगंध

पगडंडी अब बन गई सड़कें
सड़के चौड़ी हो गई
बाग - बगीचे हो गये वीरान
कोयल की कूक खो गई
'' ठीहा '' पर खड़ा देखता हूं
क्या यह वही जगह है
जहां कभी अपनापन हुआ करता था।
जो अब सपना हो गया है।
जहां बरगद है, न छाँव है
क्या यही है मेरा गाँव है?

जीवन का मूल्‍य

        यह कहानी पुराने समय की है। एक दिन एक आदमी गुरु के पास गया और उनसे कहा - बताइए गुरुजी, जीवन का मूल्य क्या है?
        गुरु ने उसे एक पत्थर दिया और कहा - जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नहीं है।''
        वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और संतरे वाले को दिखाया और बोला - बता इसकी कीमत क्या है ?''
        संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला - 12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे जा।''
       वह आदमी संतरे वाले से बोला - गुरु ने कहा है, इसे बेचना नहीं है।'' और आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा - एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।''
उस आदमी ने कहा - मुझे इसे बेचना नहीं है, मेरे गुरु ने मना किया है।''
आगे एक सोना बेचने वाले सुनार के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया।सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला - 50 लाख में बेच दे।''
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला - 2 करोड़ में दे दे या बता इसकी कीमत जो मांगेगा, वह दूंगा तुझे।''
उस आदमी ने सुनार से कहा - मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है।''
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया।जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका, फिर जौहरी बोला - कहां से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती। ये तो बेशकीमती है।''
        वह आदमी हैरान - परेशान होकर सीधे गुरु के पास गया और अपनी आपबीती बताई और बोला - अब बताओ गुरुजी,मानवीय जीवन का मूल्य क्या है ?''
        गुरु बोले - तूने पहले पत्थर को संतरे वाले को दिखाया, उसने इसकी कीमत 12 संतरे बताई। आगे सब्जी वाले के पास गया, उसने इसकी कीमत 1 बोरी आलू बताई। आगे सुनार ने 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे बेशकीमती बताया। अब ऐसे ही तेरा मानवीय मूल्य है। इसे तू 12 संतरे में बेच दे या 1 बोरी आलू में या 2 करोड़ में या फिर इसे बेशकीमती बना ले। ये तेरी सोच पर निर्भर है कि तू जीवन को किस नजर से देखता है।''

चार मोमबत्तियां

        रात का समय थाए चारों तरफ  सन्नाटा पसरा हुआ था। नज़दीक ही एक कमरे में चार मोमबत्तियां जल रही थीं।
        एकांत पा करआज वे एक दुसरे से दिल की बात कर रही थीं। पहली मोमबत्ती बोली - मैं शांति हूँ, पर मुझे लगता है अब इस दुनिया को मेरी ज़रुरत नहीं है। हर तरफ आपाधापी और लूट - मार मची हुई है। मैं यहाँ अब और नहीं रह सकती।'' और ऐसा कहते हुए, कुछ देर में वो मोमबत्ती बुझ गयी।
        दूसरी मोमबत्ती बोली - मैं विश्वास हूँ, और मुझे लगता है झूठ और फरेब के बीच मेरी भी यहाँ कोई ज़रुरत नहीं है,  मैं भी यहाँ से जा रही हूँ।'' और दूसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।
        तीसरी मोमबत्ती भी दुखी होते हुए बोली - मैं प्रेम हूँ,  मेरे पास जलते रहने की ताकत है। पर आज हर कोई इतना व्यस्त है कि मेरे लिए किसी के पास वक्त ही नहीं। दूसरों से तो दूर लोग अपनों से भी प्रेम करना भूलते जा रहे हैं। मैं ये सब और नहीं सह सकती मैं भी इस दुनिया से जा रही हूँ।'' और ऐसा कहते हुए तीसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।
        वो अभी बुझी ही थी कि एक मासूम बच्चा उस कमरे में दाखिल हुआ। मोमबत्तियों को बुझे देख वह घबरा गया। उसकी आँखों से आंसू टपकने लगे और वह रुंआसा होते हुए बोला -अरे, तुम मोमबत्तियां जल क्यों नहीं रही। तुम्हे तो अंत तक जलना है! तुम इस तरह बीच में हमें कैसे छोड़ के जा सकती हो ?''
तभी चौथी मोमबत्ती बोली - प्यारे बच्चे घबराओ नहीं, मैं आशा हूँ और जब तक मैं जल रही हूँ, हम बाकी मोमबत्तियों को फिर से जला सकते हैं।''
        यह सुन बच्चे की आँखें चमक उठीं। और उसने आशा के बल पे शांति, विश्वास और प्रेम को फिर से प्रकाशित कर दिया।
        जब सब कुछ बुरा होते दिखे, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार नज़र आये। अपने भी पराये लगने लगे तो भी उम्मीद मत छोड़िये। आशा मत छोड़िये। क्योंकि इसमें इतनी शक्ति है कि ये हर खोई हुई चीज आपको वापस दिल सकती है।  अपनी आशा की मोमबत्ती को जलाये रखिये। बस अगर ये जलती रहेगी तो आप किसी भी और मोमबत्ती को प्रकाशित कर सकते हैं।

मकड़ी का जाला

        एक मकड़ी थी। उसने आराम से रहने के लिए एक शानदार जाला बनाने का विचार किया और सोचा की इस जाले मे खूब कीड़ें, मक्खियाँ फसेंगी और मै उसे आहार बनाउंगी और मजे से रहूंगी।
        उसने कमरे के एक कोने को पसंद किया और वहाँ जाला बुनना शुरू किया। कुछ देर बाद आधा जाला बुन कर तैयार हो गया। यह देखकर वह मकड़ी काफी खुश हुई कि तभी अचानक उसकी नजर एक बिल्ली पर पड़ी जो उसे देखकर हँस रही थी। मकड़ी को गुस्सा आ गया और वह बिल्ली से बोली - हँस क्यो रही हो?
 - हँसू नहीं तो क्या करू? बिल्ली ने जवाब दिया - यहाँ मक्खियाँ नहीं है, ये जगह तो बिलकुल साफ  सुथरी है। यहाँ कौन आयेगा तेरे जाले में। ये बात मकड़ी के गले उतर गई। उसने अच्छी सलाह के लिये बिल्ली को धन्यवाद दिया और जाला अधूरा छोड़कर दूसरी जगह तलाश करने लगी।
उसने ईधर ऊधर देखा। उसे एक खिड़की नजर आयी और फिर उसमें जाला बुनना शुरू किया कुछ देर तक वह जाला बुनती रही, तभी एक चिड़िया आयी और मकड़ी का मजाक उड़ाते हुए बोली - अरे मकड़ी, तू भी कितनी बेवकूफ  है।
- क्यो? मकड़ी ने पूछा। चिड़िया उसे समझाने लगी - अरे यहां तो खिड़की से तेज हवा आती है। यहां तो तू अपने जाले के साथ ही उड़ जायेगी। मकड़ी को चिड़िया की बात ठीक लगी और वह वहाँ भी जाला अधूरा बना छोड़कर सोचने लगी अब कहाँ जाला बनाया जाये?
        समय काफी बीत चूका था और अब उसे भूख भी लगने लगी थी। अब उसे एक आलमारी का खुला दरवाजा दिखा और उसने उसी मे अपना जाला बुनना शुरू किया।
        कुछ जाला बुना ही था तभी उसे एक काक्रोच नजर आया जो जाले को अचरज भरे नजरों से देख रहा था। मकड़ी ने पूछा - इस तरह क्यों देख रहे हो? काक्रोच बोला - अरे यहाँ कहाँ जाला बुनने चली आयी, ये तो बेकार की आलमारी है। अभी ये यहाँ पड़ी है कुछ दिनों बाद इसे बेच दिया जायेगा और तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जायेगी। यह सुन कर मकड़ी ने वहां से हट जाना ही बेहतर समझा।
        बार - बार प्रयास करने से वह काफी थक चुकी थी और उसके अंदर जाला बुनने की ताकत ही नहीं बची थी। भूख की वजह से वह परेशान थी। उसे पछतावा हो रहा था कि अगर पहले ही जाला बुन लेती तो अच्छा रहता, पर अब वह कुछ नहीं कर सकती थी उसी हालत मे पड़ी रही।
        जब मकड़ी को लगा कि अब कुछ नहीं हो सकता है तो उसने पास से गुजर रही चींटी से मदद करने का आग्रह किया। चींटी बोली - मैं बहुत देर से तुम्हें देख रही थी। तुम बार - बार अपना काम शुरू करती और दूसरों के कहने पर उसे अधूरा छोड़ देती, और जो लोग ऐसा करते हैं, उनकी यही हालत होती है। और ऐसा कहते हुए वह अपने रास्ते चली गई और मकड़ी पछताती हुई निढाल पड़ी रही।
        हमारी जि़न्दगी मे भी कई बार कुछ ऐसा ही होता है। हम कोई काम करते है। शुरू - शुरू में तो हम उस काम के लिये बड़े उत्साहित रहते हैं पर लोगों के  बातों की वजह से उत्साह कम होने लगता है और हम अपना काम बीच में ही छोड़ देते हैं और जब बाद में पता चलता है कि हम अपने सफलता के कितने नजदीक थे तो बाद मे पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता।

अपनी -अपनी किस्‍मत

शिवराज गुजर 

हे भगवान कौन से जन्मों के पापों की सजा दे रहा है मुझे? यह गंदगी भी मेरी छाती पर ही छोड़नी थी। पूरा घर गंदगी से भर दिया इस बुढ़िया ने। बीमार सास को गालियां देते हुए नाक बंद कर घर में घुसती मिसेज शर्मा नौकरानी पर चिल्लाई। कांताबाई! अरी कहां मर गई तू भी।
तभी बगल वाले कमरे से आई सास ने पीछे से कुर्ता खींचते हुए  पुकारा - बहू!
- हट बुढ़िया दूर रह, अभी फिर से नहाना पड़ेगा मुझे। सास को धक्का देते हुए मिसेज शर्मा बोली। तभी नौकरानी पर नजर पड़ी। कांताबाई,  यह तो दिन भर गंदगी करेगी, तू तो साफ कर दिया कर।
अभी और कुछ कहती, उससे पहले ही कांताबाई बोली - लेकिन मालकिन आज तो मां जी ने कुछ भी गंदगी नहीं की। एक दो बार हाजत हुई भी थी तो मुझे बुला लिया था तो मैं टॉयलेट में करा लाई थी।
- तो फिर यह गंदगी?
- अपने डॉगी को दस्त लग गए हैं।
- अरे बाप रे मेरा बेटू।  क्या हो गया उसे? मिसेज शर्मा चीखती सी बोली । तभी चूं - चूं करता डोगी उनके पास आ गया । मिसेज शर्मा उसे पुचकारते हुए उसके पास बैठने लगी, तो कांताबाई बोली - मालकिन कपड़े गंदे हो जाएंगे।
- अरे हो जाने दे, कपड़े कोई डागी से बढ़कर है क्या?
कहते हुए मिसेज शर्मा वहीं बैठ गई और डोगी पर हाथ फेरने लगी। अब कमरे से गंदगी और बदबू गायब हो चुकी थी। दूर से यह सब देख रही साथ डोगी की किस्मत से रश्क कर रही थी। शायद भगवान से दुआ मांग रही थी,अगले जनम मोहे कुतिया ही कीजो।

पेंशन की तारीख

        बड़ा बेटा रमेश सुबह ही बाबूजी के 20 दिन से टूटे चश्मे की मरम्मत कराने के लिए घर से निकल पड़ा है ।
छोटा बेटा दिनेश महीने भर पहले कराये बाबूजी के खून जांच की रिपोर्ट लाने जा चुका है ।
       बड़ी बहु बाबूजी का मन पसंद गाजर का हलुया बनाने में लगी हुयी है तो छोटी बहु ने कल रात ही बाबूजी का 4 दिन पहले टूटा कुर्ते का बटन लगा दिया था।
        इन सब बदलाव को देख, हैरान बाबूजी ने दोपहर की नींद के बाद, संध्या वंदन किया।
       अपने खून जांच की रिपोर्ट से खुश, बटन लगे कुर्ते को पहन बाबूजी ने गाजर के हलुए का स्वाद लिया।
      जब बाबूजी मरम्मत किया चश्मा लगा बाहर टहलने निकलने लगे, उनकी नज़र दीवार पर झूलते कैलेंडर पर पड़ी।
      काले बड़े अंकों में दिखते तारीख ने याद दिलाया और सहसा मुंह से निकल पड़ा - अरे हाँ! कल तो पेंशन तारीख है।
       दुखी, मुस्कुराते चेहरे के साथ बाबूजी निकल पड़े ।

पार्टी

       ढलती शाम के साथ हो रहे अँधेरे में छिप,उसी पुरानी सरकारी स्कूल के पीछे बहने वाले बड़े नाले के किनारे बनी आधी दीवार पर बैठ, अवि अपने सबसे करीबी दोस्त संतोष,सत्या के साथ 1.50 रूपये की पार्टी मना रहा था। 50 पैसे की शिन्गदाना की पूड़िया, 50 पैसे की चकली और 50 पैसे की मसाला नल्ली। एक दूसरे से मन की बात बताते हुए और इन चटर - मटर की चीजों को खाते हुए दोनों को बड़ा मजा आ रहा था।12 साल के अवि और 10 के सत्या के बीच 4 साल से बड़ी गहरी दोस्ती थी। अक्सर महीने में 2 - 3 बार दोनों की ऐसे पार्टी हुई करती थी। हर पार्टी का पैसा, समय और जगह एक ही होता, लेकिन हर बार खुशी और मजा ज्यादा।
       इस1-5 रूपये की कुछ खास बात थी। यह उन दोनों के शरारती दीमाग के मेहनत की देन थी। अवि जिस गली में रहता था, उस गली के लोगों का व्यवहार मिलनसार था। अक्सर वहां पड़ोस की औरतें अवि को कुछ सामान दूकान से लाने के लिए भेजा करती थी। संकोच से अवि कभी मना नहीं करता और काम किये जाता था। अवि और सत्या ने मिलकर इसका फायदा लेने की तरकीब निकाल ली। सामान लाने के लिए दिए गए रूपयों में से 50 पैसे तक की चोरी हुई करती थी याने 4 रूपये की दही 3.50 रुपए की होती थी और बचे 50 पैसे दोनों की जेब में। इस तरह 1.50 रूपये जमा हो जाने पर पार्टी हुआ करती थी।1 साल से ज्यादा हो चुके थे और इसी तरह दोनों की गुप्त पार्टी हुआ पार्टी की जाती रही।
       पड़ोस की बीबी एक लम्बे कद की दमदार और जोरदार महिला थी। बूढ़े होने पर भी उसने अपने रुवाबदार मिजाज को बरसों से कायम रखा था। अवि को देख उसने 4 रूपये थमाते हुए कहा - जा लोगा की दूकान से 4 रूपये का बेसन ले आ। अवि ने 50 पैसे की अपनी कमाई लेते हुये 3.50 रूपये के बेसन ला दे, खेलने भग गया। कीड़े पड़े बेसन ने बीबी को नाराज कर दिया। उसने अवि के घर पहुँच उसकी माँ से उसके होने के बारे में पूछा। अवि को ना पा, वह खुद ही लोगा के दूकान पहुँची और बेसन लौटा दिए। बदले में मिले 3.50 रूपये ने बीबी के तेज दीमाग को फौरन अवि की चालाकी का सन्देश दे दिया। 10 मिनट में ही यह कहानी अवि के माँ के कानों में थी। देर शाम लौटने पर अवि के1 साल पुराने इस व्यवसाय का माँ की 4 चपेटों से अंत हुआ।
       स्कूल के पीछे के उसी नाले की दीवार पर बैठ दोनों दोस्त बिना किसी पार्टी के आज बतीया रहे थे और बीते पार्टियों की यादों से मजे लिए जा रहे थे।

ग्राम पंचायत करेला


गुरुवार, 25 मई 2017

सम्‍मान के लिए समाजसेवा

कुबेर
                                            
      चाहे कुछ भी होे, कितना भी जरूरी काम निकल आए, प्रत्येक रविवार को वसु अपने दोस्तों से मिलने जरूर जाता है। उन मित्रों से, जिनका हृदय इतना विशाल और इतना उदार होता है कि सारी  दुनिया उसमें समा जाय और जो फिर भी न भरे; दुनिया के पवित्रतम वस्तुओं से भी पवित्र, जिनसे मिलता है सच्चा प्यार और निःश्छल व्यवहार। ऐसे मित्रों से मिलने भला किसका मन आतुर न होता होगा?
     आदत अनुसार उन्होंने अपनी बाइक उस दुकान के पास रोक दी जहाँ से वह हमेशा अपने मित्रों के लिए उपहार खरीदा करता है। दुकानदार मानो वसु की ही प्रतीक्षा कर रहा हो, दूर से ही उन्होंने वसु का जोशीला अभिवादन किया। मुस्कुराते हुए कहा ’’अहा! वसु जी आइये-आइये; आपको देखते ही पता नहीं क्यों, मन में एक विशेष उत्साह का संचार हो जाता है। मैंने आपका सामान पहले ही निकाल कर रख दिया है। चेक कर लीजिये, फिर मैं पैक कर देता हूँ। वसु ने भी दुकानदार से उसी मुस्कुराहट और उसी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उन्होंने सामानों की ओर देखा। हिसाब लगाया, प्रफुल्ल और प्रतीक को जो चॉकलेट पसंद है, वह है। श्वाति और शुभ्रा की भी पसंदीदा चॉकलेट रखा गया है। श्वाति और शुभ्रा का खयाल आते ही उन दोनों का चेहरा वसु की आँखों में उतर आया। पिछली बार विदा लेते समय उन दोनों ने बड़े भोले पन से मनुहार किया था - ’’वसु अंकल, अगले रविवार को क्या आप चॉकलेट के बदले हमारे लिये गुड़िया ला देंगे?’’
     ऐसे मनुहार पर तो दुनिया भी न्योछावर  किया जा सकता है।
     जब एक-एक पल की प्रतीक्षा पहाड़ के समान बोझिल और मन को तोड़ कर किसी दृढ विश्वासी व्यक्ति को भी निराशा के गर्त की ओर ढकेलनेवाला होता है, पता नहीं प्रतीक्षा का एक सप्ताह उन बच्चियों ने कैसे बिताया होगा? सोच कर वसु का मन वेदना से भर गया। मन की वेदना को हृदय की स्वभावगत तरलता से नम करते हुए वसु ने कहा - ’’सेठ जी, दो बार्बी डॉल भी रख दीजिये।’’
     वसु ने सामानों को फिर चेक किया। बाकी बच्चों के लिए भी टॉफियों का एक डिब्बा रखा हुआ है।
और रोहित के लिये?
      रोहित सबसे अलग, सबसे ज्यादा मासूम और सबसे ज्यादा प्यारा बच्चा है। न तो कभी वह खिलौनों के लिए जिद्द करता है, और न मिठाइयों के लिए। उसे तो बस बाइक की सवारी चाहिये। वसु अंकल के पीछे बाइक पर बैठ कर परिसर का चक्कर लगाना उसका प्रिय शगल है।
     रोहित सबसे अलग है इसलिये उसका गिफ्ट भी सबसे अलग होना चाहिये।
और आकाश?
     सबसे छोटा, सबसे प्यारा और सबका प्यारा आकाश। बाकी बच्चे तो केवल देखने में ही अक्षम हैं, पर आकाश?
     आकाश चाहे देख न सकता हो, बोल न सकता हो, चल फिर भी न सकता हो, पर समझता तो सब कुछ है न? आँ.... करके और अपनी नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियों को नचा-नचा कर अपनी बातें साफ-साफ कह तो सकता है न? वसु उसके इशारों को और उसके मन की एक-एक बात को अच्छी तरह से समझता है। वसु को संतोष हुआ, सामानों की इस छोटी सी ढेर में उसका भी पसंदीदा सामान है।
     वसु ने अपनी जेब को टटोल कर देखा; वह लिफाफा भी सही सलामत मौजूद है, जिसमें उसने रोहित के लिये प्यारी सी एक कविता लिख कर रखा हुआ है। हाँ, रोहित के लिये, उसके जन्म दिन की बधाई की कविता, ब्रेल लिपि में।
     वसु ने इत्मिनान की साँस ली।
     सामानों को पैक करते हुए दुकानदार ने पूछा - ’’आज जल्दी जा रहे हैं आप?’’
वसु - ’’हाँ, मैं चाहता हूँ कि आज वहाँ होने वाले फंक्शन से पहले ही मैं अपने मित्रों से मिल आऊँ।’’
     ’’फंक्शन?’’
’’हाँ, आपको पता नहीं , शुलभा जी का आज वहाँ सम्मान हो रहा है?’’
’’अच्छा, शहर क्लब का चेयर परसन, नगर सेठ की पत्नी, जिसे हाल ही में समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, वही शुलभा जी न?’’
     हाँ वही, अँधों में काना राजा। जिनके पति जिले भर के शराब ठेकों का मालिक है; और अनाथ, निःशक्त बच्चों की इस संस्था को, और इस तरह की अन्य संस्थाओं को भी, हमेशा लाखों रूपयों का दान दिया करता है। इसी से शायद कहावत बनी होगी; गऊ मार कर जूता दान।’’
     ’’क्यों क्या हुआ? शुलभा जी तो बराबर उन निशक्त बच्चों के बीच जाती रहती हैं। अखबारों में भी तो खूब छपता है।’’
     ’’सेवा करने के लिए नहीं भाई साहब, केवल फोटो खिंचवाने के लिए; जिन्हें अखबारों में छपवाकर वाहवाही लूटी जा सके, और जिसकी एवज में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया जा सके। आप क्या समछते हैं, वह उन बच्चों से प्यार करती हैं?’’
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     जितनी अधीरता बच्चों से मिलने के लिए वसु के मन में रहता है, उससे कहीं ज्यादा अधीरता बच्चों के मन रहता है, वसु से मिलने के लिए। यद्यपि सारे बच्चे नेत्रहीन हैं, पर वसु की उपस्थिति को पता नहीं वे कैसे भाप जाते हैं? इस रहस्य को वसु अब तक नहीं समझ सका है। विचारों में इसी गुत्थी को सुलझााने का प्रयास करता हुआ वह असक्त विद्यालय की ओर जानेवाले मार्ग पर अपनी बाइक सरपट भगाए जा रहा है।
      वसु सोच रहा था; यह दुनिया, जो इन बच्चों को और इन जैसे लोगों को असक्त, अपाहिज या विकलांग कहकर इनका तिरस्कार करती है, उपहास उड़ाती है, और दया की दृष्टि से देखती है, वह कितनी स्वस्थ है? क्या मिलता है इन बच्चों को इस दुनिया और इस समाज से, अपमान और घृणा के सिवाय? ईर्ष्या, द्वेष, छल-प्रपंच, और दूसरों को हीन समझनेवाली दुनिया के पास जो कुछ भी होता है; चाहे ममता, करूणा और प्रेम ही क्यों न हो, सब कुछ दिखावे के लिए ही तो होता है। दुनिया अगर इनके प्रति सेवा-भाव, ममता करूणा और प्रेम दिखाती भी है तो केवल अपना स्वार्थ साधने के लिए ही तो। और आखिर शुलभा भी तो इसी समाज का अंग है; इसी दुनिया में रहती है और खुद को स्वस्थ-संपूर्णांग समझती हैं।
     सोचते-सोचते वसु के मन में स्वार्थ और यश-लोलुपता के आवरण में छिपा शुलभा देवी का चित्र और चरित्र, दोनों उभर आया।
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     लगभग छः महीने पहले की घटना है; अगस्त का महीना था, संस्था में पौधारोपण का कार्यक्रम रखा गया था। कार्यक्रम का चीफ गेस्ट नगर की सुप्रसिद्ध समाज सेविका और शहर क्लब की चेयर परसन शुलभा जी थी। सप्ताह भर पहले से ही कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। क्यों न हो, शुलभाजी के साथ नगर क्लब की तमाम पदाधिकारी, उनकी सहेलियाँ भी तो आ रहीं थी।
     पौधारोपण का कार्यक्रम प्रातः दस बजे तय किया गया था। शुलभा जी की कृपा से एक दिन पहले ही रोपणी के पौधे आ चुके थे, और उन्हें रोपने के लिये संस्था परिसर में गड्ढे भी खोदे जा चुके थे। नहीं आई थी तों बस शुलभाजी और उसकी फौज।
     बेहद प्रतीक्षा के बाद शुलभाजी का काफिला आया। प्राचार्य  महोदय की सक्रियता देखते ही बनती थी। शुलभाजी की अहम कोें जरा भी स्पर्श करने का मतलब स्थानांतरण से लेकर निलंबन तक कुछ भी हो सकता था।
     आते ही शुलभाजी ने प्राचार्य से दो टूक शब्दों में कह दिया था कि उनके पास समय नहीं है और किसी भी हालत में, दस मिनट में सारा काम निबट जाना चाहिए।
     शुलभा जी की रूप-सज्जा, सुंदरता और रूतबा देखते ही बनता था। मंहगे परिधान और कीमती आभूषण से उनकी अमीरी सब पर भारी पड़ रहा था, पर साथ में आई बाकी महिलाएँ भी किसी से कम नहीं थी। दुर्भाग्य यह था कि स्टाफ के कुछ सदस्यों के अलावा इस नजारे को देखनेवाला वहाँ और कोई नहीं था। बच्चे यहाँ के देख नहीं सकते थे; वे देख सकते थे तो बस अपने मन की आँखों से, मन की सुंदरता को। महसूस कर सकते थे तो अपने हृदय की उदाŸा भावनाओं से हृदय की उदाŸा भावनाओं को और छू सकते थे तो बस अपनी आत्मा की पवित्रता से आत्मा की पवित्रता को।
     शुलभाजी के पास ऐसा कुछ भी नहीं था।
     तैयारियाँ चाक-चौबंद थी। रोपण हेतु खोदे गए प्रत्येक गड्ढे के पास रोपणी का पौधा लिये एक-एक छात्र तैयार खड़ा था। अतिथियों के नाम की पट्टिका युक्त ट्रीगार्ड भी गड्ढों तक पहुँचा दिये गये थे। रोपण के पश्चात् जल सिंचन हेतु हजारा लिये दूसरा व्यक्ति तैयार खड़ा था। हाथ धुलवाने के लिये मंहगे साबुन की टिकिया ट्रे में सजाकर फिर दूसरा व्यक्ति, तथा हाथ पोंछने के लिए भी स्वच्छ तौलिये का ट्रे लिये एक अन्य व्यक्ति तैयार खड़ा था।
      शुलभाजी ने देखा, रोपण हेतु खोदे गए गड्ढों के आसपास रात में हुई बारिश के कारण कीचड़ हो गये हैं। कीचड़ देख कर उसकी नाक में सिलवटे पड़ गई। उचित जगह की तलाश करते हुए उनकी निगाहें कार्यालय के मेन गेट के पास की सूखी, पथरीली जमीन पर जाकर टिक गई। इससे अच्छी जगह उसे भला और कहाँ मिलती?
मुख्य अतिथि का इरादा भाँपकर प्राचार्य महोदय ने अपने कर्मचारियों को इशारा किया कि ऑफिस के गेट के पास पौधारोपण की तैयारी किया जाय। एक शिक्षक ने प्राचार्य के कान में कहा - ’’सर, वहाँ की जमीन तो पथरीली है और ऊपर रेत भी है।’’
      प्राचार्य ने उसे बुरी तरह झिड़ककर चुप करा दिया।
आसपास की रेत की परत को इकत्रित करके शुलभाजी को पौधरोपण कराया गया। पानी भी सींचा गया। हाथ हटाते ही पौधा एक ओर लुड़क गया।
 शुलभाजी के रेत सने गंदे हाथ धुलवाये गये।
     इस बीच शुलभाजी का कैमरामैन हर एक क्षण को बड़ी तन्मयता के साथ अपने कैमरे में कैद कर रहा था।
अगला कार्यक्रम था बच्चों से मिलने का। शुलभाजी ने बच्चों की ओर देखा, और इसी के साथ इन दिव्यांग बच्चांे के प्रति उसके मन का छद्म प्यार उसके चेहरे पर उतर आया।
     शुलभाजी ने सोचा होगा - ये दृष्टिहीन बच्चे उसके इस भाव को थोड़े ही देख सकेंगे; पर उसे क्या पता, बच्चे उसके चेहरे को पहले ही पढ़ चुके थे।
     बच्चे बहुत ही शालीन और अनुशासित ढंग से कतार में खड़े थे। अपने व्हील चेयर पर आकाश भी इस कतार में शामिल था। बच्चे अनुशासन का पालन करते हुए खड़े जरूर थे पर उनके चेहरों की भावशून्यता अपनी कहानी स्वयं कह रहे थे। बच्चों के चेहरो पर विŸाृष्णा के भाव स्पष्ट दियााई दे रहे थे।
     शुलभाजी बड़े प्यार से बच्चों से मिल रही थी। किसी के साथ हाथ मिला रही थी, किसी के सिर पर हाथ फेर रही थी तो किसी को गले लगा रही थी। उसका कैमरा मैन इन क्षणों को बड़ी तन्मयता के साथ अपने आधुनिक डिजिटल कैमरे में कैद कर रहा था।
     उनका यह सारा प्रेम कैमरे के आन रहते तक ही था। कैमरा बंद होते ही उनकी असलियत एक बार फिर उसके चेहरे पर तैरने लगी। अपने हाथों को वह ऐसे झटक रही थी मानो भूलवश उन्होंने किसी गंदी वस्तु को छू लिया हो। हाथ धुलानेवाला पास ही खड़ा था, उन्होंने पहल की; तभी शुलभाजी के सहायक ने उसके कानों में कुछ कहा। नाक-भौंह सिकोड़ते हुए शुलभाजी ने आकाश की ओर देखा, उसके चेहरे पर घृणा की अनेकों गहरी रेखाएँ उभर आई; पर काम जरूरी था, करना ही होगा।
     आकाश को गोद में लेकर फोटो खिंचवाना निहायत जरूरी था।
     चेहरे पर फिर ममता का मुखौटा लगाकर शुलभाजी ने आकाश को गोद में लेने का प्रयास किया। आकाश ने पूरे मनोयोग से, चिल्लाकर अपनी असहमति जताई।
     फोटो खिंच जाने के बाद शुलभाजी के मन की घृणा और क्रोध एक साथ फूट पड़ा। आकाश को उसके व्हील चेयर पर लगभग फेंकते हुए वह हाथ धोने के लिए आगे बढ़ गयीं।
     यह सब देख वसु का हृदय क्रोध से उबल पड़ा। मन में आया कि मन और हृदय, दोनों से ही विकलांग इस महिला को तुरंत परिसर से बाहर जाने का रास्ता दिखा देना चाहिए; पर उसके अधिकार में कुछ न था।
वसु इस संस्था का नियमित कर्मचारी नहीं है, परंतु इन बच्चोें से लगाव होने के कारण उन्होंने ब्रेल लिपि सीखी, संकेत की भाषा सीखी। वह इन बच्चों की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता है। संस्था के प्राचार्य ने वसु के इस मानवीय कर्तव्य के निर्वहन को सराहते हुए बच्चों से मिलने की उसे अनुमति दे रखी है। शुलभाजी से तकरार मोल लेकर वह अपने लिए इस परिसर का गेट हमेशा के लिए बंद नहीं करवाना चाहता था।
     वसु ने शुलभाजी की तरह न तो कभी फोटो खिंचवाया और न ही प्राचार्य से किसी प्रकार का प्रशस्ति पत्र ही मांगा। उसे तो बस इन बच्चों से मिलना और उनके साथ खुशियाँ बाटना ही अच्छा लगता है।
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      आज फिर वही सब कुछ होनेवाला था। वह इस फंक्शन में किसी भी हालत में आना नहीं चाहता था। बच्चों की जिद्द और रोहित का जन्मदिन नहीं होता तो वह कदापि न आता। पर इसके लिए भी उसने रास्ता खोज लिया था; फंक्शन के पहले ही वह इन बच्चों से मिलकर लौट आयेगा।
      वसु ने कई बार सोचा कि अचानक पहुँच कर हच्चों को सरपराइज किया जाय, पर अब तक वह सफल नहीं हो पाया है।
      पहले उन्होंने सोचा था, बच्चे शायद आवाज से उन्हें पहचान जाते होंगे। पर नहीं, सरपराइज देने के लिए वह कई बार बिना कोई आवाज किये भी उनके बीच जाकर देख चुका है। पल भर देर से ही सही, वे पहचान जाते हैं। शायद बालों में लगाए गये तेल की गंध से पहचान जाते हों? उन्होेंने बिना तेल के और तेल बदल कर भी इस शंका का निवारण कर लिया है। फिर उन्होंने सोचा, शायद बाइक की दूर से आती आवाज से वे पहचान लेते होंगे। हाथ कंगन को अरसी क्या? आज इसकी भी जाँच कर लिया जाय।
      वसु ने बहुत पहले ही अपनी बाइक छोड़ दी। पैदल चलकर उसने संस्था में प्रवेश किया। फंक्शन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था। रोहित सभा स्थल से दूर, हाथ में वाकिंग स्टिक लिये सबसे अलग, सबसे दूर खड़ा हुआ था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। दबे पाँव आकर वसु उससे कुछ दूरी पर खड़ा हो गया और उसके चेहरे पर उभर रहे भावों को पढ़ने का प्रयास करने लगा। क्षण भर बाद ही रोहित के चेहरे पर राहत और खुशी के मिलेजुले भाव तैरने लगे। उन्होंने पुकारा - ’’वसु अंकल?’
     वसु अभी और परीक्षा लेना चाहता था, कुछ न बोला।
अब रोहित तेज कदमों से चलता हुआ आकर वसु से लिपट गया। कहा - ’’अंकल, आप बोलते क्यों नहीं, नराज हैं?’’
’’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू।’’
     अब तो बाकी दोस्त भी रोहित के पास आ गये और मिलकर ’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू’; गीत गाने लगे।
वसु ने कहा - ’’माय डियर, नाराजगी नहीं, सरपराइज, अंडरस्टैण्ड?’’
रोहित की खुशियों का ठिकाना न रहा।
     वसु ने जन्मदिन की कविता रोहित के हाथ में रख दिया। पढ़कर रोहित पुनः वसु से लिपट गया। सभी मित्रों ने भी वह कविता पढ़ी -
’’मित्र! तुम सबसे अच्छे हो
हाँ मित्र!
इस दुनिया की सबसे अच्छी वस्तु से भी,
और तुम सबसे सुंदर भी हो
इस दुनिया की तमाम सुंदर वस्तुओं से भी।

मित्र!
तुम्हारा मन, सबसे अधिक उजला है
चाँद-तारों से भी अधिक,
और तुम्हारा हृदय -
बहुत गहरा और बहुत विशाल है
समुद्र और आसमान से भी अधिक
क्योंकि -
ईश्वर ने अपने ही हाथों,
पवित्र मन से, और -
सृजन के पवित्रतम पलों में तुम्हें गढ़ा है।

मित्र!
दुनिया की हर कठिनाई को
तुम जीत सकते हो,
क्योंकि -
शिकायतों और शर्तों से भरी इस दुनिया को
बिना शिकायत तुमने अपनाया है,
दुनिया में तुमने केवल मित्र बनाया है।’’
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बधाई पत्र पढ़कर बच्चे फिर चहक उठे।
     बिदा होने का समय आ गया। पता नहीं कि रोहित को क्या सूझा। उसने पूछ लिया - ’’अंकल, सावन का अँधा क्या होता है?’’
     वसु के मन में आया, कह दे कि शुलभा जैसे लोग ही सावन के अँधे होते हैं; पर उसका मन राजी न हुआ। निष्कपट बच्चों के मन में दुर्भावना का बीज बोना उचित नहीं था। उन्होंने कहा - ’’बच्चों, गलत चीजों को देख कर भी जो नहीं देखता, वही सावन का अँधा होता है।’’
वसु के विदा होते ही सावन के अँधों का काफिला पहुँच गया।
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पता
व्‍याख्‍याता
शासकीय हाईस्‍कूल, कन्‍हारपुरी
राजनांदगांव (छत्‍तीसगढ़ )
मोबाईल - 9407685557

अलगाव से लगाव तक

डॉ. दीप्ति गुप्ता
 
‘ मुझे पता था तुम यही कहोगी’
‘पता था तो आपने पूछा ही क्यूँ ‘
‘क्यूँ का क्या सवाल, पति हूँ तुम्हारा, पूछना मेरा हक़ है ‘
‘हक़ तो आप ख़ूब जानते हैं कभी कर्तव्यों पे भी नज़र डाली है ‘
‘ओफ़्फो, तुमसे तो कुछ भी कहना बेकार है, ठीक है एक कप चाय दो जल्दी से ‘
‘ये घर है कि धरमशाला ? जब देखो कभी ताई, कभी मौसी, कभी चाचा-चाची चले आते हैं और दो दिन नहीं बल्कि दो-दो हफ़्तों तक जाना भूल जाते हैं ‘
‘चाय के साथ कुछ लोगे क्या ‘
‘पूछ क्या रही हो, अपने आप से कुछ नहीं ला सकती क्या ‘
‘अरे, अजीब बात करते है, आप अक्सर ही खाली चाय पीते हैं दफ़्तर से आकर ‘
‘तो फिर पूछा ही क्यों ‘
‘यूँ ही कभी-कभी आपका चाय के साथ कुछ हल्का फुल्का खाने का मन कर आता है, सो...’
‘तुम या तो समझदार ही हो जाओ या नासमझ ‘
‘मैं तो समझदार ही हूँ, अब तुम्हें नज़र नहीं आती – वो अलग बात है ‘
ये कपड़ों का ढेर बिस्तर पे क्यों पड़ा है, देखो सारा कमरा कैसा बेतरतीब है ‘
‘क्या करूँ सारे दिन चक्की की तरह पिसती रहती हूँ – सफ़ाई, झाड़ू, खाना,बर्तन. कपड़े धोने – सुखाने – सारा दिन ऐसा निकल जाता है कि साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती, फिर भी काम नहीं निबटते ‘
‘हुँह काम नहीं निबटते......तुम हो ही फूहड़ ’
‘चलो फूहड़ ही सही, पर घर तो सम्भाल ही रही हूँ। महीनों भर ढेरों मेहमानों की आवभगत, सेवा टहल ये फूहड़ ही कर रही है ‘
‘बबली को एडमीशन के लिए कल स्कूल लेकर गई ? ’
‘गई थी, हो गया दाखिला, उसकी स्कूल ड्रेस और कॉपी – किताब आनी हैं ‘
‘ठीक है, शाम को ले आऊँगा। और कुछ ?’
‘मेरठ वाली ताई जी परसों जाने वाली हैं। उनके लिए चौड़े किनारे वाली हैन्डलूम की एक साड़ी लानी है ‘
‘हे भगवान, अगर मैं इसी तरह लेन- देन की साड़ियाँ लाता रहा तो महीने का खर्च कैसे चलेगा ‘
‘मैं क्या जानूँ, अम्मा जी नाराज़ हो जायेगी। दस बात मुझे सुननी पड़ेगी। कुछ भेंट तो ताई जी को देनी ही है, अम्मा जी चाहती हैं कि हैन्डलूम की एक साड़ी दी जाए‘
         घड़ी ने 8 बजाए। बाबू जी कमरे से बोले – ‘बहू खाना बन गया क्या ?’
कला ने झटपट थाली लगाकर बबली के हाथ बाबू जी के कमरे में भिजवाई। फिर बारी-बारी से ताई जी, अम्मा जी, कपिल,बबली, ननद और देवर को गरम-गरम खाना खिलाया। अंत में बचा खुचा खाना किसी तरह जल्दी-जल्दी निगल कर, चौके की सफाई की और ग्यारह बजते-बजते दिन भर की थकी हारी बिस्तर पे पड़ते ही सो गई।
          सुबह चार बजे कला जगह-जगह से दुखते बदन को किसी तरह समेटती हुई उठी। दिल और शरीर साथ नहीं दे रहे थे। तभी दिमाग ने कला के निढाल शरार में कर्तव्यनिष्ठता की चाबी भरी और वह एकाएक उर्जा से भर कर घर की झाड़ू, साज-सफाई में लग गई। रोज़मर्रा की तरह मशीनी रफ़्तार से नहा धोकर, रसोई में घुस गई। सबके उठने से पहले, सुब्ह की गरम-गरम अदरक और तुलसी की चाय बनाई और सबको कमरों में दे आई। फिर पूजाघर में धूप बत्ती जलाकर ‘रामरक्षा स्त्रोत’ का जाप किया। इसके बाद खुद ने रसोई में चलते फिरते, सब्ज़ी बिनारते, दाल-चावल बीनते-धोते, गरम से गुनगुनी हुई अपनी चाय टुकड़ा-टुकड़ा पी। नौ बजे कपिल को लंच बॉक्स तैयार करके दिया और बबली को भी स्कूल बैग, लंच बॉक्स, वाटर बॉटल देकर कपिल के हवाले किया जिससे वह रास्ते में उसे स्कूल में छोड़ सके। इसके बाद सारे दिन इस काम, उस काम में रोबोट की तरह लगातार लगी रही।
         ‘अरे कला,गुसलख़ाने में अभी तक मेरे धुले कपड़े ऐसे ही रखे हैं....फैलाए नहीं तुमने।‘ आजकल की बहुएँ भी न बस.....अम्मा जी उलाहना देती गुसलख़ाने के पास से गुजरी तो चावल पकाती कला अपने दिलोदिमाग़ को साधती मृदुता के साथ बोली – ‘अभी फैलाए देती हूँ अम्माजी। रसोई के काम में भूल गई।‘
         कला रोनी-रोनी सी कपड़े झटकती, सन्न सी सोचती रही कि सबकी ज़रूरत पूरी करती हूँ। बहू, पत्नी, भाभी और माँ के सारे कर्तव्य कभी भी उफ़ किए बिना निबाहती हूँ, पर कोई मेरी ज़रूरत, एक मुठ्ठी ख़ुशी, एक पल के आराम का ज़रा भी ख़्याल करता है ? बड़ी कठिन है ज़िन्दगी...!
          तीन बजे ऑफ़िस से कपिल का फ़ोन आया कि आज शाम को वह साथ चलने को तैयार रहे, एक साथी के घर बच्चे के जन्मदिन पे ज़रूरी जाना है। कला कुछ कह पाती, इससे पहले कपिल ने फोन काट दिया। कला को बहुत बुरा लगा। सोचने लगी इतनी बेइज़्ज़ती तो किसी मातहत की भी नहीं होती, फिर वह तो पत्नी है। उसकी स्थिति तो एक मातहत से भी गई गुज़री हो गई.... ? वह दासी है, या ख़रीदी हुई गुलाम, क्या है वह.... ? उसका दिल कसैला हो उठा। वितृष्णा की तीखी लहर सिर से पाँव तक उसे कड़ुवाहट से भर गई। विवाह प्रेम-बंधन है या गुलामी का अनुबंध ?
          शाम को कपिल ने आते ही चाय बाद में पी, पहले कला को ताना मारा – ‘अभी ऐसे ही उधड़ी-उधड़ी फिर रही हो! कब तैयार होओगी जाने के लिए,जब दोस्त के घर पार्टी ख़त्म हो जाएगी ? सबके आदेश का पालन करती हो, बस मेरा ही कहना मानने में ज़ोर पड़ता है...! पति का साथ देना आता है तुम्हें.....घर के काम तो कभी ख़त्म होंगे नहीं...कुछ अक्ल से काम लेना सीखो।‘
        कला रुआंसी हो गई। किसी बहस में न पड़कर, किसी तरह ताक़त बटोरती सी बोली –‘बस अभी तैयार होती हूँ।‘
         गति से तार पे फैले कपड़ों को समेटती, उन्हें कमरे के कोने में रखे मूढ़े पे रख कर वह बामुश्किल तैयार हो पाई। इस दौरान अम्मा, बाबू जी, ताई जी सभी की एक बाद एक मांगें तीर की तरह उस पे पड़ती रहीं। कपिल घर वालों पे मन में घुमड़ते नपुंसक क्रोध को दबाता हुआ, कुढ़ता बैठा रहा। छ: बजते-बजते दोनों किसी तरह घर से निकले। रास्ते भर वह स्कूटर चलाता कला से जली भुनी बातें करता रहा। दोस्त के घर पहुँचने तक उसका दिल कला पे अपनी खीझ निकाल कर काफ़ी हल्का हो चुका था और कला का दिल पनैले बादल की मानिन्द भारी जो कहीं भी, कभी भी फट सकता था। लेकिन समझदार और साहसी कला ने उपने मन को सहेज समेट कर व्यवहारिकता का चेहरा ओढ़ा और कपिल के पीछे-पीछे जन्मदिन के हर्षोल्लास से भरे घर में दाख़िल हुई। दोनों बड़ी नम्रता और मुस्कुराहट के साथ सबसे मिले। बातें, चाय-नाश्ता, बच्चों के नाच-गाने, इन सबके बीच भी होकर भी कला दिलो-दिमाग से अपनी ससुराल में ही थी। उसका ध्यान घर के अधूरे पड़े कामों में ही अटका था। वे उसके जीवन का न चाहते हुए भी ऐसा हिस्सा बन चुके थे कि वह मानसिक और शारीरिक रूप से उन्हें ही समेटने में लगी रहती थी। आठ बजे तक सबसे विदा लेकर दोनों घर के लिए रवाना हुए। कपिल रास्ते भर मेजबान मिसेज़ सेठी की आवभगत, व्यवहार कुशलता, रूप-गुण की तारीफ़ों के पुल बाँधता रहा।
         उस रात कपिल पहली बार कला की ओर रूखेपन से करवट लेकर सोया। कामों के बोझ से थकी हारी कला ने उस पल सच में अपनी हार को मानो कपिल की पीठ से अपने पर बेदर्दी से हावी होते हुए देखा। कोमा में अवचेतन पड़े इंसान की तरह वह सुन्न पड़ी रही। इससे पूर्व आज तक कपिल ने कितनी भी कड़वी बातें उसे कही, पर कभी इस तरह करवट लेकर सारी रात अजनबी बनकर नहीं सोया। कितना भी थका,खीझा या कड़वाहट से भरा हो वह, किन्तु सोने से पहले कला को आगोश में ज़रूर लेता था। इन दस सालों में कपिल की कड़वी से कड़वी बातों ने उसे ऐसा आहत नहीं किया जैसा कि आज उसकी करवट ने तोड़ डाला। कला किसी अप्रिय अनहोनी की आहट से भयभीत न जाने कब कैसे सो पाई।
        अगले दिन कला को कुछ याद न था सिवाय के कपिल का चेतावनी देता रूखापन। पिछले दस सालों में उसकी सारी उर्जा, ताकत इस कदर चुक गई थी कि उसमें प्रतिरोध करने की क्षमता शून्य हो चुकी थी। कल रात की घटना से तो जैसे उसकी जिजीविषा ही मर गई थी। कपिल उसका पति, उसका जीवन, जीने का सहारा था, पर आज वह उसके होते हुए भी कितनी बेसहारा और मृतप्राय: थी.....! उसने अपने को इतना तिरस्कृत, इतना एकाकी कभी नहीं पाया था। कला का मन भयावह आशंका से बोझिल था।
         कई दिनों तक कपिल का वही रवैया रहा, जैसे कला से कोई मतलब नहीं। कुछ दिनों तक तो वह उखड़ा सा तनावग्रस्त रहा, लेकिन लगभग एक सप्ताह से कला महसूस कर रही है कि वह अपने में बड़ा सन्तुष्ट और शान्त दिख रहा है जैसे वह किसी उलझन से निकलकर, एक समाधान पे पहुँच गया हो। हर बीतते दिन के साथ कला शीत युध्द के भँवर में गहरे धंसती जा रही है। जैसे-जैसे कपिल एक निशब्द उलझन से निकलता नज़र आ रहा है, वैसे-वैसे कला मानो उस निशब्द उलझन में उलझती जा रही है। उन दोनो के बीच वैवाहिक संबंध की आत्मीयता और भावनात्मक एकात्मता मुठ्ठी से रेत की भाँति फिसलती जा रही है। वह अपनी आँखों के सामने कपिल और अपने बीच तैरते हर भाव को पल-पल डूबते देख रही है और कुछ भी नहीं कर पा रही है। ये कपिल को अचानक क्या हो गया…?? वह उसकी दयनीय स्थिति और विवशता को सहानुभूतिपूर्वक क्यों नहीं समझ रहा है। वह कौन सी जादू की छड़ी घुमा दे कि सब कुछ कपिल का मन चाहा हो जाए। पति की इच्छानुसार चले या घरवालों के आदेशों का पालन करे ?
         इस शीत युध्द में डूबते उतराते एक दिन कपिल ने रात को कला को अपना कठोर फैसला सुनाते हुए कहा – ‘मेरे लिए तुम्हारे साथ इस तरह निबाह करना अब और सम्भव नहीं। मैंने फैसला कर लिया है कि हमें अलग हो जाना चाहिए। तुम तो कभी बदलोगी नहीं। तुम चाहती तो मेरे मन चाहे अनुसार अपने को ढाल सकती थीं, पर तुम मेरी भावनाओं, मेरी चाहत, मेरी पसन्द को इस क़दर नज़रअन्दाज़ करती रही हो कि तुम्हारे इस बेपरवाह रवैये से मेरी हर भावना, हर संवेदना ख़ुद-ब-ख़ुद इतनी कुचल गई कि अब मैं तुम्हारे साथ अजनबी महसूस करने लगा हूँ। तुम्हारी निकटता में असहज हो जाता हूँ। न जाने मेरे सारे दोस्तों की बीवियाँ कैसे गृहस्थी भी और ख़ुद को भी इस ख़ूबसूरती से सम्भालती है कि मेरे दोस्त उनके गुण गाते नहीं थकते। सो मैं तो उस दिन का इन्तज़ार करते-करते थक गया जब तुम घर की बहू ही नहीं, मेरी सुघड़-सलोनी पत्नी भी बन सको। बहुत सोच-समझ के मैंने यह निर्णय लिया है कि हमें तलाक़ ले लेना चाहिए। कोर्ट के नियमानुसार तलाक़ से पहले तुम्हें कम से कम छ: महीने मुझसे दूर रहना होगा। इसलिए तुम जल्द से जल्द अपने मायके चली जाओ। फिलहाल बबली को ले जा सकती हो, पर बाद में उसकी कस्टडी मुझे मिलेगी।
         ये सब सुनकर कला सकते में आ गई। उसे लगा कि वह किसी अँधेरी गुफा में चलती जा रही है। कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा है। आँखें खुली हैं पर वह कुछ भी देख पाने में असमर्थ है। वह निपट अँधेरे में भटक गई है। टूट के बिखरने को है, फिर भी न जाने कैसे अपने को सम्भाले है। तभी वह एक झटके से चेतना में आई और करुणा से भरे डूबते स्वर में कपिल से बोली –‘कपिल प्लीज़ ऐसा मत करना। मैं जीते जी मर जाऊँगी।भले ही मैं तुमसे ज्यादा तुम्हारे घरवालों के कामों को समर्पित हूँ, लेकिन मेरे दिल में हर क्षण तुम और सिर्फ़ तुम ही समाए हो। मुझे ऐसा निरीह मत बनाओ प्लीज़। मुझे तलाक मत देना कपिल....’
- ‘क्यों न दूँ ? आज तक कभी सोचा तुमने इस बारे में ? धीरे-धीरे पनपती भावनात्मक एकरसता पे कभी गौर किया तुमने ? अब रोने गिड़गिड़ाने से क्या फ़ायदा कला। तुम सिर्फ़ नाम की ही कला हो। तुम्हें जीने की, जीवन को प्यार से भरने की कला आती है ? आती होती तो वैवाहिक जीवन को इस तरह बंजर न होने देती। सिर्फ मेरे अकेले के कोशिश करने से कुछ नहीं हो सकता। तुमने तो मेरी भी सारी उर्जा राख करके रख दी। तुम्हारे साथ तुम्हारी तरह मेरा जीवन भी फूहड़ और उबाऊ हो गया है। इससे तो मैं अकेला भला।‘
         कला फफक उठी। सिवाय बार-बार अनुरोध करने के वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। वह बारम्बार अपनी मजबूरी, अपनी स्थिति, घरवालों के लिए अपना सेवाभाव, कपिल के लिए दिल में अथाह प्यार – इस सब को समझाने की वह नाकामयाब कोशिश करती रही। पर कपिल जैसे चट्टान बन चुका था – एकदम संवेदनाशून्य। वह अपनी ही बात पे अड़ा रहा।
           अगली सुब्ह आई। दोनों ख़ामोशी ओढ़े अपनी-अपनी दिनचर्या में रोज़ की तरह लग गए। कामों में लगी कला अपने मन को ढाढस बँधाने में लगी रही, दिल में रखे भारी बोझ से जूझती रही।शाम तक वह काफ़ी तटस्थ हो चुकी थी। कपिल की इच्छानुसार, इस मामले में वह उसके निर्णय की बलि चढ़ने को मजबूर थी। उसने सब किस्मत पे छोड़ दिया था। इतना सब करने पे भी यदि पति से अलगाव लिखा है तो न चाहते हुए भी उसे वह स्वीकारना होगा। सारे दिन वह घर के आंगन, कमरों, दीवारों को नज़र भर-भर के देखती, मन ही मन उनसे दूर होने की जंग लड़ती और जब भी, जहाँ भी उसे एकान्त मिलता, रो लेती। उसे जी भर के रोने की भी फुर्सत नहीं मिल पाती थी। ताई जी चली गई और जाते-जाते उस पर तानों की बौछार कर गई।
         अगले दो दिनों में कपिल की नागपुर वाली बुआ और फूफा जी आने वाले हैं। कला सोच रही थी कि वह उनके स्वागत की तैयारी करे या इस घर से अपनी विदाई की.....!!
- ‘बहू परसों निम्मो बहनजी आ रही हो। तुम्हे पता है न उनका तेज़ स्वभाव...ज़रा उनके लिए कमरा वगैरा ठीक से साफ कर लो। भाईसाहब तो फिर भी शान्त है,पर निम्मो बहनजी को एक एक चीज़ टिप-टॉप चाहिए’ – अम्मा जी ने अपने कमरे से कला को आदेश दिया।
- ‘जी अम्मा जी आज शाम तक सब तैयारी कर दूँगी’ – कला मरी सी आवाज़ में बोली।
शाम को कपिल के ऑफ़िस लौटने पर अम्मा जी कला की शिकायत करती बोली –
- ‘आजकल बहू का ध्यान न जाने कहाँ रहता है, आज उसने दाल में इतना नमक भर दिया कि मेरे तो हलक के नीचे ही नहीं उतरी और मुझे सूखी सब्ज़ी सो रोटी खानी पड़ी। तेरे बाबू जी की किताबों की शैल्फ़ दस दिन से बिना सफाई के धूल से भरी पड़ी है। दोपहर के खाने के बाद ये चाहे तो क्या साफ नहीं कर सकती ? पर चाहेगी, तभी तो करेगी न...। अपने मथन में रहती है।‘
          कपिल चुपचाप सुनता रहा, फिर उठ कर कमरे में चला गया।
आज सलिल खीझता हुआ सबेरे माँ से बोला – ‘माँ तीन दिनों से लगातार भाभी से शर्ट के बटन लगाने को कह रहा हूँ, पर अभी तक बटन नहीं लगे। अब कौन सी शर्ट पहन कर कॉलिज जाऊँ? वही दो दिन की मैली शर्ट पहन कर जाऊँ क्या ?’
         दूसरे कमरे में जाते कपिल ने छोटे भाई की कला के ख़िलाफ़ शिकायत सुनी तो न जाने क्यों उसे अच्छा नहीं लगा।
         कल दोपहर शीला बरामदे में बाबू जी से कपिल की चुगली करती कहने लगी –‘ बाबू जी, मैंने पिछले महीने भय्या से भाई-दूज पे एक सलवार सूट बनवाने को कहा था लेकिन भय्या टाले जा रहे हैं। दुनिया भर के खर्चे करते हैं पर मेरे लिए सूट नहीं बनवा सकते ?’
         उधर से गुज़रती कला के कानों में जब ननद की यह उलाहना पड़ी तो वह एक पल को ठिठकी, फिर एक कटीले क्रोध से भरी तेज़ कदमों से रसोई घर में चली गई। उसका मन बड़बड़ाने लगा – ‘यहाँ सबको अपनी ज़रूरतों की पड़ी है। महीना मुश्किल से खिंच पाता है, ऊपर से सलिल, शीला और बबली की फीस, बेवक्त टपक पड़ने वाले मेहमानों के खर्चे....। कपिल रात-दिन ऑफिस में कमर तोड़ मेहनत और ओवर टाइम करता है, तब कहीं जा के इतने बड़े परिवार की ज़रूरते पूरी कर पाता है। उसकी मेहनत और सेहत की किसी को परवाह नहीं, बस किसी की ज़रूरत पूरी नहीं हुई कि लगे सब शिकायत करने।‘ फिर उसने तर्क किया कि वह क्यों कपिल के ख्याल में इस तरह घुल रही है ? उधर ऑफिस के काम में व्यस्त होने पर भी कपिल को बीच-बीच में अपने घर वालों के दोगले रूप और “बहू” नाम के प्राणी के प्रति अन्यायपूर्ण नीति का ख्याल विचलित कर जाता था। तड़के चार बजे से उठकर रात ग्यारह बजे तक कला मशीन की तरह सबकी सेवा में खपी रहती है, यहाँ तक कि इन सबको खुश रखने के चक्कर में मेरा और उसका रिश्ता भी बलि चढ़ गया, लेकिन ये हैं कि उसके प्रति सराहना और सहानुभूति का भाव रखने के बजाय निरन्तर कमियाँ बीनते हैं और कठोरता भरा अन्यायपूर्ण रवैया रखते हैं। हद है..!
          दो दिन बाद नागपुर वाली बुआ जी और फूफा जी आ गए। कला ही नहीं, सारा घर उनके नाज़-नखरे उठाने में लग गया। एक दिन बाद ही और सब तो वापिस अपनी-अपनी रूटीन में चले गए, लेकिन कला, बुआ जी और फूफा जी की सेवा की स्थायी ज़िम्मेदारी ओढ़े, बिना थके उनके सत्कार में जुटी रही। हर दिन उनकी ख़ातिर में कुछ खास पकाती। उनके नहाने के गरम पानी से लेकर कपड़े धोने, सुखाने और तह बनाकर रखने तक के सारे काम सचेत होकर करती। फिर भी छिद्रान्वेषी बुआ जी अक्सर खासतौर से कपिल के ऑफिस लौटने पर ही, अम्मा जी से कला के काम में मीन-मेख निकालती हुई, ज़ोर-ज़ोर से कपिल को सुनाती। कपिल को कला के प्रति सबका तानाशाही रूप इतना नागवार लग रहा था कि कई बार तो वह भड़कते-भड़कते रह गया। बड़ों के सामने ज़ुबान न खोलने और ग़म खाने के मध्यम वर्गीय सँस्कार उसके विद्रोह के आड़े आ जाते थे, वरना मन तो करता कि सबके अन्याय का करारा जवाब दे।
          रविवार का दिन था। सभी के घर में होने से घऱ में खूब चहलपहल थी। नाश्ते में कला ने सूजी का हलुवा और गरम-गरम पकौड़ियाँ बनाई थी। सब साथ बैठे खा रहे थे और बबली व शीला रसोई से गरमागरम चाय और पकौड़ियाँ लाकर सबको खिली रहीं थीं। तभी फूफा जी ने शोशा छोड़ा – ‘कला, पकौड़ियाँ कुछ ज़्यादा तेज़ जली-जली सी तल रही है। मिर्च भी कुछ चटक है।‘ इस पर अम्मा भला कैसे चुप रहती। उन्होंने भी तुर्रा छोड़ा –
‘हलुवा कुछ कच्चा सा लग रहा है। सूजी थोड़ी और भुननी चाहिए थी।‘
            जब कि कपिल को हलुवा गुलाबी भुना हुआ, सोंधी खुशबू से भरा बेहद स्वादिष्ट लगा। इलायची, बादाम और नारियल ने उसके स्वाद को और भी दुगुना कर दिया था। पकौड़ी भी खस्ता और करारी बनी थी। मिर्च तो ज़रा भी तेज़ नहीं थी कपिल पकौड़ी और हलुवे के साथ-साथ सबकी तीखी और जली भुनी बातों का स्वाद भी लेता जा रहा था। उसे लगा कला की कड़क ड्यूटी के आगे तो उसकी ऑफिस ड्यूटी कुछ भी नहीं। दूसरे उसे अच्छा काम करने पर बॉस से सराहना और प्रमोशन तो मिलता है, लेकिन कला को तो सिर्फ तानों और फटकार के कुछ भी नहीं मिलता। इससे तो उसके ऑफिस का चपरासी बेहतर स्थिति में है। पुराना होने के कारण कभी-कभी तो बॉस पर भी रौब जमा लेता है। कला घर में दस साल पुरानी होने पर भी डरी, मरी, खामोश रहती है।
           इस सबके बावजूद भी कपिल कला के प्रति अपने दिल में पहले जैसे प्यार और अपनेपन की कमी पाता था। परन्तु घर का कोई प्राणी कला की ग़लत आलोचना करता तो, कपिल को तनिक भी बर्दाश्त न होता। इसी तरह कपिल से उपेक्षित होकर भी कला को कपिल के ख़िलाफ़ दूसरों द्वारा कही गई बातें बड़ी चुभती। कला यह भी सोचती कि अब तो वह इस घर में कुछ ही दिनों मेहमान है। कपिल तो उससे रुष्ट रहता ही है, तो वह और सबसे उसकी बुराई सुनकर मन ही मन ख़ुश होता होगा।
            पिछले आठ दिनों से रात को अपने कमरे में, कला से दूर एक तरफ पड़े सोफे पे सोता, कपिल अक्सर सोने से पहले सोचता कि उसे ख़ुद को कला ख़ामियों का भंडार नज़र आती है तो घर के दूसरे लोगों से कला की बुराई क्यों नहीं सुन पाता....! उसे इतना बुरा क्यों लगता है ? इसी उधेड़ बुन में वह न जाने कब सो जाता।
           आज तलाक की अर्ज़ी देने उसे वकील के पास जाना था। हांलाकि उसने कला को अपना फैसला सुना दिया था। फिर भी अन्दर उसे कुछ कचोटता रहता था। कला निर्जीव हुई, ढेर ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबी, किसी तरह दिन काट रही थी। मन में एक धुंधली आशा कभी-कभी चटक हो उठती थी कि शायद कपिल उसे जाने से रोक ले, शायद कपिल का मन पिघल जाए। पर ऐसा न हुआ।
           एक दिन मौका देख कर कपिल ने घर में सबको बता दिया कि वह और कला अब साथ नहीं रह सकते और तलाक ले रहे हैं। कपिल के मुँह से ये अप्रत्याशित घोषणा सुनकर सब अवाक् उसका मुँह देखते रह गए। सास-ससुर को बेटे-बहू के अलगाव का दुख कम, घर के काम करती आज्ञाकारी नौकरानी के जाने की चिन्ता अधिक सताने लगी। सबके अपने-अपने स्वार्थ उन पे हावी थे। सबने उसे अपने-अपने ढंग से कारण पूछा, बेदिली से थोड़ा समझाने का भी प्रयास किया, लेकिन कपिल अपने निर्णय पे अटल रहा।
           वो दिन भी आ ही गया जब कला अपना सूटकेस लेकर मायके चली गई। कोर्ट ऑर्डर के अनुसार दोनों को तलाक से पूर्व छ: माह तक अलग रहना था।
          इधर कला के घर में भी सबका वही हाल था। सब जी भर कर कपिल की बुराई करते। जो अवगुण उसमें नहीं थे, वे भी कला के घर वाले कपिल पे थोपते। कला की माँ तो कपिल को बदचलन तक कहने से नहीं चूकती। भय्या उसे नकारा और दब्बू कहते। यह सुनकर कला दिल मसोस कर रह जाती। वह जानती थी कि कपिल ऐसा बिल्कुल नहीं है। ठीक है, वह उससे तलाक चाहता है पर वह उसके लिए उल्टे सीधे आरोप स्वीकार नहीं कर सकती थी। कपिल के घर में उसकी माँ, बहन, कला को फूहड़, औघड़, मूर्ख और न जाने क्या-क्या कहती न अघाती। शीला ने तो एक दिन यह भी कह दिया कि भाभी को तो भय्या से प्यार ही नहीं था। नाटक करती थी उनके ख्याल का। उन्हें शादी तोड़नी थी तो कैसी चुपचाप बिना विरोध के अलग होने को तैयार हो गई। यह बात कपिल के कानों में पड़ी तो वह आग बबूला हो उठा। उसने शीला को जमकर डाँटा। ये तक चेतावनी दी कि वह देखेगा कि अपनी ससुराल में जाकर शीला कैसे और कितने प्रेम से निबाह करती है। शीला अपने भाई का वह रौद्र रूप देखकर भौंचक रह गई। उसे लगा कि भाभी से अलग होने को तैयार भय्या, भाभी के ख़िलाफ़ उसकी बातें सुनकर खुश होंगे, पर वहाँ तो उल्टी गंगा बहने लगी.....!? उसकी तो समझ से परे था कपिल का यह रूप और प्रतिक्रिया...।
            कला को घर से गए हुए चार महीने बीत गए थे। उसकी अनुपस्थिति में सबको अपने-अपने काम करने पड़ रहे थे। सारा घर कला के बिना बिखरा सा हो गया था। अम्मा जी, बाबू जी, सलिल, शीला सबको कला याद आती थी, उससे किसी भावनात्मक संबंध के कारण नहीं अपितु अनगिनत कामों के कारण। अनगिनत काम और कला मानो एक दूसरे के पर्यायवाची थे। उन ढेर कामों को सहेजने वाली अब वहाँ नहीं थी। वे काम भी उसके बिना बेतरतीब मुँह बाए पड़े रहते थे और सबको तरह-तरह तंग करते व चिढ़ाते थे। घर के नियत ढर्रे के मुताबिक आजकल इन्दौर से कपिल के चाचा-चाची आए हुए थे। कल रात सोने से पहले उन्होंने कपिल को अपने कमरे में बुलाया। अम्मा-बाबूजी वहीं बैठे हुए थे। चाचा-चाची ने बिना सोचे समझे कपिल को बिन माँगी राय दी कि वह कला के वे जेवर रोक ले, जो शादी के समय उसे ससुराल से दिए गए थे। इतना ही नहीं, सबने मिलकर कला के घर वालों की कोर्ट से खर्चा-पानी लेने के बहाने चालाकी भरी लालची नीयत के ख़िलाफ़ भी कपिल को सावधान किया। अपने इस महाभारती व्याख्यान को विराम देने से पहले उन सबने कला को जाहिल, फूहड़ और न जाने क्या-क्या कह डाला। सँस्कारों का मारा कपिल सिर झुकाए क्रोध पीता ख़ामोशी से उन सब समझदार बुज़ुर्गों की दुनियावी बातें सुनता रहा। वे सब अपने विचारों, सोचों और ज़ुबान की कुरूपता से अन्जाने ही उसे कला से दूर नहीं वरन् कला के निकट ले जा रहे थे। जितनी वे कला की आलोचना करते उतना ही कपिल कला के प्रति अपनेपन से भरता जाता। ठीक यही कला के घर में उसके साथ घट रहा था। खैर, वह तो कपिल से अलग होना ही नहीं चाहती थी किन्तु कपिल के रूखे और अन्याय भरे रवैये से उसके प्रति भावना शून्य सी हो गई थी। लेकिन अपने घर वालों की कपिल के लिए जली कटी बातें सुन-सुनकर वह पुन: उसके प्रति सघन प्यार और ख्याल से भरने लगी थी।
           कला और कपिल एक दूसरे से दूर, अपने-अपने घरों में आत्मविश्लेषण करते हुए रह रहे थे। घर से लेकर बाहर तक का हर इंसान कला की बुराई कपिल से और कपिल की बुराई कला से करता नज़र आता था। दुनिया के इस तिक्त बर्ताव ने दोनों को अधिक परिपक्व, संवेदनशील और एक दूसरे के लिए भावुक बना दिया था। तलाक होने तक बबली कला के ही पास थी। कला और बच्ची की कमी कपिल को रह-रह के खलती थी।
          एक दिन जब कपिल से नहीं रहा गया तो उसने कला से मिलने की ठानी। उसने ऑफ़िस से कला के घर फोन किया और उसे इन्दिरा पार्क में शाम 5 बजे मिलने के लिए बुलाया। कला तो ख़ुद उससे मिलने को बेचैन थी। उस दिन कपिल को लगा कि समय बहुत धीरे-धीरे खिसक रहा है। जैसे ही शाम के चार बजे कपिल झटपट ऑफिस से 20 कि.मी. दूर पार्क की ओर रवाना हो गया जिससे ठीक पाँच बजे वह पार्क पहुँच सके। वह पाँच से पंद्रह मिनट पहले ही पार्क में पहुँच गया और यह देख कर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा कि कला भी समय से पहले वहाँ पहुँच चुकी थी। कपिल ने इतने समय बाद कला को देखा तो वह उसे बड़ी अपनी लगी। पहले से काफ़ी कमज़ोर भी दिख रही थी, पर एक कमनीयता उसे आवृत किए थी जो कपिल को मोहित कर गई। कला कपिल को देखकर न जाने क्यों लजा गयी और उसके स्वागत में बेंच से उठकर खड़ी हो गई। कपिल को उसका यह तकल्लुफ़ प्यारा लगा। बोला –
‘ अरे बैठो-बैठो ‘
          कला सकुचाई सी बेंच के कोने में सिमट कर बैठ गई। कपिल उसके पास ही बैठा, पर थोड़ी सी भद्र दूरी बनाकर। मन तो चाह रहा था कि उससे सट कर बैठे। कला को कपिल नया-नया प्यार भरा लगा। कहाँ तो ‘रूठी राधा’ यह सोचकर आई थी कि वह कपिल से एक भी बात नहीं करेगी, बस ख़ामोशी से उसकी ही सुनेगी, क्योंकि उसे कपिल से कुछ कहना ही नहीं है। उसे जो कहना था वह कपिल से रो-रोकर पहले ही कह चुकी थी, और कपिल ने उसकी प्रार्थना, अनुरोध सब बेदर्दी से ठुकरा दिया था। सो अब कहने को बचा ही क्या था उसके पास। आज तो वह कपिल की निकटता को साँसों में भर लेना चाहती थी जिससे आगे आने वाले दिनों में वह उस निकटता के एहसास के साथ जी सके। धीरे-धीरे वह अकेले जीने का भी साहस जुटा लेगी। ख़ामोश, विनम्र, सिर झुकाए बैठी कला पे कपिल को बड़ा प्यार आया। आज दोनों को लग रहा था कि वे एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। वे एक दूसरे के जितना करीब हैं उतना घर में किसी के भी नहीं। अपने-अपने घरवालों के रौद्र और तीखे हावभाव, बेग़ैरत रवैये से आहत वे दोनों एक दूसरे को इतने अपने लगे कि उन्होंने – ख़ासतौर से कपिल ने तलाक का इरादा बदल दिया। कपिल और कला एक जैसी भावनात्मक स्थिति में थे। दोनों की समरसता भरी कोमल तरंगे ख़ामोशी से एक दूसरे तक पहुँच रही थीं। दोनों की प्यार भरी नज़रे एक दूसरे से मिलती और मीठा-मीठा बहुत कुछ कह जाती। आँखों ने आँखों की भाषा पढ़ी और कपिल ने कला का हाथ अपने हाथ में थाम कर, निशब्द ही न जाने क्या-क्या कह डाला कि भावुक हो आई कला की आँखें झर-झर बरसने लगीं। उसकी सारी पीड़ा, वेदना, असुरक्षा मानो आँखों से बह चली थी। ये आँसू एक ओर दर्द और पीड़ा को मन से बाहर बहा रहे थे, तो दूसरी ओर पति के प्रति सघन प्रेम और आश्वासन को दिल की गहराईयों में समो रहे थे। उसने हौले से कपिल के कंधे पे अपना सिर टिका कर कपिल के साथ फिर से एक हो जाने की अपनी इच्छा की तीव्रता जताई। दोनों हाथ थामे पार्क से बाहर निकलकर घर की ओर चलते गए – पीछे छूटे वैवाहिक जीवन की बागडोर सम्हालने....। 

पता   
2/ ए, आकाशदूत, 12 -ए, नॉर्थ ऐवेन्यू, 
कल्याणी नगर , पुणे - 411006 ,

अनंत यात्रा


नरेन्‍द्र अनिकेत 
उस दिन शरद अचानक भड़क उठा. एकदम अचानक गालियाँ बकने लगा, ‘सारी व्यवस्था चोर है. सब साले कुत्ते हैं.’ इससे पहले सारी बहसों में वह नई व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक होता था. वह तर्क देता था- ‘एक मेघावी आदमी और अयोग्य के बीच फर्क तो रखना ही होगा. सरकार नहीं रख रही है इसी लिए तो रसातल को जा रही है. इससे बचने का नाम ही नई व्यवस्था है.’ हर तरह से पूंजी, भोग और शोषण को जायज ठहराने के लिए वह तर्क गढ़ देता था.

उस समय उस महाजोट में शामिल पत्रकार उदितनाथ ‘घायल’ बहुत घायल हो जाते थे. उन्हें लगता था कि यह लड़का दुनिया के बदलाव से नावाकिफ एक ऐसी दुनिया में जी रहा है जिसे सपनों और खालिस सपनों की दुनिया कहा जाए तो गैर मुनासिब नहीं होगा. बकौल घायल जी ऐसे लोग फूल्स पैराडाइज में जीने वाले लोग हैं और जब तक लात नहीं खाते इन्हें अक्ल नहीं आती.

तब की बात है जब उदितनाथ घायल बिहार के एक छोटे से कस्बे से दुनिया बदलने की हसरत और हौसले के साथ दिल्ली की भीड़ में अपनी पहचान खड़ी करने आए थे. घायल कवि थे और उनकी कविताएँ कुछेक जगहों पर छप चुकी थीं. हिन्दी साहित्य उन्होंने पढ़ा था और उन्हें विश्लेषण करना आता था. एक अख़बार में बतौर रिपोर्टर काम करने का भी अनुभव था और उस अख़बार में इज्जत के साथ छप चुके थे. उन्हें भरोसा था कि उनकी प्रतिभा के कायल लोग उन्हें ‘जगह’ दिला देंगे, लेकिन यहाँ आकर मालूम हुआ कि इस पेशे का बाजार क्या है और यहाँ किस प्रकार की प्रतिभाओं की दरकार है?

जीने के लिए उन्होंने एक बिल्डर के अख़बार की नौकरी कर ली और संघर्ष का मोर्चा खोल दिया. उस अख़बार में बस इतना ही मिल पाता था कि या तो कमरा ले सकते थे या फिर खाना खा सकते थे. दोनों सुविधाएँ एक साथ मिल पाना असम्भव था. इस अवस्था ने घायल जी जैसे अड़ियल आदमी में एक परिवर्तन ला दिया. उन्होंने सामंजस्य से काम लेने का फैसला लिया.

घायल जी ने कामरेड वीआई लेनिन को पढ़ा था. रूसी क्रान्ति के दस्तावेज़ से बावस्ता थे. ऐसे में कम्यूनिस्टों के सौ कदम पीछे, एक कदम आगे वाले फ़ॉर्मूले पर उन्होंने अमल किया और महाजोट में शामिल हो गए. रहने और खाने के लिए. वैसे उन्होंने कभी महाजोट को अपने काबिल नहीं माना. वे यह मानकर चलते थे कि यह टोली बुद्धिहीनों का जमावड़ा है. यही वजह थी कि वे मुद्दों पर बात करने से कतराते थे.

उस टोली में शरद ही एक ऐसा लड़का था जिसके पास कलेक्टर बनने का सपना था. वह पढ़ाकू था और खुद को महान मानता था. घायल जी से वही उलझता था और घायल तमाम उदाहरणों के जरिए उस पर हावी होने का प्रयत्न करते, लेकिन हर बार वह रूसी समाजवाद के बिखराव और रोमानियाँ के कम्यूनिस्ट शासक चाउसेस्कू जैसों को उनके सामने ला पटकता.

महाजोट के लड़के मजा लेने के लिए कभी-कभार बहस में शामिल होते थे. उनके पल्ले बहस नहीं पड़ती थी इसलिए इससे बाहर रहना उनकी मजबूरी थी. उनके लिए तो यह बहस एक फालतू और बिलावजह बकवास थी.

उन्हीं दिनों की बात है एक दिन घायल जी ने झल्लाकर शरद से कह दिया - ‘अभी सड़कें नहीं नापे हो बबुआ जब नापनी पड़ेगी और निजी क्षेत्र की कारगुजारियाँ झेलनी पड़ेंगी तब समझोगे कि निजीकरण और भूमंडलीकरण गरीब लोगों को छलने के शाब्दिक मायाजाल के सिवाय कुछ भी नहीं है. नयी व्यवस्था कुछ और नहीं है, बस यह चन्द लुटेरों की लूट को जायज बनाने की साजिश है. दुनिया बाजार हो रही है. लोग या तो खरीदार हो रहे हैं या फिर बिकाऊ. जो दोनों में से कुछ भी होने के काबिल नहीं हैं, बाजार उन्हें निकाल बाहर कर रहा है. वे कहीं के नहीं हैं.’

तब शरद ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा था ‘घायल जी अव्वल तो दुनिया में वही सरवाइव करते हैं जो दुनिया के हिसाब से फिट हैं, और फिर ऐसे लोगों की फिक्र करने के लिए आप जैसे घायल तो हैं ही. हम जैसे एडमिनिस्ट्रेटर माइंडेड यह सब नहीं सोचते. हमारा काम तो बस स्मूथली सिस्टम को चलाना होगा.’

उसने उनकी औकात बताते हुए कहा था ‘और घायल जी सच तो यह है कि आप जिस अख़बार में अपनी कलम घसीट रहे हैं वह भी किसी ‘मन्दिर के महन्त’ का या आपके किसी कामरेड का नहीं है. खालिस पूंजीवादी आदमी का अख़बार है. आपके आदि कामरेड मार्क्स को भी उनके पूंजीपति मित्र एंजेल्स का सहारा नहीं मिला होता तो आपका समाजवाद उन्हीं के साथ दफन हो गया होता.’

यह सुनकर घायल जी बहुत घायल हो गए थे. उन्हें लगा था ऐसे ही संवेदना से रहित लोग व्यवस्था चला रहे हैं और ऐसे ही लोगों के दम पर यह व्यवस्था टिकी है. मध्यम वर्ग का यही हिस्सा अपनी दोगली सोच और मक्कारी से किसी भी देश के वंचितों को और वंचित और शोषकों के हितों का पोषण करता है. तब घायल जैसे नास्तिक ने भी भगवान को याद किया था और यह प्रार्थना की थी कि यह सात जन्म में भी प्रशासनिक अधिकारी नहीं हो पाए.

उस समूह में घायल जी के अलावा तीन और लड़के थे. सभी का पेशा अलग-अलग था. एक देश के सबसे बड़े कम्प्यूटर संस्थान का छात्र था. उसका नाम प्रवीण था और वह बस अमेरिका की समृद्धि और वैभव का बखान करता था. भारत में रहते हुए भी वह अमेरिका में जी रहा था. वह कुछ इस अन्दाज में बातें करता मानों दर्जनों बार अमेरिका हो आया हो. उसके सपने में पैसा और लड़की के अलावा और कुछ था ही नहीं. उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि दुनिया कहाँ जा रही है.

तीसरे सज्जन चन्दन कुमार एक थ्री स्टार होटल में ट्रेनी मैनेजर थे. एक कपड़े की दुकान के मुंशी के बेटे चन्दन कुमार ने खातों की लीपापोती का पुश्तैनी ज्ञान हासिल कर लिया था और वाणिज्य की कामचलाऊ पढ़ाई ने उसके इस ज्ञान को और माँज दिया था. महाजोट में उसकी बड़ी चलती थी. उसके कई कारण थे. वह अकसर होटल से खाना और किसी विदेशी-देशी सम्पन्न ग्राहक से बख़्शीश में मिली शराब मुहैया करा देता था. घायल उसे बात करने के लायक नहीं समझते थे. हालांकि वह उनकी बड़ी इज्जत करता था.

महाजोट में रोजगार में आने वाला तीसरा सदस्य प्रवीण बना. देश की नामी बिल्डिंग कन्सट्रक्शन कम्पनी में कम्प्यूटर ऑपरेटर का ओहदा मिला था. प्रवीण ने इस नौकरी को टाइम पास कहा था. उसकी दृष्टि में भारत वह देश ही नहीं जहाँ आदमी काम कर सके. उसकी बातों से यही लगता था कि उसे इस देश में पैदा होने का दुःख है. प्रवीण को नौकरी लगे कुछ ही दिन हुए थे. सभी के किस्से पुराने थे. चन्दन के होटल में आने वाले यात्रियों और उनकी अय्याशी, यहाँ तक कि किस तरह की लड़कियाँ उन देशी-विदेशी कस्टमरों के लिए बिछती हैं, इसके सिवाय कुछ नहीं होता था.

प्रवीण के नौकरी में आने के बाद दफ़्तरी संस्मरणों में थोड़ा रस आ गया था. प्रवीण के एक साहब थे. उन साहब के भी साहब थे और इन सबकी बड़ी फौज थी. ढेर सारे कर्मचारी थे. एक बड़ी बिल्डिंग में पूरा दफ़्तर था. रोज कम्पनी की बस से आते-जाते थे. प्रवीण ने एक दिन खुलासा किया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर कैसे-कैसे काम होते हैं. उसने बताया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर उन फ़िल्मों को आसानी से देखा जाता था, जिसे देखना नैतिक और क़ानूनी तौर पर गलत माना जाता है. इस काम में उसके बॉस मेहरा साहब तो सबसे आगे रहते थे.

प्रवीण के साथ उस कम्पनी में एक लड़की को भी नौकरी मिली थी. यह संयोग था कि दोनों के सरनेम एक जैसे थे और एक दिन एक ही समय दोनों का साक्षात्कार हुआ था. दोनों को एक साथ नौकरी पर बहाल किया गया था और साथी कर्मचारी से लेकर उसके बॉस तक को यह लगता था कि दोनों पूर्व परिचित हैं और दोनों के बीच कुछ है. एक सप्ताह बाद ही दफ़्तर के एक बुजुर्ग साथी ने प्रवीण को टोक दिया था - ‘और भाई, कब तक शादी-वादी कर रहे हो. अभी रोमांस का ही इरादा है या फिर यूँ ही मजे ले रहे हो.’ इस सवाल ने प्रवीण जैसे मॉड दिमाग के लड़के को थोड़ी देर के लिए निरूत्तर कर दिया था. उसने बहुत कोशिश करके पूछा और तब उसे मालूम हुआ कि उसके बारे में कैसी कथा चल रही है.

सिर्फ प्रवीण को ही नहीं, उस लड़की को भी महिला साथियों ने पूछा था. एक दिन दोपहर को खाने की छुट्टी में दोनों कैंटीन में एक ही टेबल पर मिले. दोनों दफ़तर में चल रही चर्चाओं पर खूब हँसे. प्रवीण को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसके कम्प्यूटर पर जो कुछ होता है वही सब कुछ लड़की के कम्प्यूटर पर भी होता है.

महाजोट में यह विवरण काफी रोचक था. सिर्फ घायल जी को छोड़ सभी ने मजा लिया. घायल जी ने इसे तकनीक के अनैतिक उपभोग के तहत वर्गीकृत किया था. इसके अलावा घायल जी इस नतीजे पर भी पहुँचे कि बाजार आदमी को दिमागी रुप से पंगु बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल करता है. उनके अनुसार आदमी को सीयर रोमांटिसिज्म में डुबोना और फिर उसे किसी लायक नहीं छोड़ना व्यवस्था के कायम रहने की पहली और आखिरी शर्त होती है. उन्होंने यह भी माना कि असन्तोष और कुव्यवस्था के खिलाफ एकजुट और एकमुश्त आवाज नहीं उठने देने के लिए सिर्फ लोगों को खेमों में बांटना ही जरूरी नहीं है. बल्कि उनके बीज इतने सपने पलने चाहिए कि लोग उन्हें पूरी करने के जायज-नाजायज तरीके ही आजमाते रह जाएँ. व्यवस्था इस बात को अच्छी तरह जानती है और उसे बड़ी सावधानी से आजमाया जा रहा है, ताकि लोगों में विरोध की ताकत ही न रहे.

स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं. नई तकनीक के नाम पर नई तरकीब सामने आ रही थी. नौकरी से छंटनी के लिए वी.आर.एस की तरकीब से लोग निकाले जा रहे थे. बीमार बताकर उद्योगों में तालाबन्दी हो रही थी. बीमार बनाने के लिए तरकीब आजमाई जाती थी फिर विनिवेश के नाम पर उनका निजीकरण किया जा रहा था. छोटे-छोटे घपले बड़े घपलों की आंधी में छिपते जा रहे थे. इन सबके बीच ईमानदारी और कानून के शासन का ढोंग चल रहा था. उदारीकरण के विरोधी सत्ता में आते ही इसके प्रबल समर्थक बन गए थे और धीमी गति से चल रही पूंजीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई थी. निजी क्षेत्र में छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ निगल रही थीं. कमजोर अर्थव्यवस्था उदारीकृत होकर मजबूत अर्थव्यवस्था को और मजबूत बना रही थी और खुद का अस्तित्व मिटा रही थी.

इस बदलाव ने सबसे पहले घायल जी का रोजगार छीना. एक दिन उनके मालिक ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘घायल जी, आप तो योग्य आदमी हैं. आपके पास योग्यता है, कहीं भी नौकरी मिल जाएगी. मेरे यहाँ काम ही कितना है. सच पूछिए तो मेरे अख़बार की हैसियत ही क्या है. आप जैसे प्रतिभावान व्यक्तियों को सहारा मिल जाता है यही इस अख़बार का गौरव है.’ घायल जी जैसे सीधे-साधे आदमी को बात बहुत सम्मानजनक लगी थी. उन्हें लगा था कि यह आदमी उन्हें अपने से ज्यादा आंकता है. पर महाजोट में शामिल लड़कों ने उनकी सोच की धज्जियाँ उड़ा दी थीं.

शरद ने कहा था, ‘घायल जी दुनिया को अक्ल देने से पहले खुद अक्ल से काम लेना सीखिए.’ तब घायल जी भी बुद्धू बन गए थे. घायल जी का मालिक एक छोटा सा बिल्डर था, इसलिए सबसे पहले उनका मालिक ही धराशायी हुआ था. सरकारी जमीनों की हेराफेरी और फिर उस पर बड़े भवन बनाकर बेचने के धन्धे में बड़ी मन्दी छा गई और इस धन्धे में कुछ और बड़ी फर्में कूद गई थीं. जिन जमीनों की हेराफेरी वह निचले स्तर के नेता और अफसरों से सांठगांठ कर लेता था, उसमें ऊपर से ही डीलिंग शुरू हो गई थी. इसलिए आमदनी कम हो गई थी. मालिक की माली हालत खराब हो गई थी इसलिए वह अख़बार नहीं चला पा रहा था.

घायल जी बुद्धू बनकर उस अख़बार से बाहर हो गए थे. वैसे भी वह अख़बार घायल जी जैसे ‘मिशनरी’ आदमी के लिए था ही क्या? सिर्फ ठहराव का एक साधन. बेरोजगारी की दौड़ शुरू होते ही घायल जी ने देखा सबसे पहले उनके जिगरी अलग हो गए. उन्हें लगा कि लोग बस रस्मी तौर पर उनसे मिल रहे हैं. एक दिन घर के लोगों को मालूम पड़ा और सबसे खास पत्नी का जो पत्र मिला उससे घायल जी ‘रिश्तों का अर्थशास्त्र’ जैसे गम्भीर विषय पर सोचने के लिए मजबूर हुए और अन्ततः उन्होंने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया - ‘संवेदनशील रिश्तों तक बाजार की दखल.’

काफ़ी दिनों तक घायल जी बाजार की मारामारी में शामिल रहे. जीने के लिए इस बीच फुटकर काम से काम चलाते रहे. कुछ समय बाद एक अख़बार में नौकरी मिल गई. इस अख़बार की खूबी अपनी थी. जिस अख़बार में घायल जी काम कर रहे थे उसका मालिक 32 अख़बार निकाला करता था. विज्ञापन के दम पर वह अख़बार निकालता था. उस अख़बार ने यह ज्ञान दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पैसे कमाने की स्वतन्त्रता के सिवाय कुछ नहीं है.

यह संयोग ही था कि घायल जी के फिर से रोजगार में आने के चन्द रोज पहले जिस शख्स की नौकरी गई वह प्रवीण था. नौकरी जाने के दिन तो प्रवीण बिल्कुल निस्पृह दिखा था, पर एक सप्ताह बाद ही उसमें अजीबो-गरीब परिवर्तन दिखने लगे थे. भारत को नौकरी के लायक नहीं समझने वाले लड़के में एक समझदार परिवर्तन था. वह घायल जी के जैसा शब्दों का जाल बुनने में उस्ताद नहीं था और नहीं शरद के जैसा वाक चातुर्य सम्पन्न व्यक्ति कि वह कुछ ज्यादा कह पाता. वह सपाट भाषा में सब कुछ बयान करने वाला आदमी था अतः उसकी व्यथा सपाट थी.

उसके एक साथ कई दुःख थे. नौकरी जाने का दुःख. बैठे रहने का दुःख. और सबसे ज्यादा उसकी प्रेम कहानी अधूरी रहने का दुःख. शुरू में उसने यही जाहिर किया था कि उसे कोई गम नहीं है, पर धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आते गए. उसे यह मालूम नहीं हो सका था कि कब और कैसे वह उस लड़की से प्यार कर बैठा था. दोनों अकसर दोपहर की छुट्टी में मिलते थे और दफ़्तरी प्रेम कथा के नए संस्करणों का मजा लेते थे. यह क्रम नौकरी जाने से पहले तक जारी रहा. नौकरी जाते ही यह घनिष्ठता सिर्फ परिचय तक सिमटकर रह गई. यही प्रवीण के दुःख का कारण था.

प्रवीण की कम्पनी एक बड़ी निर्माण कम्पनी थी. बड़े ठेके और गगन चुम्बी भवनों का निर्माण करने में उसका बड़ा नाम था. उदारीकरण की इस व्यवस्था में उसके डूबने का कोई खतरा नहीं था, लेकिन उसकी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों ने पूर्व के एक ठेके में हुई गड़बड़ी के आधार पर उसकी जमीन खिसकानी शुरू कर दी. इस खेल में राजनीति से लेकर सबसे तेज बढ़ते अख़बार और सबसे पहले सूचना देने का दावा करते हुए टीवी चैनल भी शामिल हुए. मीडिया वार के इस कुचक्र को प्रवीण की कम्पनी भेद नहीं पाई. नई कम्पनियों ने ठेके हथियाने के लिए और भी कई हथकंडे आजमाए थे. कई नेताओं को भागीदारी दी थी या उन्हें दूसरी तरह का लाभ पहुँचाया था. नए काम के नहीं मिलने और पुराने के विवाद ने कम्पनी की हालत पतली कर दी.

इन सारी सूचनाओं को पाकर घायल जी ने एक निष्कर्ष निकाला कि पूँजीवाद अन्ततः अपने ही अन्तर्विरोधों का शिकार होगा. उनके हिसाब से अंश, हिस्सेदारी और वर्चस्व की लड़ाई इस व्यवस्था के लिए वाटलरू साबित होगी. यह व्यवस्था भी अपने प्रतिद्वन्द्वियों से भिड़ने में उसी तरह तबाह होगी जिस तरह उपनिवेशवाद का खात्मा हुआ.

यह न्यायिक सक्रियता का दौर था. भ्रष्ट व्यवस्था में अदालती फैसलों की गूंज सुनाई दे रही थी. देश की राजनीति में मंडल-कमंडल के अलावा और कोई मुद्दा नहीं था. घायल जी को लगता था कि उनके सारगर्भित लेखों का जमाना अभी है ही नहीं, इसलिए उन्हें उन अखबारों में काम मिलता है जिनकी पहुँच नदी-नाले से लेकर भाजी बेचने वाले की दुकान या फिर कूड़ेदान तक है. इसके विपरीत सर्वाधिक प्रसार वाले अखबारों में या तो अमेरिका या फिर पश्चिमि दुनिया की नकल छपती है या फिर मुद्दाहीन राजनीति की बकवास. इन सबके अलाबा जनता के वाजिब सवालों को बड़ी बेदर्दी से दबाया जा रहा था. आंकड़े छप रहे थे. अमुक राज्य ने नई आर्थिक नीतियाँ अपनाकर अमुक क्षेत्र में इतना प्रतिशत तरक्की की है. अमुक राज्य ने सूचना-तकनीक से अपने शासन में इतना सुधार किया है. तब यह समाचार कहीं बिसूर रहा होता था कि उन्हीं अगुआ राज्यों में कितने किसान घाटे नहीं सह पाने के कारण आत्महत्या कर बैठे. तब यह खबर सिर्फ चौंकाऊ अन्दाज में आती और गुम हो जाती कि उड़ीसा के अमुक जिले में आदिवासी जहरीले पौधे का व्यंजन खाकर मर गए. जैसे ही इन खबरों की विक्रय क्षमता खत्म हो जाती थी वैसे ही खबर भी लापता हो जाती थी. अलबत्ता हालीवुड और बालीवुड की खबरों से लेकर दिल्ली के पंचसितारा संस्कृति की खबरें प्रमुखता पाती जा रही थीं. घायल जी को लगा कि समाचारों का भी उदारीकरण हो चुका है और पत्रकारिता अपना वैश्विक रूप ले चुकी है.

उसी दौरान घायल जी के जीवन में एक और युगान्तरकारी घटना घटी. उन्हें पता चला कि उनका मालिक जिन लड़कियों को नौकरी पर रखता है, उन्हीं की बदौलत विज्ञापन पाता है. इतना ही नहीं मालिक की बीवी और साली भी विज्ञापन हासिल करने की इस नायाब विद्या में साझीदार थीं. इस स्थिति में खुद को नैतिक रूप से छल पाने में असमर्थ घायल जी ने एक दिन नौकरी छोड़ दी.

महाजोट अब भी कायम था. नौकरशाह बनने का सपना लिए शरद जी घूमते-घामते जमीन पर आ गए थे. उनके पास प्रबन्धन की डिग्री थी और इन्जीनियर थे ही. तैयारी करने के दौरान इतिहास और सामान्य ज्ञान भी हासिल कर लिया था. इतनी योग्यता उन्हें जीने-खाने लायक तो दिला ही देती, पर उन्हें इतने से सन्तोष नहीं था. फिर नौकरशाही की एक मानसिकता होती है. सब मिलाकर शरद जी नई व्यवस्था में मिसफिट महसूस कर रहे थे और सरकारी नौकरियों के भाव के हिसाब से दाम न दे पाने की मजबूरी ने उन्हें हिलाकर रख दिया था. इसके अलावा निजी क्षेत्र की नौकरी के पचड़े अब दिख रहे थे. इसीलिए अब वे मुद्दों पर चुप हो गए थे. उनकी चुप्पी शराब के प्याले से टूटती थी और फिर उसमें डूब जाती थी.

महानगरीय जीवन में प्रेम का दर्शन पढ़कर प्रवीण जी सूफ़ियाना अन्दाज में बातें करने लगे थे. महाजोट में एक ही आदमी नहीं बदला था वह था चन्दन. उसके होटल व्यवसाय में कोई मन्दी नहीं थी. भला हो सरकार की विनिवेश नीति का कि कई सरकारी होटल भी उसके मालिक के कब्जे में आ गए थे. चन्दन की कमाई बढ़ गई थी और फिर भी वह महाजोट में ही था.

सड़क पर आने के बाद घायल जी ने एक बार फिर अपने मन के लायक अख़बार की तलाश शुरू कर दी थी. जिन्दगी में रास्तों की तलाश में घायल जी एक शाम को दिल्ली के कनाट प्लेस में थे. हर रोज की तरह आज भी फुटपाथ से सड़क पर भागती हुई जिन्दगी थी. सड़क के किनारे अपनी दुनिया की तलाश कर ठिकाने की ओर भागते लोगों की भीड़ का हिस्सा वह भी थे. नौकरी में रहते हुए घायल जी को दिल्ली की शाम कभी ऐसी नहीं लगी थी. पटरी की दूसरी ओर एक लड़का एक लड़की से चिपटा चला जा रहा था. एक जोड़ा जोरदार चुम्बन लेते हुए दिखा, पर इससे बेखबर एक भीड़ सबको रौंदते हुए आगे बढ़ने को उतावली दिख रही थी. घायल जी इसी भीड़ का हिस्सा थे. उन्हें लगा इस भीड़ में वे लोग शामिल हैं जो सपने की तलाश में हैं. मगर वह सपना क्या है? वे लोग जो दूसरी और किनारे पर दिख रहे हैं क्या वही सपना है? क्या वही मंजिल है? या फिर पंचसितारा होटलों के कमरे या पॉश कॉलोनियों की कोठियाँ? मंजिल क्या है, सपना क्या है? ये लोग क्या पाना चाहते हैं? यह पहला मौका था जब घायल जी को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में कठिनाई हुई. उन्हें लगा कि सभी एक अन्तहीन यात्रा में शामिल हैं. वह, प्रवीण, शरद और चन्दन सभी इसी भागती हुई भीड़ का हिस्ता हो गए हैं.

वे तेज कदमों से बस स्टैंड की तरफ बढ़ने लगे जहाँ से उन्हें हौजख़ास के लिए बस पकड़नी थी.

रिसते घाव

बूटा सिंह
         और सलमा छोटी और क्वाँरी। वह मेरे साल.सवा साल के बच्चों को उठाए रहती और मुझसे कुछ बड़ी लगती। साथ ही मेरी शक्ल.सूरत और कद बिल्कुल अम्मी.जान की तरह था। हाय! अम्मी को तो नजर लग गयी, नहीं तो वह अभी कहाँ मरने वाली थी।
       सलमा ने मेरा लड़का उठाया हुआ था। यही उसका आसरा था और इसी में वह व्यस्त रहती थी। अकेली औरत को लोग लावारिस माल समझते हैं। बच्चा कुछ भी न कर सकता हो पर माँ उसे आदमी से कम नहीं समझती। सलमा बिल्कुल हिन्दू औरत लगती। उसने बुरका नहीं पहना हुआ था और मैंने काले बुरके के पल्ले को सिर पर फेंका हुआ था। इससे मेरा मुँह और नक्श और भी सुन्दर लग रहे थे। सलमा की ओर कोई नहीं देखता था, पर जो भी मेरे पास से गुजर जाता वह एक बार फिर मुड़ कर मेरी तरफ देखता।
        मैं दुआएँ माँगती-' रब के आगे प्रार्थना करती कि हम दोनों सही.सलामत अब्बा जान के पास पहुँच जाएँ। मुद्दत बीत गयी थी अब्बा जान को देखे। वे कैसे होंगे। उनकी शक्ल बदल गयी होगी। वे अपनी साहिबंजादियों को पहचानेंगे भी या नहीं। हाय मेरा अल्लाह।
      हमारे दिल डर से भरे हुए थे, पता नहीं किस समय क्या हो जाये जबकि अलीगढ़, दिल्ली, लखनऊ और हैदराबाद में हमारे घर थे। चाँदनी चौक में चाचा अब्बा की दुकान थी। जब भी कोई छोटी.मोटी छुट्टी होती, हम सब दिल्ली चले आते थे और चाचा अब्बा अपनी पर्दों वाली बग्घी भेज देते थे। वे पुराने ख्‍यालों के जो थे।
       मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं घर से चाचा अब्बा की दुकान पर आती तो सबसे पहले बाहर टँगा बड़ा.सा बोर्ड पढ़ती अनायत उल्लाह एंड सन्स। चाचा अब्बा मुझे देखते ही कुर्सी से हिल जाते। उन्हें ग्राहकों का खयाल नहीं रहता और कहते - मेरी बेटी नईम आ गयी हैं, वे मुझे अपने पास बैठाते। प्यार करते और रुपया निकाल कर कहते - मेरी बेटी नईमी क्या खाएगी, कुल्फी या फलूदा। यह देख मेरे साथ आया उनका बेटा अकरम नारांज हो जाता। पता नहीं क्यों। क्या पता था कि मैंने अकरम की ही बीवी बनना है। मैं सुन्दर थी। चाँदनी रात की तरह और उसके मुँह पर चेचक के दाग थे। हाय अल्ला.तेरी रंजा ----।
       दिल्ली, लखनऊ, अलीगढ़ हमारे घर थे। अब सब पराये हो गये हैं। मुझे कोई ऑंखें बाँध कर भी छोड़ देता तो भी अब्बा की दुकान ढूँढ़ लेती। सुना है अब उस दुकान पर ओम बूट हाउस का बोर्ड लगा है। अब सारी दुनिया पराई लगती है। विलाप करने के सिवा और कोई कर भी क्या सकता है। छोड़ी हुई जगह भुलती भी तो नहीं। जब स्वप्न में वे स्थान आते हैं तो डर से रूह भी काँप जाती है। जैसे किसी अजींज की रूह मिल गयी हो।
         मेरे अब्बा जान डॉक्टर असलम अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रोंफेसर थे। पता नहीं हम पाँच भाई.बहन कैसे पैदा हो गये। हमने कभी अब्बा जान को अम्मी जान के साथ हँसते हुए नहीं देखा था। हर समय पढ़ाई, हर समय लिखाई। यदि कभी अम्मी जान कहती - खान साहिब चाय तैयार है, तब वे अम्मी जान की तरफ देख ऐसे '' हाँ '' कहते जैसे ऊँघ रहे हों।
       कई बार हमारी अम्मी जान को हँसी आ जाती और अधिकतर गुस्सा और वह तमक कर कहती - '' खान साहिब, नवाबजादी ने कुछ कहा है।''
- हाँ ... हाँ ....। 
- '' क्या ''
- '' बेगम, आओ बैठो। मैं आपको कब से याद कर रहा हँ।'' 
- '' छोड़ो भी, मैं हुई आपके घर की खरीदी हुई बाँदी। आंखिर मौत के दिन तो पूरे करने हुए।'' 
- '' बेंगम क्यों नारांज होती हो आंखिर। 
- '' आंखिरकार क्या मेरी जिन्दगी का भी कोई मकसद है। मैं जानवर तो नहीं हँ। नवाब साहब ने मुझे कहाँ बाँध दिया। फरमाया करते थे - महिरो तेरा शौहर आलम आदमी है। बाप दादा से अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और प्रिंसिपल रहे हैं। बड़ा खानदानी घर है। पर नवाबजादी को उन्होंने कसाई घर में भेज दिया। नवाबों की शहंजादी मदरसों के घर आ गयी।'' 
         मेरी अम्मी अब्बाजान के पास खड़ी बातें करती ओर रोती जाती। वे उसकी सौ - सौ खुशामदें करते तो नवाबंजादी मुस्करा कर लाड से कहती - '' हुजूर को इस तरह तो नहीं करना चाहिए।'' 
- हाँ ... हाँ तुम ठीक कहती हो।
        जिस दिन अब्बा जान को फुरसत नहीं मिलती और वे अम्मी जान के साथ ठीक से बात नहीं करते उस दिन नवाब जादी का पारा चढ़ जाता। कौन था फिर उनके सामने खड़ा होने वाला।
        नवाब जादी साहिबा तिल्ले वाला हैदराबादी कुर्ता पहना होता और गरारा पहन हुआ होता। कसे हुए कुर्ते से उसका शरीर फूट - फूट पड़ता, ऑंखों में खून उतर आता। मुँह एकदम लाल हो जाता और वह पुकारते हुए कहती - ओ शिब्बो, अरी शिबन, कहाँ मर गयी। अल्लाह रख्खा, ओ अल्लाह रख्खा, हरामंजादे, पता नहीं किधर चले जाते हैं। सूअरों को मार - मारकर अधमरा कर दूँगी।'' वह हाथों में चाबुक उठा लेती ओर हवेली के लॉन में नवाब जादी ऐसे घूमती, जैसे पिंजरे में बन्द भूखा शेर घूमता है। डरता हुआ कोई सामने न आता। आखिर वह भी नवाबजादी थी, नवाब बदरो दीन खान की इकलौती बेटी। हंटर मार कर नौकरों की चमड़ी उधेड़ देती। हुक्म अदूली की सजा इतनी ही नहीं, मौत भी हो सकती है।
       सभी नौकर एक कोने में लग जाते। कोई भी सामने आने की हिम्मत न करता। सभी अल्ला रख्खा ;हिजड़े की खुशामद करते जो खुद को अल्लाह.रख्खा कहलवा कर खुश होता था। नवाब साहिब,नाना अब्बा ने साहिबजादी के साथ अल्लाह रख्खा को दहेज में दिया था।
- ओ अल्लाह रख्खे के बच्चे कहाँ मर गया है, सूअर के बच्चे:...।''
- '' हाय अल्लाह!'' नवाब जादी साहिबा इस तरह से क्यों कहती हो,मैं सदके जाऊँ। मैं मर जाऊँ। खुदा कसम सारा बाजार रंडा हो जाएगा। सभी कहते हैं अल्लाह रख्खी मेरे साथ निकाह कर ले। कसम अपनी जान की। '' वह अपने सिर पर हाथ रख कर कहता - मुझे अलीगढ़ का एक आदमी भी पसन्द नहीं। कहाँ लखनऊ के नवाब और कहाँ यह घसियारे ...खुदा कसम, नवाबंजादी साहिबा हजूर की खैर हो। मुझे अल्लाह रख्खा मत कहा करो। मैं तो अल्लाह रख्खी हूं, हजूर की बाँदी। उठाओ अपना चाबुक और उधेड़ दो चमड़ी... । मुझे लखनऊ छोड़ आओ ... नवाब साहिब खुद किसी अच्छे साहिब जादे के साथ मेरा निकाह कर देंगे ... ।हाय अल्लाह, मरूँ तो नवाबों के शहर, जहाँ मेरी कबर पर कोई आशिक आकर फूल चढ़ाये।''
        अल्लाह रख्खी अम्मी जान की बलाएँ लेती। ऑंखों से ऑंसू बहते तो नवाब जादी का हाथ ढ़ीला पड़ जाता।
यह देखकर फिर अल्लाह रख्खी कहती '' हाय अल्लाह, दो मिनट नईम बेटी के साथ क्या खेलने लगी कि मेरी आंफत आ गयी। हजूर बताओ, क्या हुक्म है ... । नवाब जादी साहिबा आपके बिना यहाँ मेरा कौन है''
- ''नवाबंजादी की बच्ची .... हरामजादी ....।''
- हाँ .... हाँ नवाब जादी की बच्ची!'' अल्लाह रख्खी सिर हिला, ऑंखों में ऑंसू लाकर कहती और अम्मी जान के पैर पकड़ लेती। उन पर अपना सिर रख देती। अपनी चुनरी से अम्मी जान के पैर झाड़ती।
       नवाब जादी को चुप खड़ा देख डरते.- डरते शिब्बो और बाकी के नौकर भी आ जाते और हाथ जोड़ कर माफी माँगते। अल्लाह रख्खी का ड्रामा घर में फिर चहल - पहल ले आता।
       मैं बता रही थी कि मेरी अम्मी पाँच बच्चों की माँ होते हुए भी बहुत सुन्दर थी। अब्बा हजूर की ंजरा.सी नारांजगी घर में कयामत ले आती थी।
अम्मीजान को याद कोई बेगम साहिबा कह देता तो वह गले पड़ जाती थी। अम्मीजान को अपने मायके पर अभिमान था। वह नवाब बदरो दीन खान की साहिबंजादी और नवाबंजादी थी।
नवाब बदरो दीन खान की क्या बातें थीं। उन्हें दोनों बेटों से बेटी ज्यादा प्यारी थी। जब हमने लखनऊ जाना होता तो अम्मीजान तीन.तीन हफ्ते पहले से तैयार करतीए उधर नवाब साहिब नौकरों को आदेश देतेश्श्याद रखोए नवाबंजादी तशरींफ ला रही है। उसकी खातिर में कमी नहीं आनी चाहिए।श्श्
श्श्कल्लनण्ण्ण्घ्श्श्
श्श्जी हजूर।श्श्
श्श्काले साँसी को मेरी तरफ से हुक्म देनाए नवाब हजूर ने याद ंफरमाया है। जंगली तीतरों का इन्तंजाम कर ले। नवाबंजादी तशरींफ ला रही है।श्श्
श्श्कल्लू को हुक्म दो कि हर दूसरे दिन दो दर्जन बटेर लाये।श्श्
श्श्हाँण्ण्ण्हाँ एक और बात सुनोए सारे काम भूल मत जाना। सरदार जाफर को कहना नवाबंजादी आ रही है। मुर्गाबिए जरूर भिजवा देए एक.आध हिरनए जंगली मुर्गे मिल जाएँ तो बहुत अच्छा है।श्श्
नवाब साहिब को पचास रुपये वजीफा मिलताए पर उनके शुगल बहुत थे। लाखों की जमीन इन शुगलों में ही जा रही थी।
दीवानखाने के बाहर लॉन में लम्बे बेंच पर हर समय दो.चार आदमी बैठे ही रहते।
श्श्कल्लन खानए नवाब हजूर को हमारा सलाम देना। कहना फज्जू पहलवान खिदमत में हाजिर हुआ है।श्श्
श्श्काम।श्श्
श्श्काम बहुत जरूरी है। मेरा पट्ठा तैयार है। वह हसनखान के बटेर के साथ लड़ेगा। खुदा कसम कल्लनए बटेर क्या हैए शहजादा है। उसका एक पंजा भी कोई नहीं सहार सकता। बहुत खूँख्वार है। दाने की जगह किशमिश और सोने के वर्क खिलाये हैं उसेए बादाम और ऑंवले का मुरब्बा।। दिल देख जवान काण्ण्ण्।श्श्
श्श्पहलवानए आजकल नवाब हजूर को फुर्सत नहीं। नवाबंजादी साहिबा तशरींफ लाने वाली हैं।श्श्
श्श्दोस्तए हमारा सलाम तो दो नवाब साहिब कोए इन रुस्तमों की लड़ाई देखने के लिए अब लखनऊ में रह भी कितने आदमी गये हैंण्ण्ण्।श्श्
मुझे अब भी याद है लखनऊ पहुँचने से एक हंफ्ता बाद फज्जू पहलवान के बटेर की लड़ाई हुई। मैं उस समय बहुत छोटी थीए पर अब तक मुझे सारी बातें याद हैं।
दीवान.ए.आम के बाहर लॉन में इसी काम के लिए एक तख्तपोश पड़ा हुआ था। उसके साथ उतने ही ऊँचे दीवान पर काली पड़ा था। मसनद लगाकर नाना अब्बा आकर बैठ गये थे। हुक्के की गोल नली उनके हाथ में थी और हुक्का दीवान से कुछ हटकर एक तिपाई पर सजाकर रखा गया था। मैं नाना अब्बा हजूर के कालीन पर बैठी थी। एक.दो और नाना अब्बा की उम्र के नवाब बैठे पुरानी बातें कर रहेथे।
सामने मेज पर सफेद चादर बिछी थीए जिस पर लड़ाई होनी थी और उसके चारों तरफ दोनों पार्टियों के लोग बैठे हुक्म की प्रतीक्षा कर रहे थे।
श्श्हजूरए हुक्म हो तो दंगल शुरू हो!श्श् फज्जू पहलवान ने उठकर फर्शी सलाम करते हुए कहा।
श्श्हुक्म हैए कोई आदमी शोर.शराबा मत करे।श्श् नाना अब्बा ने हुक्के की नली उँगलियों में थामते हुए कहा।
बिछी हुई चादर पर थोड़े से दाने बिखेरे गयेए और दोनों धड़ों के बीच एक और चादर तान दी गयी।
श्श्कोई आदमी हल्ला.गुल्ला नहीं करेए नहीं तो दंगल बन्द कर दिया जाएगा ओर लोगों को बाहर निकाल दिया जाएगा। कल्लनण्ण्ण्
श्श्बीच की चादर ध्यान से खींचना कोई पट्ठा डर नहीं जाये। हमसे बेइन्साफी नहीं हो सकती।श्श्
श्श्जी सरकार।श्श्
चादर खींचने से पहले बटेरों को छोड़ा गया। उन्होंने एक.आध दाना.चुगने के बाद पंख फड़फड़ाये और चादर खींच ली गयी।
मैं क्या बताऊँ नाना अब्बा के शुगलघ् वे मुनसफ आदमी थेए भेड़ों की लड़ाई केए मुर्गों की लड़ाई केए बारहसिंगे भी लड़ाए जाते थे। बटेरबाज से लेकर कबूतर.बाज तक सभी नवाब अब्बा के हजूर में सलाम करने आते। चाय.शर्बत चलते रहतेए पर क्या मजाल कोई नाना अब्बा के हुक्के को हाथ भी लगा जाये।
इन कामों में नाना अब्बा ने लाखों की जायदाद गँवा दी थीए पर दरवांजे से मेहमान भूखा नहीं जाने देते थे।
मेरे अब्बाजान डॉक्टर असलम साहिब को नाना अब्बा के साथ बहुत चिढ़ थी। पर मेरी माँ अपने अब्बाजान पर फख्र करती थी। वह नवाबंजादी जो थी। पर अभी नवाबंजादी को दुरूख के दिन देखने बाकी थे।
अलीगढ़ वाली हवेली भी एक केन्द्र ;मरकजद्ध बन गयी। जो भी आता यही पूछताश्श्डॉक्टर साहिब कहाँ हैंण्ण्ण्।श्श्
श्श्काम।श्श्
श्श्काम उन्हीं के साथ है।श्श्
नवाबंजादी इतने ंफजूल आदमियों की आवभगत से खीझ जाती और पूछतीश्श्खान साहिब ये कौन लोग हैंण्ण्ण्घ्श्श्
श्श्बेंगमए हर बात औरतों को बताने वाली नहीं होतीए तुम अपना काम कियाकरो।श्श्
हमारी अम्मी को बहुत गुस्सा आताए पर उसकी पेश नहीं चलती थी।
हमारे घर में मीटिंगें होतींए खुंफिया आदमी आतेए पर पता कुछ नहीं लगता।
रावलपिंडी जल रहा हैए लाहौर आग लगी हुई है। हिन्दू.सिख घर छोड़.छोड़कर भाग रहे हैं। मुसलमानों के दुश्मन बस सिख हैं सिख। इन पर काबू पा लिया तो सारा पंजाब हाथ में आ जाएगा। जैसे.जैसे ये खबरें आतींए अब्बाजान के मुँह पर निखार आ जाता। उन्होंने अपनी हवेली के आसपास ही नहींए मुहल्ले के आसपास भी किला.बन्दी करवा दी।
जालन्धरए लुधियानाए अमृतसर सभी सिखों ने उजाड़ दियेए बुर्के फाड़ दिये गये। स्त्रियों का स्त्रीत्व नष्ट कर दिया गयाण्ण्ण्हायण्ण्ण्हायण्ण्ण् छातियाँ काट दी गयींण्ण्ण्नंगे जुलूसण्ण्ण्तौबा तौबा।
मेरे अब्बा के माथे पर पसीना आ गया और उन्होंने हवेली की खिड़की में खड़े होकर विश्वविद्यालय की बड़ी.बड़ी मीनारों को देखकर एक लम्बा साँस लिया।
एक खबर आयी दिल्ली में गड़बड़ हो गयी है। पहाड़गंजए चाँदनी चौक सभी को साफ कर दिया गया है। यह सुन अब्बाजान को महसूस हुआ कि उनकी सारी स्कीमें फेल हो गयी हैं। उन्होंने अपनी ंकब्र को अपने हाथों खोदा है।
अम्मीजान को अपना शृंगार भूल गया और वह भागकर अब्बाजान के गले लगकर रोने लगी।
श्श्हजूर को यह क्या होता जा रहा है। आप बोलते क्यों नहीं। लड़कियाँ जवान हैंए लड़के जवान हैं। सुना हैए लाहौर की तरफ से आये सिख मुसलमानों की लड़कियों को नहीं छोड़तेए लड़कों को झटका देते हैं। किसी की कोई पेश नहीं जा रही। यह वहशी कौम कहाँ से आ गयी।श्श्
अब्बाजान चुप थेए बिल्कुल चुप। उनके माथे पर पसीना आ रहा था। सभी बच्चे उनके आसपास बैठे थे। अल्लाह रख्खी एक कोने में बैठी रो रही थी। शिबन पता नहीं कहाँ चली गयी थी। घर ंकब्रिस्तान बन गया था।
नौकर ने चाय तैयार की। वह पड़ी.पड़ी ठंडी हो गयी। सुबह का खाना भी पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि जैसे रात होते ही घर में डाका पड़ गया हो। इतने में अल्लाह रख्खी दौड़ी.दौड़ी अन्दर आयीश्श्हजूर की ंखैर होए दिल्ली से एक आदमी आया है। वह जनाब को मिलना चाहता है। कहता हैए काम हजूर को ही बताएगा।श्श्
श्श्उसे अन्दर जे आओ।श्श्
जो आदमी अन्दर आयाए उसे हम सभी जानते थे। आदमी चाचा अब्बा का विश्वासपात्र नौकर था। ऐसा लग रहा था कि वह जान पर खेलकर हम तक पहुँचा था। उसने अब्बा हजूर को सलाम करते हुए कहाश्श्खान साहिब ने यह चिट्ठी दी है। मुझे जल्दी वापस जाना है। दिल्ली वाले अपनी जान बचाकर कसमपुरसी की हालत में हुमायूँ के मकबरे में पनाह ले रहे हैं।श्श्
चिट्ठी में लिखा था नवाबंजादी साहिबा और बच्चों को लेकर जल्दी पहुँच जाओ। हमारा कांफिला कराची जाने वाला है। बच्चे हवाई जहाज में पहुँच चुके हैं। दिल्ली बरबाद हो गयी है।
सिख क्याए मुसलमान मुसलमान को खा रहा है। रिश्वत बहुत चल रही है। कराची पहुँचने के लिए हवाई जहाज का इन्तंजाम कर लिया गया है। आदमी चला गया तो हमारे घर मातम छा गया।
अब्बाजान का दिमाग अनेक प्रकार के विचारों से भर गया था। वे चुप थेए जैसे सकता मार गया हो। हम बेघर हो चले थेए जलावतन किये जा रहे थे। सिख मुसलमानों के मुकाबले परण्ण्ण्छातियाँ काट दी गयींए बुकर्ें फाड़ दिये गये। कतारों में नंगी खड़ी की गयी मेरी साहिबंजादियाँए मेरी बेंगमए यह सब मेरे अमालनामे हैंए अब्बाजान हवेली की खिड़की में खड़े बाहर की ओर देख रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यूनिवर्सिटी की एक मीनार अपने आप गिर गयी हो। फिर उनकी निगाह यूनिवर्सिटी के प्रांगण में गयी! जहाँ सर सैयद अहमद खान के मंजार से कुछ हटकर उनके दादाजान और अब्बा साहिब की ंकब्रें थीं।
उन्हें लगा कब्रों में से मिट्टी उड़ रही है। उस मिट्टी ने अनेक व्यक्तित्वों का रूप धारण कर लिया। अब्बाजान ने इन शख्सियतों के बारे में हमें कराची में भी पत्र डाला था और लिखा थामैं बाप.दादा की ंजमीन से अलग नहीं हो सकता। पता नहीं इन रूहों ने अब्बा हजूर से क्या बातें की थीण्ण्ण्फिर खिड़की से अपना मुँह घुमा उन्होंने हुक्म दियाश्श्सभी तैयार हो जाओए बुर्के उतार देनाए कोई मुसल्ला या लाटा न उठाये। अलीगढ़ से हमें चोरों की तरह निकलना होगा।श्श्
श्श्बसीर!श्श्
श्श्जी हजूरण्ण्ण्।श्श्
श्श्तुम मोटर तैयार करोए बेंगमए साहिबजादियों और लड़कों को लेकर तुम भाई साहिब के पास दिल्ली पहुँचो। रास्ते में नहीं ठहरना। रात को वापस पहुँचना होगा। मैं तेरी इन्तजार करूँगा। शाबासए मेरे बहादुर बच्चेण्ण्ण्श्श्
श्श्और हजूर।श्श् नवाबजादी ने तरले से भरी आवांज में कहा।
श्श्मैं भी पहुँचूगा।श्श्
श्श्मैं हजूर के बिना नहीं जा सकती।श्श्
श्श्देखो बेगमए इन बीस वर्षों में मैंने आपको कभी कोई हुक्म नहीं दिया। आज डॉक्टर आलम हुक्म दे रहा हैए तुम तैयार हो जाओए जिद नहीं करो। यह रुपये सम्भालो आपके काम आएँगे।श्श्
नवाबजादी ने घुटनों के बल खड़े होकरए अब्बा हजूर का हाथ चूमा और ऑंसू बहाते हुए कहाश्श्मेरे आंका! बाँदी को धोखा मत देना। यह नवाबजादी नहींए फकीरजादी दरंखास्त करती है। हजूर बिना मैं जिन्दा नहीं रह सकती। मुझे अपने हाथों से मार दोए कौन है जनाब को पूछने वाला।श्श् माँ की इन बातों ने सभी को रुला दिया।
श्श्बेगम उठ।श्श् अब्बा ने नवाबजादी को दोनों कन्धों से पकड़कर उठाया और हमारे सामने ही उन्हें गले लगा लियाए मेरी अम्मा का माथा चूम लिया। पता नहीं इस चुम्बन में कितनी तल्खी और कितने सकून थे।
हमाने दिल्ली से अम्माजान को कितनी ही चिट्ठियाँ डालीं। कितने पैगाम भेजेए पर वे नहीं आये। और न ही कोई जवाब आया। दिल्ली से जाते समय मेरी अम्मी फूट.फूटकर रोयी। महबूब इलाही के मंजार शरींफ की तरफ मुँह करके उन्होंने अपने शौहर के लिए दुआ माँगीसौ.सौ संजदे किये और दिल्ली की खाक को सिर पर लगा रोते हुए कहाश्श्नवाबंजादी ंफकीरंजादी हो गयी हैए है ंखुदा!श्श्
कराची पहुँचते ही हमें अच्छा मकान मिल गया। भाई असगर की कॉलेज में नौकरी लग गयी। हम सभी पाठशाला जाने लगे। हम उदास थेए पर खुश भी। अब हमें कोई सिख नहीं सता सकता था। सिखों की भयानक बातें सुनए कई बार मैं सोते.सोते चीखने लगती थी। अम्मीजान सुबह नमांज पढ़ती तो दुआ करती। उसकी ऑंखों से ऑंसू बहने लगतेश्श्या अल्लाह! मेरे डाक्टर साहब की खैर हो। मेरा सुहाग कायम रहे।श्श्
अम्मी ने खाना.पीना छोड़ दिया। कुछ महीनों में ही कनपटियों पर उनके बाल सफेद हो गये। वह हर हफ्ते अब्बाजान को खत लिखतीए तार डलवातीए पर कोई जवाब नहीं मिला। अम्मीजान पागल.सी विलाप करती। कपड़े फाड़ देती और भिखमंगों की तरह हाथ फैला.फैलाकर डाक्टर असलम की ंखैरियत के लिए दुआ माँगती। कितनी बार अब्बा हजूर को लिखा थाश्श्डाक्टर साहिब! ंखुदा के दरवांजे सदा खुले हुए हैं। मैं हशर के दिन हजूर का दामन पकड़ पुलसरात की कठिन घाटी ऑंखें मींचकर पार कर जाऊँगी। मेरा रहबर मेरे साथ होगा। क्या मेरी जिन्दगी में हजूर के न्याज हासिल नहीं हो सकतेघ् मैं हजूर की बाँदी हँ। मेरे दफनाए जाने से पहले एक बार मेरे महबूब मुझे देख जाते और अपने हाथ से मेरी कब्र पर पत्थर लगवा जाते। नवाबंजादी महिरुल निसा जोंजा डाक्टर असलम आराम फरमा रही है। नहीं तो कयामत के दिन पूछूँगी। मेरा क्या दोष थाए मुझे इतनी बड़ी सजा क्यों दी।श्श्
हमसे माँ का दुरूख देखा नहीं जाता था। मामा साहिब आते। वे डाक्टर थे। अपनी बहन को तसल्ली देते। उनका एक भाई अभी तक हैदराबाद में था। नाना अब्बा लखनऊ से नहीं निकल सकते थे और कुछ वर्ष पहले वहीं वफात पा गये थे। उनके पास अपना कोई अजींज नहीं था।
आदमी को मिट्टी से कितनी मुहब्बत होती हैए वह मर सकता हैए पर उस का मिट्टी से प्यार नहीं टूट सकता। नानाजान ने वह सरंजमीन नहीं छोड़ीए पर मौत कबूल कर ली।
नानाजान ने एक बार हमारी माँ अर्थात् नवाबजादी को लिखा थाश्श्महरोए जब कभी लखनऊ आओए मेरे मंजार पर अपने हाथ से अगरबत्ती जलाना। मैं अकेला रह गया हँ। मेरे साथ सिर्फ कल्लन है। कभी.कभी अमीनाबाद के चौक में जाकर खड़ा हो जाता हँ। अपना कोई भी नजर नहीं आता। महिरोए तुम्हारी मुहब्बत मेरे दिल में बसी हुई है। पर जब मेरी साँस से लखनऊ की मिट्टी की महक आती हैए मेरी ऑंखें मुँद जाती हैं। मेरी जमीन सरकार ने सम्भाल ली है। मेरे लिए हवेली का सामान काफी है। कोई शुगल नहींए आंखिरी दिन की इन्तंजार है। मैं जफर की तरह रोना नहीं चाहताश्दो गज जमीन भी न मिली कू.ए.यार में।श्
मौत के बाद भी मुझे कोई इस जमीन से अलग नहीं कर सकता। तुझे मिलने की एक तड़प बाकी है।
अब्बाजान बिलकुल चुप हो गये थे। पर माँ को नाना अब्बा के खतों से मालूम चल गया था कि डाक्टर असलम क्यों नहीं आ रहे।
मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं होता। मेरी अम्मी मूर्तिपूजक हो गयी। यह उसकी मुहब्बत की बहिशत का नतीजा था। पता नहीं किसने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की पत्रिका उन्हें दीए जिसमें डाक्टर अब्बा की तस्वीर थी। वे रंगीन गाउन और चौड़ी टोपी पहन कन्वोकेशन के जुलूस में जा रहे थे। नीचे लिखा था डाक्टर एम।असलमए वाइस चाँसलर।
अब्बाजान की ठोढ़ी पर की छोटी.सी दाढ़ी बिल्कुल सफेद हो चुकी थी। जब अम्मी ने तस्वीर देखी तो फूट.फूटकर रोने लगी। उसको दंदल पड़ गयी। मामाजान आये हुए थे। नवाबजादी की हालत देख उनकी ऑंखों में भी ऑंसू आ गये। डाक्टर भाई साहिब और प्रोंफेसर भाई साहिब तथा हम तीनों बहनें पास थे। डाक्टर भाई साहिब माँ को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे तथा साथ खुद भी रोते जा रहे थेया अल्लाह फजल करो।
अम्मीजान ने अब्बाजान की तस्वीर को शीशे में जड़वाकर मेज पर रख लिया। मेज मगरब की तरफ थी। अम्मीजान नमाज पढ़ जब सिंजदा करती तो डाक्टर अब्बा की तस्वीर सामने होती। ऐसा लगता कि जैसे वे अपने देवता को सिजदा कर रही हो। अम्मा कई.कई घंटे मुसल्ले से न उठती। वह अपने महबूब से बातें करती रहती। कई बार हम चुपचाप उसके पीछे खड़े हो जाते पर उसको इसकी कोई खबर न होती।
घर में सब कुछ था। मेरा विवाह चाचा अब्बा के घर हो चुका था। सलमा एम।ए। कर चुकी थी। और अब्बाजान की यादें धुँधली पड़ती जा रही थींए पर अम्मा का घाव वैसे ही रिस रहा था। उसमें अब प्राण नंजर नहीं आ रहे थे।
वह तरले करती कि अलीगढ़ जाएए वह मिन्नतें करतें कि लखनऊ जाकर देखेए हैदराबाद जाकर बड़े भाई साहिब को मिले। पर मेरे दोनों भाई साहब उन्हें जाने नहीं देतें थे। उन्हें हिन्दुस्तान से चिढ़ थी और ंखासकर सिखों से। श्अलीगढ़ में फिर फसाद हो गये हैं। यह सिख कितनी घटिया कौम हैए औरतों का भी लिहांज नहीं करते। अम्मीजान आप बहुत कमंजोर हो गयी हैं।श् मेरी अम्मी अलीगढ़ की मिट्टी के लिए तरसती हुई चल बसी।
एक दिन अम्मी ने मुझे अपने घर बुलाकर कहा थाश्श्नईम बेटीए तुम अब समझदार हो गयी होए बहादुर भी। मेरा आखिरी समय आ गया है। एक बार अलीगढ़ जाना और डाक्टर साहब को मेरा सलाम देना। और कहनाए हजूर मेरी अम्मी को मांफ कर देनाए वह बड़ी गुनाहगार थीए मेरे लिए दुआ करें और महशिर वाले दिन मेरा हाथ पकड़ लें।श्श्
अम्मी चिल बसीए पर अब्बाजान की तरफ से कोई खत नहीं आया। हम दोनों बहिनें हिन्दुस्तान जाने के लिए तैयार हो गयी थीं। माँ की बातें हमारे कानों में गूँज रही थीं। फिर कौन रोक सकता थाघ्
मैं पहले ही बता चुकी हँ कि मैं बड़ी थीए पर सलमा से छोटी लगती थी। वह विवाहिता और मैं क्वाँरी लगती। साथ में उसने मेरा बच्चा जो उठाया हुआ था। वह बिना बुरके की और मैं बुरकेवाली। हमने सीमा पार की। हमारा रंग पीला पड़ गया। मोटे.मोटे सिखए बड़ी.बड़ी पगड़ियों और बिखरी हुई दाढ़ी वालेण्ण्ण्जिन्नण्ण्ण्अल्लाह तेरा फंजल। हम दिल्ली पहुँचींण्ण्ण्हमारी साँस.में साँस आयी। दिल्ली स्टेशन उसी तरह था जैसे आज से चौबीस साल पहले था। कुछ मुसलमानों की शक्लें नंजर आयीं तो हमारी साँस.में.साँस आयी। मैंने लम्बी साँस लेते हुए सलमा की तरफ मुँह करते हुए कहा
श्श्अभी तक वो गलियाँ हसीनो.जवाँ हैं
जहाँ हमने अपनी जवानी लुटा दी।श्श्
सलमा यह सुनकर मुस्करा पड़ी। उसकी मुस्कराहट में ंजहर घुला हुआ था। उसने कहाश्श्हम तो ऐसे नहीं।
अभी तक वो गलियाँ हसीनो.जवाँ हैं
जहाँ हमने अपने है बचपन को खोया।श्श्
हम बहुत खुश थे कि अलीगढ़ के स्टेशन पर अब्बा हजूर हमें लेने के लिए आये होंगे। पर वे कहीं नंजर नहीं आये। हमारे पास आकर एक बूढ़े.से मुसलमान ने पूछाश्श्बेटी नईम है।श्श्
श्श्हाँण्ण्ण्हाँण्ण्ण्।श्श्
और वह रोता हुआ हमारे सिरों पर हाथ फेरता रहा श्श्बिस्मिल्लाह! बिस्मिल्लाह! मेरी बेटियाँ आ गयी हैं।श्श् यह हमारा पुराना नौकर बसीर था जो अब काफी बूढ़ा हो चुका था।
श्श्खान साहब आपका इन्तंजार कर रहे हैं। वे स्टेशन पर नहीं आ सकते।श्श्
हम बहुत खुश थीं। वर्षों बाद अपने घर आयी थीं। अब्बा हजूर अन्दर थे और हमारा मन कर रहा था कि दौड़कर जाएँ और उन्हें बाँहों में ले लें। हम अन्दर गयीं तो डर गयींए हमारे रंग पीले पड़ गये। अब्बा हजूर के बिलकुल पास एक सिख खड़ा था और उसके साथ एक सुन्दर लड़की। अब्बा हजूर ने हमें कसकर गले से लगा लिया और सरदार की तरफ इशारा करते हुए कहाश्श्मेरे मुहाफज और अपने भाई साहब जोगिन्दर सिंह से मिलो।श्श् हम हिल न सकीं। पर सरदार जी ने हमारे सिरों पर प्यार दिया और उनको पासा खड़ी उनकी बीवी ने हम दोनों बहनों को गले लगाते हुए कहाश्श्हम कितने दिनों से आपका इन्तजार कर रहे थे। आओ मेरे बेटे अपनी मामी के पास।श्श् मेरे बेटे को उठाते हुए उसने कहा।