इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 29 नवंबर 2014

नवंबर 2014 से फरवरी 2015

सम्पादकीय
सिर्फ लेखन के लिए ही बहाना क्‍यों

आलेख 
खुदमुख्‍तार दलित स्त्रियां : राजेश कुमार चौहान
वर्गीय विभाजन को बनाये रखने वाले सांस्‍कृतिक हथियार के रूप में  ' इंग्लिश ' उर्फ ' अंग्रेजी' : अश्विनी कुमार
नारी लेखन: कहने की जरुरत : प्रो.. थानसिंग वर्मा
भारतीय सिनेमा और दलित : जादुई संसार की कटु यथार्थ : डॉ मुकेश कुमार मिरोठा
बलात्‍कार का समाजशास्‍त्र: डॉ. मोहन आर्य


शोध लेख
दलित प्रश्न और रेणु : डॉ. पूनम रानी
 
व्याख्यान
वे हमें जातिवाद कहते हैं: कंवल भारती
 
चिंतन
मानव जीवन के साथ जंगली जानवरों का संघर्ष : अशोक चौधरी

साक्षात्कार
कथाकार कुबेर से यशवंत मेश्राम की भेंटवार्ता
अभी तो सफर जारी है - इरफान :  अजय ब्रह्मात्मज 
दिल्‍ली को पूर्ण राज्‍य का दर्जा मिलें - मनीष सिसोदिया : डॉ. संजीत कुमार

कहानी
दोपहर का भोजन : अमरकांत
ऐसा मत कहो : भूपेन्द्र कुमार दवे
अमृत विद्धाश्रम: विजय कुमार
बेरोजगार : राजासिंह
फर्ज : आशीष आनंद आर्या
 
व्यंग्य
भगत जी की गत: हरिशंकर परसाई

लघुकथाएं
कैसे - कैसे चोर : सपना मांगलिक
शोक संवेदना या बधाई संदेश : प्रभुदयाल श्रीवास्तव

लोक कथा 
ठोली बोली : किसान दिवान

छत्‍तीसगढ़ी कहानी 
बेंगवा के टरर टरर :  विटठल राम साहू ' निश्‍छल ' 
झन फूटय घर : तेजनाथ  

व्यक्तित्व
भिखारी ठाकुर के मायने :मुन्ना कुमार पाण्डेय

सुरता
भाव और भाषा के साधक : गजानंद प्रसाद देवांगन दिशाबोध : वीरेन्द्र ' सरल '
 
कविता/ गीत/ गजल
प्रो. श्‍योराज सिंह ' बेचैन ' की दो कविताएं
कविता : कुहरा छाया है / राजेन्‍द्र गौतम
कविता / डॉ. संजीत कुमार की तीन कविताएं
कविता : वो बात / नरेश टांक ' अनय '
कविता : मुकेश वैद्य की कविताएं
कविता : अनुभव / शांतिदीप श्रीवास्‍तव
छत्‍तीसगढ़ी गीत : कब होबे सजोर / सुशील भोले
छत्तीसगढ़ी कुंडलियां : कइसे होथे संत / रमेश कुमार सिंह चौहान
छत्तीसगढ़ी छंद : अजब - गजब / लोकनाथ साहू ' ललकार '
गज़ल : मुकुंद कौशल के छत्तीसगढ़ी गज़ल
गज़ल :  वह दौर और / फूलचंद गुप्ता
गज़ल : समय किसी का / योगेन्द्र वर्मा ' व्योम '
गज़ल : जबां पर ताला /  जितेन्द्र ' सुकुमार '
गज़ल : तुम जो होते / लक्ष्मीप्रसाद बड़ोनी ' दर्द गढ़वाली '
दोहे : अन्दर के शैतान की / श्याम ' अंकुर '
नवगीत : कुंवार की हुई अवाई / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
नवगीत : इच्‍छाधारी जीते हैं / अशोक ' अंजुम '
फिल्‍म समीक्षा 
हैदर जो कू . ए. यार से निकले तो सू. ए. दार चले : उमाशंकर सिंह

लेख 
हिन्‍दी फिल्‍में और कैबरे : डॉ. संजीत कुमार

 
पुस्तक समीक्षा
कूबत और औकात का अद्भुत सौन्दर्य 
(गीत संग्रह )
छत्तीसगढ़ के संस्कार हे, पुरखा के चिन्हारी  : समीक्षक धर्मेन्द्र निर्मल
 
साहित्यिक - सॉस्कृतिक गतिविधियॉं
मनोज शुक्ल ' मनोज ' की काव्य कृति का विमोचन

सिर्फ लेखन के लिए ही बहाना क्यों ?

इस सम्पादकीय को लिखने के पीछे मेरी मंशा यह कतई नहीं है कि मैं अपने मित्र की पीड़ा को उजागर कर रहा हूँ। मेरी मंशा न तो मित्र की पीड़ा को बताने की है और न ही उनके पारिवारिक बंधन में बंध जाने की उनकी विवशता और कमजोरी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की। मैंने केवल इस बात की ओर इंगित करने का प्रयास किया है कि हमारी लेखनी हमसे कैसे छूटती जा रही है।
एक लंबे अतंराल, लगभग बीस वर्ष के बाद, मैं अपने एक मित्र के घर गया। दरवाजा खटखटाने पर मित्र की पत्‍नी ने कीवाड़ खोला। वह उनींदी थी। मैंने पूछा - जयंत घर पर हैं ।''
जयंत के घर पर होने की स्वीकृति देते हुए उसने मुझे अंदर आने के लिए कहा। मैंने जयंत के घर में प्रवेश किया। छपरी तक पहुँचा। तब तक जयंत भी जाग चुका था। समय दोपहर का था। संभव है, खेती - किसानी के काम से थककर वह आराम कर रहा होगा। जयंत रुम से चलकर छपरी में आ चुका था। हम एक - दूसरे को पहचान गये।
एक लम्बे समय बाद हमारी मुलाकात हो रही थी। मन के भीतर एक अजीब सा रोमांच था। दुआ - सलाम हुई। कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा - ''बहुत दिनों बाद मुलाकात हो रही है। और क्या हाल चाल है?''
- ''खेती - किसानी चल रही है।'' जयंत का संक्षिप्त उत्तर मिला।
मैंने बताया - '' आजकल मैं राजनांदगाँव में रहता हूँ। गाँव आना - जाना लगा रहता है। वर्तमान में मैं '' विचार वीथी '' नामक एक साहित्यिक पत्रिका निकाल रहा हूँ। तुम अच्छी कहानी लिखते हो। पत्रिका के लिए तुमसे कहानी लेने आया हूँ।''
आज भी मैं उसके भीतर संकोच और लज्जापन महसूस कर रहा था। उसने कहा - ''लम्बे समय से लेखन नहीं किया हूंँ। खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी इतनी अधिक हो गई है कि लिखने का अवसर ही नहीं मिलता।''
यह वह मित्र है, जिसके बारे में बताऊंँगा तो सहज रुप से विश्वास नहीं होगा। पर यह सत्य है। तब मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहता था। कहानियाँ लिखता और राजनांदगाँव से लेकर दिल्ली तक के पत्र - पत्रिकाओं में छपता। आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से मेरी कहानियाँ प्रसारित होती। तब मैंने जयंत की भी एक -  दो कहानी राजनांदगाँव से प्रकाशित '' सबेरा संकेत '' में पढ़ी थी। कई रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ता, उसी कड़ी में जयंत की भी कहानी पढ़ी होगी। तब मुझे यह पता नहीं था कि जिस जयंत की मैंने एक - दो कहानी पढ़ी है, वही जयंत मेरी लेखनी से प्रभावित है। इसी प्रभाव के चलते वह मुझसे मिलने मेरे गाँव तक आया पर मुझसे मिले बगैर ही लौट गया। इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब मुझे उसका पत्र मिला। इस बात पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। पत्र में इस घटना का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था - ''मैं आपसे मिलने आपके गाँव गया था। गाँव पहुँचने के बाद भी मैं आपसे मिलने का साहस जुटा नहीं पाया और बिना मिले लौट आया। संभवत: मेरे भीतर भय था कि आप इतने बड़े साहित्यकार मुझसे मिलना पसंद करेंगे भी या नहीं। मैं आपको अपना साहित्य गुरु मानता हूँ। आपकी रचनाशैली से प्रभावित होकर कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखी है जो स्थानीय अखबारों में छपी भी हेैं।''
पत्र की लाइनें पढ़ कर मुझे दुख हुआ। मुझसे मिलने की इच्छा लेकर मेरे गाँव तक पहुँच चुका व्यक्ति मुझसे मिले बगैर ही लौट गया था।
इस तरह की झिझक और संकोच केवल जयंत तक ही सीमित नहीं है। किसी अधिकारी या अपने से बड़े किसी व्यक्ति से मिलने के लिए यहाँ के अधिकतर ग्रामीणों के मन में एक अज्ञात भय आज भी विद्यामान है। संभवत: जयंत भी इसी भय से ग्रस्त रहा होगा। मुझे घोर आश्चर्य तो इस बात की थी कि मुझसे मिले बगैर ही मैं उससे मिलना पसंद करूँगा या नहीं जैसे प्रश्र उसके समक्ष खड़ा हो गया था। वह समय ही कुछ ऐसा था। वरिष्ठ साहित्यकार, नवोदित रचाकारों को हिकारत की दृष्टि से देखा करते थे। उसके मन में इस तरह की झिझक और संकोच पैदा होने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि उसने किसी रचनाकार से मिलने का प्रयास किया हो और वहाँ उसको असफलता मिली हो।
मैं उसके इस भ्रम को तोड़ना चाहता था। मैं स्वयं एक दिन उसके गाँव कसारी गया। वह मुझसे मिलकर गद़गद् हो गया। फिर हमारी मुलाकात तब तक होती रही जब तक मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहा ...।
खैर, जयंत ने खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी का हवाला देकर लेखनी से हाथ झाड़ लिया। अकेले जयंत ही नहीं, बहुत सारे, अच्छे - अच्छे लिखने वालों की लेखनी सामाजिक - पारिवारिक दायित्व के समक्ष दम तोड़ देती है, ऐसा क्यों ? क्या पारिवारिक - सामाजिक दायित्व के साथ मात्र लेखनीय दायित्व का निर्वहन करने में ही बाधा उत्पन्न होती होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तरह का बहाना बनाकर हम लेखन कार्य से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते हैं ?  यदि नहीं तो अन्य कामों की तरह लेखन कार्य को भी हम अपनी प्राथामिकता की कड़ी में क्यों नहीं रख सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लिखना तो चाहते है पर लिखने के लिए हमारे पास विषय नहीं होते। या फिर हम उस तरह की रचना नहीं कर पाते हैं जिससे स्वयं को संतुष्टि मिले। यह तो सरासर लेखक की असफलता है जिसे वह पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी की व्यस्तता के आवरण में छिपाना चाहता है। आत्मसंतुष्टि नहीं मिलने के कारण हमारी लेखनी छूटती है और इसके लिए हम अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारियों का बहाना बनाते हैं। ऐसा करके अपने आप को कहीं हम लेखन कार्य से बचाना तो नहीं चाहते हैं ?
आज निश्चित तौर पर देखा जाए तो हमारी लेखनीय दिशाहीन हो गई है। इस दिशाहीनता के लिए न तो परिवार जिम्मेदार है और न ही सामाज। साहित्य समाज का दर्पण होता है। आज परिभाषा पलट गई है। आज साहित्य समाज को दिशा प्रदान करने में अक्षम हो गयी है। समाज, साहित्य को मार्गदर्शन देने लगा है। आज साहित्य, समाज के पीछे चल रही है, साहित्य के पीछे समाज नहीं। ऐसे दुर्दिन क्यों  आये ? क्या इसी तरह की बहानेबाजी के कारण ? सिर्फ लेखन के लिए ही बहाना क्यों ? इस पर पूरी गंभीरता और पूरी ईमानदारी के साथ विचार करने की आवश्यकता है।
मैं जयंत से कह कर आया हूँ कि वह अपनी पुरानी रचनाएँ मुझे भेजे। हो सके तो नई रचना भिजवाए। परंतु जयंत अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारी के साथ अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी को भी पूरा करने में ईमानदारी से प्रयास करता  है या नहीं यह तो समय ही बताएगा।
संपादक

खुदमुख्‍तार, दलित स्त्रियॉं

राजेश कुमार चौहान 

कौसल्या बैसंती की आत्मकथा ' दोहरा अभिशाप ' की जितनी चर्चा हुई उससे कहीं अधिक इसके शीर्षक को दोहराया गया। इसका शीर्षक दलित स्त्रियों की जीवन स्थितियों की अभिव्यक्त करने वाला सर्वाधिक प्रभावी प्रतीक बन गया था कि दलित स्त्रियों का दोहरा शोषण होता है। एक तरफ तो सवर्ण समाज उनका उत्पीड़न करता है, दूसरी तरफ घर के भीतर अपने ही पुरुष उन्हें प्रताड़ित करते हैं। दलित महिला लेखन अथवा दलित महिलाओं की सामाजिक स्थिति के संदर्भ में जितनी भी आलोचना और अध्ययन सामने आए हैं, सभी में ' दोहरा अभिशाप ' शीर्षक को मुहावरे की तरह इस्तेमाल करके सारे लेखन को निपटाने की कोशिश रहती है और दलित पुरुष को मुख्य खलनायक की तरह पेश किया जाता है। शायद इससे सवर्ण समाज का अपराधबोध कुछ कम हो जाता हो। पर सवर्ण समाज को अपराधबोध कब हुआ है ? तो ऐसा करने से शायद जातिवाद का कलंक कुछ कम हो जाता हो। पितृसत्ता की कालिमा को थोड़ा और गहरा करके जातिवाद के कलंक को हल्का करने का यह खेल दिलचस्प है, इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि पितृसत्ता की यह कालिमा भी दलित पुरुष के चेहरे पर पुत जाती है,  इससे सवर्ण पुरुष का चेहरा थोड़ा खिला - खिला और उजला नजर आने लगता है। दलित विमर्श के पैरोकार स्त्री जाति के गुनहगार ( खलनायक) बन जाते हैं, कहते हैं जब तक दलित महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं मिल जाता तब तक आपको दलित विमर्श करने का अधिकार नहीं है। यह माँग होनी ही चाहिए लेकिन क्या सवर्णों और पैरोकारों की कोई नैतिकता नहीं होती।
वास्तविकता यह है कि सवर्ण लेखकों - आलोचकों ने दलित विमर्श को खारिज करने के लिए दलित महिला लेखन को हथियार की तरह इस्तेमाल किया और दूसरी तरफ दोहरा अभिशाप के मुहावरे में संपूर्ण दलित महिला लेखक को इस तरह निपटाया कि दोहरा अभिशाप प्रतीक से मुहावरा बना और मुहावरे से रुढ़ि बनकर रह गया है। अंतत: दलित महिला लेखन को भी पूरी तरह खारिज कर दिया जाना है। इसकी एक बानगी दलित महिला लेखन के चर्चित पैरोका बजरंग बिहारी तिवारी की समीक्षा में देखी जा सकती है। दलित आत्मकथाओं के संदर्भ में तिवारी लिखते हैं- एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विद्या में मौजूद है। चार - पाँच दशक पहले की वास्तविकता को कुछ इस तरह पेश किया जा सकता है कि वह आज का सच लगने लगता है। इस अवधि में आए परिवर्तन, यथार्थ की संश्लिष्टता विमर्शवादी आक्रामक भाषा में तिरोहित हो जाते हैं। (1)
बजरंग बिहारी तिवारी का तर्क तो स्पष्ट है लेकिन नीयत साफ नहीं है। दलित आत्मकथाओं के संदर्भ में ही उन्हें याद आता है कि आत्मकथा विभ्रम की सृष्टि करती है। सवर्ण लेखक लेखिकाओं की आत्मकथाओं के संदर्भ में उन्हें याद नहीं रहता कि इन आत्मकथाओं में विभ्रम की सृष्टि हो सकती है। तिवारी जी कुछ सवर्ण लेखिकाओं की फर्जी आत्मकथाओं पर मौन हैं। जिन आत्मकथाओं में तथ्य और सत्य को निष्कासित करके सनसनी फैलाने के लिए धमाके किए जाते हैं, उन धमाकों को आत्महंता बेबकी कहकर वीर - भाव पैदा किया जाता है। दलित आत्मकथाओं के मूल्यांकन में सवर्ण आलोचकों का यह दोहरापन हिन्दी साहित्य के लिए दोहरा अभिशाप है कि एक तरफ तो सनसनीखेज और फर्जी लेखन को समाज का दर्पण घोषित कर दिया जाता है दूसरी तरफ दलित लेखन में दर्ज विसंगति और विद्रूपताओं को विभ्रम घोषित करके साहित्य से बहिष्कृत करने की साजिश रची जाती है।
कौसल्या बैसंती के दोहरा अभिशाप की प्रशंसा करने के मामले में सवर्ण समीक्षक - आलोचक और प्रवचनकर्ताओं के बीच होड़ लगी रही जबकि दूसरी तरफ एक दलित आलोचक ने व्यक्तिगत कारणों से दोहरा अभिशाप को खारिज करते हुए इसकी लेखिका के विरुद्ध अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए उसे डायनासोर औरत कह दिया। यह घटनाक्रम सवर्ण साहित्यकारों के लिए बड़ा उर्वरक साबित हुआ। एक दलित आलोचक (डॉ. धर्मवीर) को केन्द्र में लाकर वे यह विभ्रम रचने में सफल रहे कि दलित विमर्श के पैरोकार ही स्त्री जाति के असली गुनहगार हैं। सवर्ण पुरुष तो दलित महिला के सच्चे अधिवक्ता हैं।
यद्यपि दलित महिला लेखन का अध्ययन करने के बाद कहीं यह नहीं लगता कि उन्हें किसी अधिवक्ता की जरुरत है। दोहरा अभिशाप इस बात का प्रमाण है कि कौसल्या बैसंती को किसी अधिवक्ता की जरुरत नहीं, वे अपनी अधिवक्ता खुद हैं। इस आत्मकथा में वे दलित समाज की तीन पीढ़ियों की अधिवक्ता हैं। पहली पीढ़ी में लेखिका की आजी (नानी), दूसरी पीढ़ी में माँ और तीसरी पीढ़ी में स्वयं लेखिका के संघर्ष हैं। तीनों पीढ़ियों कीये तीनों स्त्रियों की स्त्रियाँ खुदमुख्तार हैं।
दलित समाज की तीन पीढ़ियों के संघर्ष और प्रतिरोध को लेखिका ने मात्र एक सौ चौबीस पेज की आत्मकथा में बड़ी कुशलता और प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया है। जबकि कुछ लेखक - लेखिका तीन - चार सौ पृ. से लेकर हजार - हजार सौ पृष्ठों और कई खण्डों में आत्मकथा लिखकर भी न तो स्वयं को पुरी तरह अभिव्यक्त कर पाते हैं और न अपने परिवेश को। दोहरा अभिशाप की एक और बड़ी सफलता यह है कि इसकी सहजता और पठनीयता कहीं बाधित नहीं होती। कुछ अर्थों में कहीं सहजता प्रभावित भी है तो वह है - भूमिका। अच्छी बात यह रही कि भूमिका मात्र दो पृष्ठों तक सीमित है। इसमें भी दो महत्वपूर्ण बातें हैं - एक तो भाषा संबंधी स्पष्टीकरण कि मराठी भाषी होते हुए भी लेखिका ने आत्मकथा लेखन के लिए हिन्दी भाषा क्यों चुनी ? क्योंकि हिन्दी में दलित महिलाओं के आत्मकथा साहित्य का अभाव है, जिसकी शुरुआत में मैं भी हिस्सा होना चाहती हूंं। भूमिका में दूसरी महत्वपूर्ण बात है - लेखिका का पूर्वानुमान, वह अपने पुत्र, भाई और पति की प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान लगाते हुए लिखती है - पुत्र, भाई, पति सब मुझ पर नाराज हो सकते हैं, परंतु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूँ। मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं के होंगे परंतु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती और जीवन भर घुटन में जीती है। 3
स्वयं लेखिका को भी भय और घुटन से पूरी तरह मुक्त होने में चालीस वर्ष का समय लग गया। लेखिका के शब्दों में ही दर्ज भी है -अपने भोगे हुए यथार्थ को शब्दों में उतारने के द्वंद्व की पीड़ा में जीवन के अड़सठ वर्ष बीत गये। 4 इन अड़सठ वर्षों में चालीस वर्ष वैवाहिक जीवन के हैं। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्र यह भी है कि क्या अड़सठ वर्ष तक गुलामी के जीवन में संघर्ष करने के बाद लेखिका सचमुच पूरी तरह मुक्त हो गई है ? जीवन भर घुटन से भौतिक रुप से तो निश्चित रुप से मुक्त हो गई है लेकिन भावनात्मक धरातल पर सारे बंधन बचे हुए हैं, इनमें गांठ - गठीले बंधन भी शामिल है। यदि ऐसा न होता तो उसे आत्मकथा लिखते हुए पुत्र, भाई और पति की प्रतिक्रियाओं की कोई परवाह न होती। इसमें भी हैरानी की बात यह है कि जिस पति से पूरी तरह छुटकारा पा लिया है, उसकी प्रतिक्रिया और नाराजगी का जिक्र भी भूमिका में किया है। यह कहना और लिखन बहुत सरल है कि जिस पति से सारे संबंध तोड़ लिए, उसकी प्रतिक्रियाओं की परवाह क्यों की जाए, उसके विषय में सोचा भी क्यों जाए? लेकिन लेखिका के लिए यह कह पाना उतना ही कठिन है। जिस पति से प्रेम सम्मान और अधिकार पाने के लिए वह चालीस वर्ष तक संघर्षरत रही उसे इस तरह छोड़ देने को वह अपनी जीत कैसे मान सकती है ? पति को यूँ छोड़ देना निश्चित रूप से पति के गाल पर सार्वजनिक तमाचा है, इसे पति की हार के रुप में देखा जा सकता है लेकिन उसकी हार भी लेखिका को जीत का एहसास नहीं दे सकती। दूसरी तरफ पति भी इस हार को नहीं स्वीकारेगा, वह इस सार्वजनिक तमाचे को भी दूसरे ढंग से पेश करेगा। वह पुरुषत्व के अहं में यह कभी नहीं स्वीकारेगा कि उसकी पत्नी ने उसे छोड़ दिया, वह तो यही कहेगा कि उसने पत्नी को छोड़ा है। इस आधार पर वह पत्नी का चरित्र हनन भी करेगा।    इस चरित्र हनन में मित्रों का समर्थन भी जुटाएगा। दोहरा अभिशाप पर लिखी डॉ. धर्मवीर की समीक्षा को भी इसी चरित्रहनन के रुप में पढ़ा जा सकता है। ऐसा कुछ भी होने की आशंका शायद लेखिका के मन में रही होगी, जो एक चिंता के रुप में आत्मकथा की भूमिका में प्रकट हो गई कि पुत्र, भाई, पति सब मुझ पर नाराज हो सकते हैं।
पुत्र और भाई की प्रतिक्रिया की परवाह का कारण तो स्पष्ट है कि उसे उनसे संरक्षण ही नहीं चाहिए अपितु अपने द्वारा लिए फैसले पर नैतिक समर्थन चाहिए, लेकिन पति की प्रतिक्रियाओं की परवाह क्यों है इसके कारण पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। हम केवल अनुमान लगा सकते हैं अथवा चालीस वर्षों के संबंधों की राख में किसी भावनात्मक मोती के मिल जाने की आशा है।
आशंकाएँ हो अथवा आशा दोनों ही व्यक्ति को कई बार यथास्थितिवादी और कायर बना देती है, ये उसे साहसिक निर्णय लेने से रोकती है। आत्मकथा की भूमिका में लेखिका आशंकाग्रस्त जरुर है लेकिन इसकी अंतर्वस्तु इस बात का प्रमाण है कि वह अपनी तमान आशंकाओं और आशाओं को जीत चुकी है। अन्यथा वह अपने जैसी दूसरी स्त्रियों की तरह जीवन भर घुटन में जीती रहती। चालीस साल बाद भी पति से अलग होने और उस पर मुकदमा दायर करने का निर्णय न ले पाती।
संघर्ष और प्रतिरोध का यह गुण लेखिका को अपनी नानी और माँ से विरासत में मिला है। कई मामलों में उसकी नानी उससे अधिक जुझारु,  दृढ़निश्चय वाली, स्वाभिमानी और साहसी महिला थी। लेखिका की नानी - माँ और स्वयं अपने जीवन संघर्षों में अंतर इतना है कि उसकी नानी और माँ अशिक्षित और कामकाजी महिलाओं के संघर्ष हैं, जबकि स्वयं उसका अपने संघर्ष शिक्षित मध्यमवर्गीय एवं दलित महिला का संघर्ष है। उसकी नानी और माँ का दलितपन उसके अपने दलितपन से अधिक भयंकर था। इन तीनों के जीवन संघर्ष तीन अलग - अलग पीढ़ियों के संघर्ष हैं। अत: इतने अंतर होगा स्वाभाविक है। तीनों पीढ़ियों के संघर्षों में सबसे बड़ी समानता यह है कि तीनों का सामना जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्ता से है।
तीन पीढ़ियों की प्रतिनिधि इन तीनों महिलाओं के संघर्षों में अभिव्यक्ति के स्तर पर सबसे बड़ा अंतर है। इस आत्मकथा में लेखिका के संघर्ष, उसके अपने अनुभवों की प्रामाणिकता के साथ दर्ज हुए हैं, जबकि उसकी माँ के संघर्ष उसके द्वारा एक प्रत्यक्षदर्शी की तरह दर्ज हुए हैं और नानी के संघर्षों की तो वह प्रत्यक्षदर्शी भी नहीं रही। उसने पहले माँ से नानी के संघर्षों के विषय में सुना फिर अपने पाठकों को सुनाया। लेखिका ने पहल ही स्पष्ट कर दिया है - माँ अक्सर अपनी माँ को याद करके रोती थीं। हम सबने माँ से बहुत आग्रह किया कि वह अपनी माँ के बारे में बताएं। सिर्फ बड़ी बहन ने ही आजी को देखा था। मैं दस महीने की थी तभी आजी का देहांत हो गया था। माँ बताने लगी कि ....। 5
माँ ने नानी के विषय में जो कुछ बताया, लेखिका ने उससे तादातम्य स्थापित किया और अपने जीवन संघर्षों की कड़ी में जोड़ लिया। उसने महसूस किया कि वह अपनी नानी के जीवन - संघर्षों के इतिहास को स्वयं नई स्थितियों में भी जी रही है। अर्थात इन तीनों पीढ़ियों में जातिव्यवस्था और पितृसत्ता का दमनचक्र निरंतर जारी है। इस दमनचक्र का इतिहास इसके वर्तमान से अधिक भयानक है। अर्थात लेखिका की नानी की जीवन स्थितियाँ अधिक विषम और भयानक थीं।
लेखिका की नानी छह भाइयों की इकलौती बहन ने बहुत छोटी उम्र में ही माता - पिता को खो दिया। उस समय अस्पृश्य समाज के किसी भी लड़के या लड़की के पास स्कूल जाने तक का कोई अवसर नहीं था। आठ वर्ष की उम्र में ही वह विधवा भी हो गई जबकि उसे विवाह और विधवा होने का अर्थ तक पता नहीं था पति का शव आँखों के सामने पड़ा है लेकिन वह अबोध बालिका क्या समझती कि यह क्षण उसके अंधेरे जीवन की कालिमा को और गहरा करने वाला क्षण है। दो बच्चों के पिता की तेरह वर्ष की उम्र में दूसरी पत्नी बनीं। जबकि उसकी पहली पत्नी भी जीवित थी। अर्थात तेरह वर्ष की अबोध अवस्था से ही सौतन का संताप भी झेला। दुहाजू पति द्वारा किया जा रहा उत्पीड़न असहनीय था। इस सबके बीच छोटी उम्र में ही वह तीन बच्चो की माँ भी बनी। पति कि उत्पीड़न असहनीय तो पहले ही थे, अब उसने उसके ममत्व पर भी हमला शुरु कर दिया। उसके बेटे का हाथ चलती चक्की में डालने लगा। इस घटना के बाद अगले ही दिन प्रभात - बेला में अपने बच्चों को साथ लेते हुए घर छोड़ दिया। रास्ते में भूख और बीमारी से एक बेटी की मौत हो गई। अपने हाथों से गड्ढा खोदककर बेटी को दफनाया और अपन पीड़ा को अपने हृदय में दबाकर अपने जीवित  बच्चों की खातिर जिंदगी से दो - दो हाथ करती रही। वह न तो अपने ससुराल वापस लौटी न मायके गई और न किसी परिवार रिश्तेदार से आर्थिक अनुदान माँगा। अपने भतीजे से कर्ज लेकर अपने लिए झोपड़ी बनाई और ईंट - सीमेंंट ढोने की मजदूरी करके कर्ज चुकाया। बच्चों का पालन पोषण किया। बेटे का विवाह सोलह वर्ष की उम्र में कराया। टायफाइड से बेटे की मौत हो गईद्ध उसकी पत्नी का पुर्नविवाह कराया। अब उसकी जिंदगी में मात्र उसकी एक बेटी बची थी। अब उसे बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी।
इसी बीच उसके पति ने आकर उन दोनों पर अपना हक जताना शुरु किया और बेटी के विवाह के प्रश्न के मामले में दखलांदजी शुरु की एक हद तक उसने यह सब स्वीकार भी किया लेकिन अंतत: लेखिका ने इस दखलंदाजी से पीछा छुड़ाकर बेटी का विवाह भी कर दिया। दामाद अच्छे व्यक्तित्व वाला और संवेदनशील था। अत: यह निर्णय सही साबित हुआ। लेखिका ने अपनी नानी के जीवन के अंतिम क्षणों को आत्मकथा में कुछ इस तरह दर्ज किया है - पंढरपुर की अपनी यात्रा पूरी करके आजी नागपुर आने को निकली थी। रास्ते में तबीयत खराब हो गई ... सड़क पर ही लुढ़क गई और उसकी मृत्यु हो गई। बस अड्डे पर खलासी लाइन बस्ती के हमालों ने आजी को पहचाना। आजी के पास मरते समय एक गठरी और पीतल का लोटा था। गठरी खोलने पर उसमें चार - पाँच गज सफेद कपड़ा एकदम नया और एक छोटे कपड़े की थैली में कुछ रुपये बचे थे, साथ में सिंदूर, अबीर गुलाल और विटोबा के मंदिर का प्रसाद था। आजी हरदम कहा करती थीं कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी किसी पर बोझ नहीं बनेंगी। अपने कफन का सामान भी स्वयं जुटाएंगी और उन्होंने अपनी बात पूरी करके दिखाई। 6
आजी (नानी) की जिंदगी खुदमुख्तार स्त्री की प्रतीक बन जाती है। ध्यान रहे यह स्त्री किसी स्त्रीवादी आंदोलन अथवा विमर्श की पैदाईश नहीं है। यह दलित समाज की प्रतिनिधि स्त्री है। इसकी बेटी भागेरथी अर्थात लेखिका की माँ की जिंदगी भी इससे बहुत अलग नहीं है। दोनों की जिंदगी में अंतर बस इतना है कि आजी की बेटी के जीवन संघर्षों में उसका पति साथ हैं। उसके सारे संघर्षआर्थिक अभावों और जातिवादी व्यवस्था के विरुद्ध हैं। यह कतई जरुरी नहीं कि प्रत्येक दलित स्त्री का संघर्ष पति (दलित पुरुष )के विरुद्ध भी हो। सभी दलित पुरुष पुरुषवादी ही हों, यह भी जरुरी नहीं। हाँ इतना जरुर है कि दलित परविारों की संरचना भी पितृसत्तात्मक है क्योंकि उन्होंने बहुत कुछ सवर्ण एवं मध्यवर्गीय परिवारों की नकल करने की कोशिश की है। इसी कोशिश में सवर्ण समाज की कुछ बराईयाँ दलित परिवारों में भी आ जाती हैं, जिसकी कीमत दलित स्त्री को पितृसत्ता का अभिशाप भी झेलना पड़ता है। यही है, दलित स्त्री का दोहरा अभिशाप। यही लेखिका का भी दोहरा अभिशाप है।
लेखिका का आरंभिक जीवन - संघर्ष, जातिवादी व्यवस्था और आर्थिक अभावों के विरुद्ध ही है। अर्थात यह उसकी माँ के जीवन - संघर्षों की ही एक कड़ी है। इनकी पृष्ठभूमि के संदर्भ में लेखिका ने कुछ इस तरह दर्ज किया है - आजी और माँ - बाबा जिस बस्ती में रहते थे ... उसमें अधिकांश अछूत थे, अनपढ़ और मजदूर। सड़क के एक ओर गरीब,अशिक्षित और सड़क के दूसरी ओर अमीर पढ़े - लिखे। सिर्फ एक सड़क उन्हें विभाजित करती थी परन्तु जमीन आसमान का फरक था दोनों में। मेरा जन्म 8 - 9 - 1926 को इसी खलासी लाइन बस्ती में हुआ था। माँ को अब नागपुर की एम्प्रेस मिल में नौकरी मिल गई थी। आजी दिहाड़ी पर काम करती थी। कभी वह,कभी मेरी बड़ी बहन जानाबाई मेरी देखभाल करती थीं। उस वक्त मैं सिर्फ आठ वर्ष की थी। बचपन में बहुत बीमार रहती थी। माँ को मिल से छुट्टी लेने पर पगार में से पैसे कट जाते थे। इसलिए माँ बहुत कम छुट्टी लेती थी।
लेखिका के अलावा सभी दलित बच्चों का बचपन भी इसी तरह का होता था - बस्ती में छोटे बच्चों की मृत्यु ज्यादा होती थी। कभी घर में बच्चों का देखभाल करने वाला कोई न हो तो उस बच्चे को अपने साथ काम पर ले जाते थे। और पास ही किसी पेड़ या किसी बड़े घर की छाया में कपड़ा बिछाकरलिटाते। माँ बीच में आकर उसे देखती और अपना दूध पिलाकर चली जाती। पाँच साल के बच्चे के हवाले माँ बाप छोटे बच्चे को पालने में डालकर चले जाते थे। पाँच साल का बच्चा रस्सी खींचता रहता .... बच्चा टट्टी पेशाब में सारा दिन पड़ा रहता था। शाम को माँ आने पर ही उसको साफ करती थी। छ: - सात साल की लड़कियाँ, माँ - बाप के काम पर जाने पर झाड़ू, बर्तन, साफ - सफाई करती थीं। रेंगने वाला बच्चा हो तो उसके पाँव में लंबी रस्सी बांधकर उसका एक सिरा किसी खाट से बाँध देते थे और आस पास कुछ खाना कटोरी में रख देते थे या जमीन पर मुरमुरे डाल देते थे। बच्चा उन्हें बीन - बीन कर खाता रहता था। रो - रो कर जमीन पर ही सो जाता था, टट्टी पेशाब में। ऐसे में उन्हें बीमारी होना स्वाभाविक था और मृत्यु भी। बच्चा ज्यादा देर सोता रहे इसलिए उसे अफीम खिलाकर भी सुलाते थे। 8
इन दलित बस्तियों में बच्चों की जिंदगी जादू - टोना के हवाले थी। यहाँ गरीबी, जहालत और अंधविश्वास पलते थे और जिंदगियां दम तोड़ देती थी। जिंदगियां बद से बद्तर होकर भी इन बस्तियों की घुटन से बाहर खुली हवा में आकर सांस लेने की हिमाकत नहीं करती थीं क्योंंकि इन बस्तियों के बाहर जातिवाद का राक्षस उन पर हमले को हमेशा तैयार खड़ा रहता था। लेखिका की माँ ने डॉ. अंबेडकर के आंदोलनों के विषय में सुना था और देखा भी था। इससे उनमें जागरुकता आ चुकी थी। वे इस बात के लिए कटिबद्ध थीं कि उनके बच्चे पढ़ - लिखकर इन बस्तियों की घुटन से बाहर निकलें। इसके लिए उन्होंने कभी मिल में नौकरी की, सिलाई का काम किया तो चूड़ियां बेचने का काम भी किया। लेखिका के पिता ने बेकरी में नौकरी की। अठारह वर्ष की इस नौकरी में न कोई छुट्टी, न काम का निर्धारित समय और न ही वेतन बढ़ा तो लेखिका की माँ बेकरी पर पहुँची वहां इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई और अंतत: पति से यह नौकरी छुड़वाई। बाद में पति ने कबाड़ी का काम किया। इस तरह पति - पत्नी मिलकर गरीबी के खिलाफ भी लड़ते रहे और अपने बच्चों के स्कूल जाने के रास्ते भी खोले।
स्कूल जाने पर इन बच्चों का सामना सबसे पहले जाति व्यवस्था के राक्षस से हुआ। लेखिका में भी जातीय हीनता की ग्रंथि घर कर गई। जो आगे चलकर बहुत बाद में दूर हो सकी। स्कूल में लेखिका को ऐसे कई अनुभव हुए। अत: लेखिका स्कूल में अलग - थलग रहती थी - इस स्कूल में मेरे सिवा और कोई अस्पृश्य लड़की नहीं थी। सिर्फ दो लड़कियाँ कुनबीं जाति की थीं। बाकी सब लड़कियॉ ब्राम्हाण जाति की थीं। कोई मुझसे मेरी जाति न पूछ बैठे, इसका मुझे सदैव डर रहता था। इसलिए मैं अकेली चुपचाप खाने की छुट्टी में या स्कूल शुरु होने से पहले एक ओर बैठी रहती थी। लड़कियों के साथ खेलने में भी डर लगता था। मैं दूर अलग बैठकर उनका खेल देखती थी। कुनबी लड़कियों में भी थोड़ी हीनता थी वे भी ब्राम्हण लड़कियों में घुलती - मिलती नहीं थीं। 9 शिक्षक भी जातीय आधार पर भेदभाव करते थे। अपनी बस्ती के बाहर निकलते ही लेखिका जातिवाद का शिकार होती थी - बस्ती के बाहर उच्चवर्गीय लोगों के लड़के भी हम पर बहुत जलते थे - ये हरिजन बाई जा रही है। दीमाग तो देखो, इसका बाप तो भिखमंगा है, ये साईकिल पर जाती है। कहकर वे साइकिल गिराने की कोशिश करते। अपने को उच्चवर्गीय समझने वाली औरतें भी मुझे साइकिल पर जाता देखकर बड़े कुत्सित ढंग से हंसती थी। उन्हें ताज्जुब होता था कि हम अछूत और मजदूर के बच्चे इतना कैसे पढ़ पाते हैं। 10
जातिवादी व्यवस्था का अभिशाप झेलते हुए लेखिका अंतत: बस्ती की घुटन से बाहर आने में सफल रही। कॉलेज में उसके अनुभव स्कूल से अच्छे रहे। यहाँ प्रोफेसर भी स्कूली अध्यापकों से अधिक प्रगतिशील मिले। इस सद्भावपूर्ण परिवेश में वह जातीय हीनता की ग्रंथि से मुक्त होकर सवर्ण छात्र - छात्राओं से घुलमिल गई। कुछ अच्छे मित्र भी बने। एक ब्राम्हण लड़के ने उसके प्रति अपने प्रेमभाव का प्रदर्शन भी किया। लेकिन ... इसके बावजूद जातिव्यवस्था के कुछ लेकिन - वेकिन और किन्तु - परन्तु बड़े सौम्य रुप में लेखिका के वजूद की चुनौती देते रहे। दरअसल वाद - विवाद प्रतियोगिता के दौरान एक ब्राम्हण लड़का उसके प्रति आकर्षित हुआ। एक दिन वह उसे अपने घर भी ले गया। अपनी माँ और बहन से मिलाया। इसके बाद एक दिन लेखिका ने भी उसे अपने घर चाय पर आमंत्रित किया। उसके बाद ... मैं उसके साथ बस्ती में घुसी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि मैं इस बस्ती में रहती हूं। उसे इसकी जरा भी कल्पना नहीं थी। वह एकदम गंभीर हो गया। मैं उसके साथ अपने घर पहुंची। माँ - बाबा से परिचय कराया। वह सिर्फ पाँच मिनट बैठा और जाने लगा। माँ बाबा ने चाय पीने के लिए बहुत आग्रह किया। परंतु उसने बहाना बनाया। वह उठकर चला गया। अब वह कॉलेज में दिखता तो आँखें चुराता था। मुझे टालता था। पहले वह समाज सुधार की बातें किया करता था। अब बस्ती में घुसते ही उसे मेरी जाति का पता लग गया था।
अब लेखिका में आत्मविश्वास आ चुका था। वह अपनी लड़ाई खुद लड़ सकती थी। अत: उसने अच्छी सहेली के राजनीतिक प्रस्ताव को ठुकराने में भी संकोच नहीं किया। दरअसल लेखिका की सहेली कम्युनिष्ट पार्टी की कार्यकर्ता थी और वह उससे आग्रह कर रही थी कि वह भी पार्टी से जुड़े - एक दिन उसने मुझे मजदूरों की स्थिति के बारे में बताना शुरु किया। मैंने कमल से कहा कि मेरे माँ - बाप दोनों मिल मजदूर हैं, दोनों एम्प्रेस मिल में काम करते हैं। गरीबी से मेरा बहुत नजदीकी रिश्ता है। क्या तुमने कभी गरीबी नजदीक से देखी है। कमल को मैं अपने साथ अपनी बस्ती में ले गई। इसके पहले उसे कल्पना भी नहीं थी कि मैं उस बस्ती में रहती हूं। थोड़ी देर पहले बारिस हुई थी। बस्ती में चारों ओर कीचड़ था। हम घर पहुंचे तो मेरा छोटा भाई और बहन जहॉ - जहॉ घर के खपरैल से पानी टपक रहा था, वहां कटोरी, टिन, पतीली वगैरह रख रहे थे। कुछ घरों में पानी घुस गया था। बस्ती में पाखाने के बाहर बच्चों की टट्टी पानी के ऊपर बह रही थी। बहुत बदबू आ रही थी। कमल ने नाक पर रुमाल रखा। मैंने उसे बस्ती में घुमाया। वह एकदम चुप थी ... उसने फिर कभी मुझसे कम्युनिष्ट पार्टी का सदस्य बनने का आग्रह नहीं किया। 12
यह संदर्भ समाज सुधारकों, राजनीतिकों और विमर्शकारों के लिए कड़ा संदेश है कि दलित स्त्री अपनी लड़ाई खुद लड़़ सकती है, घर के बाहर जाति व्यवस्था से भी और घर के अंदर पितृसत्ता से भी। लेखिका ने अपने दोहरे अभिशाप को स्वयं काटा है। पूरी आत्मकथा में ऐसा कोई प्रसंग नहीं आता जिससे यह सिद्ध हो सके कि लेखिका के किसी भी संघर्ष में कोई समाज - सुधारक, राजनीतिक व्यक्ति अथवा विमर्शकार ने साथ दिया हो। लेखिका ने अपनी माँ और नानी से मिली प्रतिरोध की विरासत, शिक्षा, आत्मविश्वास और डॉ. अम्बेडकर की प्रेरणा से अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ी। अलबत्ता उसकी सफलता को भुनाने वालों के बीच होड़ लगी है। इस होड़ में सवर्ण आलोचक सबसे आगे हैं। यदि कोई सवर्ण आलोचक लेखिका की प्रशंसा करता है अथवा दलित स्त्री के प्रति अपने सरोकार दर्शाता है तो यह भी गलत नहीं है, सराहनीय ही है लेकिन इसकी आड़ में दलित लेखन का इस्तेमाल दलित विमर्श के विरुद्ध करता है तो यह निंदनीय है।
किसी भी स्त्री का शारीरिक अथवा मानसिक उत्पीड़न करने वाले दलित पुरुष की भी भर्त्सना होनी ही चाहिए। लेखिका ने भी अपने पति की पुरुषवादी प्रवृत्ति के विवरण आत्मकथा में दर्ज किए हैं। जिनके अनुसार पति ने विवाह के आरंभिक दिनों में ही उसे ताना देना शुरु कर दिया कि उसे कोई दूसरा नहीं मिला इसलिए उससे विवाह किया है (दरअसल लेखिका ने ही उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था) लेखिका ने चालीस साल बाद उसे छोड़कर उसके तानों का करारा जवाब दिया है कि इस उम्र में निश्चित रुप से कोई दूसरा नहीं मिलेगा और इसी उम्र में दोनों को एक - दूसरे की ज्यादा जरुरत है, फिर भी वह उसे बर्दाश्त न करके छोड़ने का फैसला लेती है। यदि शुरुआत में ही छोड़ दिया होता तो लेखिका के पास अपने पति जैसे अफसरों के विकल्पों की कमी न होती। लेकिन उसे विकल्पों की तलाश न थी, वह तो अपने पति से प्रेम और सम्मान चाहती थी, जो कि उसे अंत तक नहीं मिला। इसके विपरीत उसे पति से गाली - गलौज और दुत्कार ही मिली। मार - पिटाई के अवसर आना भी आम बात थी। लेखिका की ननद ने उसे बताया कि वह अपनी पहली पत्नी को भी ऐसे पीटता था। दरअसल लेखिका उसकी दूसरी पत्नी थी और स्थिति हमेशा दोयम दर्जे की रही। लेखिका के अनुसार - देवेन्द्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और  शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। 13 अत: लेखिका उसके लिए नौकरानी और सेक्स आब्जेक्ट से ज्यादा कुछ नहीं थी।
एक सौ चौबीस पृष्ठ की इस आत्मकथा में पहले तिरानवे पृष्ठोंतक लेखिका के पति देवेन्द्र कुमार का कहीं जिक्र नहीं आता। अंतिम तीन पृष्ठों में से सात - आठ पृष्ठों का इस्तेमाल लेखिका ने अपने पति की कू्ररताओं का खुलासा करने के लिए किया है। लेकिन इस आत्मकथा से संबंधित तमाम चर्चाएँ, आलोचना और समीक्षाएँ इन्हीं सात - पृष्ठों तक सीमित हो गई है। सीमित होने के अलावा एकांगी भी है। सबका एक ही सुर है - दलित मुक्ति की बात करने वाले दलित विमर्श के पैरोकारों देख लो, यह है तुम्हारा असली चेहरा, जरा दोहरा अभिशाप के आइने में खुद को देखो, तुम हम पर ब्राहमणवादी होने का आरोप लगाते हो। अरे, असली ब्राहमणवादी और शोषक तुम हो। तुम किस मुँह से दलित मुक्ति की बात करते हो। बंद करो अपना ये दलित विमर्श, पहले अपनी स्त्रियों को आजाद करो। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो हम तुम्हारी स्त्रियों के पक्ष में तुम्हारे खिलाफ आंदोलन करेंगे। तुम्हारी स्त्रियाँ हमारे साथ खड़ी है।
दलित पुरुषों से नैतिकता की माँग करने वाले सवर्ण बुद्धिजीवी प्रशंसनीय भी हो सकते थे यदि उनकी नीयत साफ होती। लेकिन ये विभ्रम फैला रहे हैं कि दलित पुरुष ही पितृसत्ता और ब्राहमणवाद का रचयिता है। ऐसा लगता है कि मनु महाराज कोई ब्राहमण नहीं बल्कि दलित पुरुष थे। जबकि वास्तविकता यह है कि दलित परिवार मध्यवर्गीय और सवर्ण परिवारों और पुरुषवाद सवर्णों की ही देन है।
दलित मुक्ति अथवा स्त्री मुक्ति के संघर्षों में सवर्ण पुरुषों ने भी अपनी भूमिका निभाई है, आगे भी निभा सकते हैं। यदि कोई दलित अथवा स्त्री उनकी भूमिका की परीक्षा करना चाहे तो इसके लिए भी उन्हें सहर्ष तैयार होना चाहिए। आलोच्य आत्मकथा के प्रकाशन में भी एक सवर्ण पुरुष की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्व. समाजवादी मस्तराम कपूर  ने इसकी प्रूफ रीडिंग, संशोधन से ही यह आत्मकथा पाठकों के समक्ष इस रुप में आ सकी। बावजूद इसके उनकी भूमिकार संदिग्ध ही है। सबसे पहला प्रश्र तो यही है कि उन्होंने इस आत्मकथा को बार - बार उपन्यास घोषित किया है, क्यों ? आखिर वे इसे आत्मकथा के रुप में क्यों स्वीकार नहीं कर सके थे ? शायद इसलिए कि आत्मकथा में दर्ज तमाम अनुभव और घटनाओं को काल्पनिक कहकर अनदेखा किया जा सके जबकि वे जानते थे कि उपन्यासों में भी यथार्थ के चित्र मिलते हैं। फिर वे आत्मकथा को उपन्यास घोषित करके कौन सा विभ्रम रचना चाहते थे।
दूसरा प्रश्र यह है कि फ्लैट पढ़कर समझ ही नहीं आता कि वे इस आत्मकथा की प्रशंसा में लिख रहे हैं अथवा दलित विमर्श को ही खारिज कर रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य है - यह उपन्यास लेखिका के लंबे, संघर्षपूर्ण, कड़वे - मीठे अनुभवों से भरे जीवन के सिंहावलोकन के रुप में लिखा गया है। अत: यह आत्मरति या आत्मपीड़न से उत्पन्न स्तब्धकारी प्रभावों से मुक्त है। जो खासतौर पर दलित साहित्य की रचनाओं में पाए जाते हैं। अर्थात मस्तराम कपूर दलित साहित्य को आत्मरति और आत्मपीड़न का साहित्य घोषित करके उसके सामाजिक सरोकारों को ही नकार रहे हैं। जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि आत्मरति और आत्मपीड़न की सबसे अधिक संभावनाएं सवर्ण लेखकों की आत्मकथाओं में मिलती हैं। ऐसे भी इसके लिए आत्मकथा नामक विधा अनुकूल है, जबकि वे दलित आत्मकथाओं को स्वीकारते ही नहीं हैं, आत्मकथाओं को उपन्यास घोषित कर देते हैं।
तीसरा प्रश्र यह कि मस्तराम कपूर ने दलित रचनाओं को एकांगी घोषित करने के लिए बड़ा मासूम तर्क दिया है - आत्मकथात्मक उपन्यासों ( और आत्मकथाओं में भी) में लेखक की प्रवृत्ति अपने अनुभवों को अनन्य बनाने की होती है अर्थात जो हमने भोगा और सहा है, वह किसी और ने भोगा या सहा नहीं होगा। यह प्रवृत्ति उसे जीवन की एकांगी दृष्टि से देखने को विवश करती है और इसके साथ ही इस रचना में एकांगीपन और एकरसता आ जाती है। 15 कपूर जी का यह तर्क स्पष्ट भी है और इसमें कोई कमी नहीं दिखती लेकिन इसकी मासूमियत के पार देखे तो कपूर जी के दलित प्रेम की सच्चाई सामने आ जाती है। पहली बात यह कि कपूर जी जिस अनन्य अनुभव की बात कर रहे हैं, वह सवर्ण लेखकों की आत्मकथाओं में मिलते हैं, क्योंकि उन्हीं की अद्वितीय जीवन मिला है, सवर्ण समाज में ही अद्वितीय महापुरुष जन्म लेते हैं अधिकांश अवतार भी इसी समाज में अवतरित होते हैं। रही बात दलित लेखको के अनन्य अनुभव की तो जिन दलित आत्मकथाओं से ऐसा व्यंजित होता है कि उस लेखक अथवा लेखिका ने जो भोगा औ सहा है, वह किसी और ने भोगा और सहा नहीं होगा। तो इसका अर्थ बस इतना है कि जो कुछ किसी दलित ने सहा और भोगा है, वह किसी वह किसी सवर्ण ने सहा और भोगा नहीं होगा। यही कारण है कि दलितों के इन अनुभवों के बरक्स किसी सवर्ण के अनुभव रखने है तो काफी खोज बीन करके तुलसी बाबा का नाम मिलता है कि देखो तुलसी बाबा भूख से कैसे बिलबिला रहे हैं, भूख जाति नहीं देखती। कितनी मासूम खोज है यह और कितना मासूम तर्क है। दलितों के अनुभवों के बरक्स तुलसी बाबा के अनुभव रखने वाले यह भूल जाते हैं कि दलित समस्या केवल भूख तक सीमित नहीं है। भूख के साम्य के आधार पर यदि सचमुच तुलसीबाबा और दलितों की जीवन स्थितियाँ एक न एक हो जाती तो बहुत सारे दलित तुलसीदास बन जाते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है।
अंत में मस्तराम कपूर ने दलित साहित्य को खारिज करने के लिए बड़ा विचित्र तर्क दिया है - इसका (दलित साहित्य का)औचित्य सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि दलितों के जीवन में पीड़ा, घुटन, और अपमान के सिवा और है क्या ...? आदमी ही नहीं पशु - पक्षी भी अपने लिए नीड़ का निर्माण करते हैं ... इस नीड़ का निर्माण वे प्रेम से करते हैं। 16 अर्थात कपूर जी को इस बात पर हैरानी थी कि दलित साहित्य में दलितों का जीवन जैसा चित्रित किया गया है यदि सचमुच दलित जीवन वैसा ही है तो वे जीवित कैसे रह सके। अर्थात दलितों के जीवन में भी जीने के लिए बहुत कुछ है अत: दलित साहित्य में विचित्र दलित - जीवन फर्जी है। दलितों के नीड़ और पशु - पक्षियों के नीड़ की तुलना करते समय वे दलित और कुत्ता - बिल्ली में कोई अंतर नहीं करते क्योंकि उनका अनुमान था कि जैसे कुत्ते - बिल्ली के जीवन में प्रेम होता है, वैसे ही दलितों के जीवन में भी होता होगा। बिल्कुल ठीक अनुमान है, दलितों के जीवन में भी प्रेम होता ही है लेकिन यह प्रेम उन्हें सवर्ण समाज से नहीं मिलता, यह प्रेम भी कुत्तों - बिल्लियों से मिलता है ? किसी दलित की बात सच नहीं लगती तो प्रेमचंद की कहानी दूध का दाम पढ़ लें। इस कहानी में भी अनाथ दलित बच्चे को सारी करुणा और सारा प्रेम कुत्ते से ही मिलता है।
दोहरा अभिशाप पढ़ने के बाद सबसे बड़ी हैरानी तो यह होती है कि इसके साथ यह फ्लैट कैसे छपा ? क्या लेखिका ने मस्तराम कपूर के दलित साहित्य विरोधी तर्क पढ़े नहीं थे ? या उनके प्रति इतनी कृतज्ञ थीं कि अपनी आत्मकथा के फ्लैप को नहीं बदलवा सकीं ? यदि आत्मकथा प्रकाशित होने के उत्साह में फ्लैप पर अंकित तर्कों को नहीं भी पढ़ा होगा तो उन्हें यह तो पता होगा कि उनकी आत्मकथा उपन्यास के रुप में छप रही है। उन्होंने अपनी आत्मकथा को उपन्यास कहलाना क्यों स्वीकार किया ? यदि दोहरा अभिशाप को आत्मकथा के रुप में नहीं छापा जा रहा था तो इसे दलित समाज की जीवनी के रुप में छपना चाहिए था। ऐसे भी इसमें लेखिका की नानी और माँ के जीवन संघर्ष जीवनी की तरह दर्ज हुए हैं। यदि उन दोनों महिलाओं को भी लिखने पढ़ने का अवसर मिला होता। उन्होंने भी अपनी आत्मकथाएं लिखीं होती तो निश्चित रुप से दोहरा अभिशाप से बेहतर आत्मकथाएं हमारे सामने होतीं। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि इन दोनों महिलाओं का व्यक्तित्व लेखिका के व्यक्तित्व से भी अधिक दृढ़ और प्रभावशाली था। यदि हम कम प्रभाववाली और ज्यादा प्रभाववाली के चक्कर में न पड़े तो इस आत्मकथा को तीन खुदमुख्तार दलित स्त्रियों की जीवनी के रुप में भी पढ़ सकते हैं।   

वर्गीय विभाजन को बनाए रखने वाले सांस्‍कृतिक हथियार के रूप में ' इंग्लिश ' उर्फ ' अंग्रेजी '

अश्विनी कुमार 

भगत सिंह ने कहा था - '' मुझे विश्वास है कि आने वाले 15 - 20 सालों में ये गोरे मेरे देश को छोड़ कर जाएंगे। पर मुझे डर है कि आज जिन पदों पर ये '' गोरे अंग्रेज''  विराजमान हैं, उस पर पद पर '' काले अंग्रेज''  विराजमान हो जाएंगे तो हमारी लड़ाई और भी कठिन हो जाएगी।''  भगत सिंह की इस घोषणा के लगभग 17 साल बाद '' गोरे अंग्रेज ''  तो चले गये। पर जाते जाते वे सत्ता मैकाले के मानस पुत्रों अर्थात '' काले अंग्रेजों''    को सौंप गये। फिर  क्या था, सरकार बदली, झंडा बदला, रंगाई - पुताई के साथ राज व्यवस्था को भी नया रंग रूप भी मिला पर राज सत्ता का ढाँचा वही का वही रहा। वही अंग्रेजी कानून, वही अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था। जी हाँ! राज सत्ता का स्वरूप नहीं बदला। एक तरीका जिसके माध्यम से तीन लाख अंग्रेज तीस चालीस करोड़ अविभाजित हिन्दुस्तानियों को नियंत्रित करते थे। यह तंत्र ही विरासत के रूप में काले अंग्रेजों को प्राप्त हुआ। अंग्रेजों के समय से ही भारतीय समाज में अंगे्रजीयत का वर्चस्व अंग्रेजों द्वारा राजसत्ता में सहयोग के लिए पैदा किये के सहभागी दलाल वर्ग का सांस्कृतिक वर्चस्व रहा। 200 साल के अंग्रेजी राज में, अंग्रेजों का सहभागी - सहयोगी अंग्रेजी दां वर्ग ही भारतीय समाज में उच्च एलिट वर्ग के रुप में स्थापित हुआ। यह वर्ग ही शिक्षा, नौकरशाही, कांग्रेस, अंग्रेजों के सहयोगी समाजसेवकों अर्थात सत्ता के हर शीर्ष पर काबीज भी हुआ और 1947 में हुए सत्ता हस्तांरण के बाद भी शीर्षत् पदों पर बना रहा है। स्पष्ट है झंडा बदला पर डंडा वही का वही रहा। भारतीय समाज में अंग्रेजी मैकाले के मानस पुत्रों की ही सुविधा की भाषा है। अंग्रेजीयत का वर्चस्व इस वर्ग का ही राजनैतिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक वर्चस्व भी है। अंग्रेजी वर्चस्व के हथियार के रुप में राजनैतिक, आर्थिक एवं ज्ञान की सत्ता को इस देश की 3 प्रतिशत आबादी तक समेटे रखती है। राजसत्ता का चंद हाथों तक सिमटा रहना ही उसे भ्रष्ट बनाता है। अत: यह अंग्रेजीयत का सिस्टम ही भ्रष्टाचार, गैर - बराबरी और शोषण की व्यवस्था का मूल कारण है। यह परिवर्तन भी इंग्लिश मीडियम सिस्टम द्वारा व्यवस्था को 1- 2 प्रतिशत के अंग्रेजीदां वर्ग तक समेटे रखने के लिए ही है।
अभी हाल ही में सिविल सेवा चयन हेतु ली जाने वाली सीसैट ( CSAT ) की परीक्षा पर परीक्षा के अभ्यर्थियों का गुस्सा फूटा, पर ये कहानी सिविल सेवा की सीसैट परीक्षा तक सीमित नहीं है। यूपीएसी (  UPSC )ने 2011 से सीसैट ( CSAT ) की नयी प्रणाली लागू कर प्रारंभिक परीक्षा के स्वरुप में परिवर्तन किया है। बोधगम्यता अपने आप में मूल्यांकन की एक बेहतर, विस्तरित एवं बहुआयामी पद्धति है। पर सीसैट परीक्षा में अंग्रेजीदां वर्ग के अनुरूप कॉम्प्रिहेंशन तैयार करने एवं उसका मैकेनिकल सरकारी हिन्दी में अनुवाद करने की वजह से ही समस्या पैदा हुई है। यूपीएससी की इस परीक्षा ने यह सिद्ध किया कि अच्छे सिद्धांत को जिस तरह बुरे उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है। ऐसा भी नहीं कि यूपीएससी के द्वारा 2011 से पहले ली जाने वाली परीक्षा भेद - भाव मुक्त थी। यदि हम 2011 से पूर्व के ग्राफ को भी देखें तो पाते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा में बेशक हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषा माध्यमों से औसतन 45 प्रतिशत अभ्यार्थी पास होते थे पर साक्षात्कार के बाद आँकड़ा औसतन 10- 12 या उससे भी कम रहा जाता था। अत: इस परीक्षा के पुराने पैटर्न में भी अंग्रेजीदां वर्ग का ही दबदबा था। 1979 से पूर्व तो यूपीएससी से पूर्व सिविल सेवा परीक्षा पूर्णत: अंग्रेजी में ही ली जाती थी और आज भी यूपीएससी  द्वारा ली जाने वाली अधिकतर परीक्षा अंग्रेजी में संपन्न होती है। चाहे वह भारतीय आर्थिक सेवा परीक्षा हो या भारतीय वन सेवा परीक्षा इन सभी परीक्षाओं के माध्यम उच्च ओहदों को अंग्रेजीदां वर्ग के लिए आरक्षित रखा गया है। वही हाल राज्य पीसीएस, एस.एस.सी., डी.एस.एस.एस.बी, बैकिंग और तमाम दूसरी नौकरियों का चयन करने वाली संस्थानों का भी है। इन सभी संस्थानों में अंग्रेजी एक अनिवार्य पत्र के रुप में रहता है। डी.एस.एस.एस.बी. ने तो अभी हाल ही में चयन परीक्षाओं में पहले से चले आ रहे अंग्रेजी के वस्तुनिष्ट प्रश्रों के अतिरिक्त अंग्रेजी की वर्णनात्मक परीक्षा को भी अनिवार्य बनाया है। (जानकारी के स्रोत - यूपीएससी रिपोर्ट, पीएससी,डी.एस.एस.एस.बी. बेवसाईट आदि ) सच्चाई यह है कि जिस भी परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता है वह 3 प्रतिशत के अंग्रेजीदां वर्ग को 50 - 100 प्रतिशत तक आगे बढ़ाती है और 95 प्रतिशत के गैर अंग्रेजीदां ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को 30 - 100 प्रतिशत तक पीछे धकेलती है। इन सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता इसलिए रखी जाती है कि अंग्रेजी के सहारे इस देश की ग्रामीण, कस्बाई गैर अंग्रेजीदां वर्ग को सत्ता के गलियारे से दूर रखा जा सके। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संविधान की धारा 348 के माध्यम से अंग्रेजीदां वर्ग का आरक्षण सुनिश्चित किया गया है। इस प्रकार सत्ता पर अंग्रेजीदां वर्ग का आरक्षण बना रहता है।
सरकार ने सीसैट की प्रणाली का विरोध करने वाले अभ्यार्थियों की आवाज को न केवल अनसुना कर दिया बल्कि बुरी तरह कुचल भी दिया। तमाम दूसरी परीक्षाओं एवं दस्तावेजों की भांति सिविल सेवा परीक्षा की सीसैट प्रणाली भी मूल प्रश्र पत्र अंग्रेजी में बनाकर हिन्दी में महज अव्यवहारिक एवं कृत्रिम अनुवाद भर ही किया गया। इस अनुवाद की प्रक्रिया में प्रचलन से बाहर के शब्दों का प्रयोग किया गया। जो पढ़ने में तो संस्कृतनिष्ट - तत्सम शब्द प्रतीत होते हैं। पर हकीकत में उनका प्रचलन में कहीं कोई प्रयोग नहीं होता है। इन अप्रचलित शब्दों ने ही अभ्यार्थियों को गुमराह किया। पर यह समस्या सिर्फ सी - सेट परीक्षा की नहीं। आप किसी भी सरकारी दस्तावेज को उठा ले और चौराहे पर ले जाकर पढ़ भर दे। फिर पता लगा ले कितने लोग इस सरकारी अनुवाद की हिन्दी को समझ पाते हैं। सच्चाई तो यह है कि जिस हिन्दी का विरोध हमारे तमिल तेलगू भाषी भाई करते हैं, वह सरकारी कृत्रिम, एसी कमरों में बैठकर गढ़ी गयी हिन्दी तथाकथित हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों की समझ से बाहर की है। युरोप और अमेरिका की सरकारों के सरकारी दस्तावेज मामूली से मामूली पढ़ा लिखा व्यक्ति समझ सकता है। पर भारत में स्थिति कुछ भिन्न है। अंग्रेजी तो है ही परदेशी पर उस अंग्रेजी के अनुवाद के अनुरुप गढ़ी गयी हिन्दी और भी अव्यवहारिक है। सीसैट आन्दोलन हकीकत में प्रचलन से बाहर की इस कृत्रिम हिन्दी अनुवाद के विरुद्ध ही आन्दोलन था। जिसे सरकार द्वारा अनिवार्य अंग्रेजी के प्रश्रों में छूट देकर इतिश्री करने की कोशिश की गई। अभ्यार्थी न तो कॉम्प्रिहेंशन के खिलाफ थे न रिजनिंग के। अभ्यार्थियों की मुख्य मांग तो मूल प्रश्रों को भारतीय भाषाओं में बनाए जाने की ही थी। जिसका सरकार ने न केवल अवहेलना की बल्कि आन्दोलन को गुमराह करने के लिए साम - दाम -दण्ड - भेद सभी उपायों का प्रयोग किया। अंत में पूर्ण अहिंसात्मक रुप से चलने वाले इस आन्दोलन को समाप्त करने के लिए न केवल दमनात्मक उपाय ही अपनाए अपितु आईएएस अभ्यार्थियों के गढ़ कहलाने वाले मुखर्जी नगर क्षेत्र में अघोषित कर्फ्यू की स्थिति भी पैदा कर दी। सरकार यहीं तक नहीं रुकी, उसने अभ्यार्थियों में भय पैदा करने हेतु निर्दोष अभ्यार्थियों पर पुलिस केस भी दर्ज किये।
संवैधानिक संस्था यूपीएससी, डीएसएसएसबी,राज्यों की पीसीएस एवं गैर संवैधानिक संस्था यूजीसी, आई.आई.टी., आई.आई.एम. आदि बैरिकेटिंग एजेंसी भर हैं जो इस सिस्टम को बनाए रखने का काम करती है। भारत में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं व्यवस्था बना दिया है। भारत के संविधान की धारा 348, 343 (1)& ( 2 ), 120,210, 351, 147 ने अंग्रेजी को व्यवस्था बना दिया है। अंग्रेजी की अनिवार्यता इस संविधान जनित व्यवस्था का ही परिणाम है। आने जाने वाली सरकारें ऑपरेटिंग एजेंसी के रुप में इस व्यवस्था का काम करती है। इसलिए भारतीय भाषा आंदोलन से जुडे अटल बिहारी बाजपेयी भी सत्ता में आने के बाद न केवल अंग्रेजीदां व्यवस्था के सामने घुटने टेके बल्कि यूपीएससी के बाहर चल रहे धरने को भी उखाड़ फेंका। यही हाल मोदी सरकार का है। एक तरफ मोदी देश से बाहर जाकर हिन्दी में भाषण देतेे हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार भारतीय भाषाओं में मूल प्रश्र पत्र बनाने की माँग को लेकर चल रहे सीसैट आन्दोलन का दमन करती है। जी हाँ,साथियों। इंग्लिश मीडियम सिर्फ स्कूल ही नहीं होते, इंग्लिश मीडियम अदालतें भी होती है। इंग्लिश मीडियम संसद के कानून भी होते हैं, पी.एम.ओ. समेत सम्पूर्ण नौकरशाही का ढाँचा इंग्लिश मीडियम ही है। और इन सबको पोसने एवं बचाए रखने का काम इंग्लिश मीडियम विश्वविद्यालय,एम्स, आई. आई.एस.,यु.पी.एस.पी.,डी.एस.एस.एस.बी. आदि संस्थान करते हैं। यही अल्पतांत्रिक इंग्लिश मीडियम सिस्टम भ्रष्टाचार, शोषण, गैरबराबरी की व्यवस्था पर साँस्कृतिक ठप्पा लगाता है। स्कूल, ओह। स्कूल तो बेचारे इसलिए इंग्लिश मीडियम खुलते है क्योंकि ये सभी संस्थाएं इंग्लिश मीडियम कल्चर को पैदा करती है। स्कूल व्यवस्था राजसत्ता की उपव्यवस्था है। स्कूली व्यवस्था की प्रकृति वैसी ही होगी, जैसी राजसत्ता की होगी। चूंकि राजसत्ता गैर बराबरी को बनाए रखने वाली इंग्लिश मीडियम वर्ग द्वारा पोषित है अत: स्कूली व्यवस्था भी बहुस्तरीय इंग्लिश मीडियम केन्द्रित है। जब तक राजव्यवस्था गैरबराबरी की इंग्लिश मीडियम प्रकृति की रहेगी तब तक स्कूली व्यवस्था भी  गैरबराबरी की इंग्लिश मीडियम प्रकृति रहेगी। जब तक राजसत्ता इंग्लिश मिडियम वर्ग के हाथ में रहेगी तब तक इंग्लिश मीडियम सिस्टम का शोषण, दमन और भ्रष्टाचार भी कायम रहेगा। इंग्लिश मीडियम शिक्षा व्यवस्था सामाजिक मीडियम स्तर का निर्धारण करने वाले के हथियार के रुप में इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था के प्रति वफादार लोगों को ही इंग्लिश मीडियम सिस्टम में स्थान देती है। इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था, इंग्लिश मीडियम शिक्षा के माध्यम से ही अपने आप को सुरक्षित रखने का घेरा तैयार करती है। इंग्लिश मीडियम एजुकेशन व्यवस्था के दास के रुप में देश की ग्रामीण, कस्बाई, निम्र एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को मुख्यधारा से दूर रख सत्ता के शीर्ष को उच्चवर्गीय एलीट क्लास के लिए आरक्षित रखता है। आईआईटी, एम्स,आईआईएम और तमाम अति विशिष्ट माने जाने वाले विश्वविद्यालय ये सभी के सभी संस्थान अंग्रेजीयत के सामाजिक वर्चस्व का सांस्कृतिक बोध पैदा करने का ही काम करते हैं। इन सभी संस्थाओं में पढ़ा व्यक्ति इस देश का कर्णधार बनेगा और मेरठ, गोरखपुर, सारण जैसे देहाती इलाकों के विश्वविद्यालय का विद्यार्थी चाय बेचेगा। आज अंग्रेजीदां बनने की चाह ने इस देश को अपने मोहपाश में इस कदर जकड़ रखा है कि समाज का हर तबका अपना सब कुछ दांव पर लगा कर अपनी भाषा का शुद्धिकरण की चाह रखता है। हरियाणवी, भोजपुरी, मैथिली, बांगड़ी, बोलने वाले बैकवर्ड कहलाएंगे और दो लाइन अंग्रेजी में गिट - पिटाए नहीं की मॉडर्न हो जाएंगे। अंग्रेजीदां बनकर हर कोई गिट - पिटाना चाहता है। पर भाषा परिवेश से हासिल होती है, न कि स्कूल कालेजों की पढ़ाई से। अत: अंग्रेजी के चक्कर में लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में दाखिला करा तो देते हैं, पर वे ज्ञान के नाम पर अंग्रेजीयत के गुलाम बनकर रह जाते हैं। अंग्रेजी के चक्कर में न तो अंग्रेजी ही आती है न कोई अन्य विषय ही। इस अंग्रेजी के चक्कर में हमारे बच्चे रट्टू तोते बन कर के रह गये हैं। पर वह अंग्रेजी ही है जो इस देश की 95 प्रतिशत ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्नमध्यमवर्गीय मेहनतकश तबके को व्यवस्था से दूर रखने का काम करती है। और साथ यह ज्ञान, पूंजी, नौकरशाही, राजनीति के शीर्ष को 3 प्रतिशत ऊपरी तबके तक  के लिए सुरक्षित भी रखती है। बस यहीं से भ्रष्टाचार, शोषण, गैरबराबरी, गड़बड़झाला शुरु होता है। अंग्रेजीयत ही भ्रष्टाचार, शोषण गैरबराबरी के सांस्कृतिकरण करने का काम करती है। अंग्रेजी को सिर्फ भाषा समझना उसकी ताकत को कम कर आंकना है। अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं भारतीय समाज में वर्चस्व का बोध भी है। भारत में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं, वर्गीयविभाजन को बनाए रखने का व्यवस्था - जनित साँस्कृतिक हथियार भी है।
विदेशी एवं परिवेश के बाहर की भाषा में डिग्री ही पैदा की जा सकती है, ज्ञान नहीं। जनभाषाओं में ही जन शिक्षा संभव है। औपचारिक शिक्षा (स्कूल कॉलेज से मिलने वाली) और अनौपचारिक शिक्षा (सामाजिक विचार विमर्श से पैदा होने वाला ज्ञान ) ही जन मानस को जागृत कर सकती है। अत: जनभाषाओं में ही ज्ञान पैदा होगा और वह जन ज्ञान ही जन जागृति लाएगा। जन जागृति के बिना कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता। जन जागृति ही क्रांति का आगाज़ है। जैसा कि भगत सिंह ने भी कहा था कि क्रांति की तलवार विचारों की शान पर ही तेज होती है और मौलिक ज्ञान और विचार तो स्व - भाषा में ही पैदा हो सकता है। एक विदेशी या परिवेश के बाहर की भाषा में हम रट तो सकते हैं, मौलिक एवं वैचारिक ज्ञान हासिल नहीं कर सकते। अत: त्वरित प्रभाव से :-
1 युपीएससी, एसएससी, डीएसएसएसबी, आईआईटी, आईआईएस समेत समस्त बेहतर माने जाने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों / विश्वविद्यालयों की परीक्षा एवं शिक्षण का माध्यम भारतीय जन - बोली भाषाएं ही हो तथा इन संस्थाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता पूर्णत: समाप्त हो।
2 सी - सैट का प्रश्र पत्र ही नहीं अपितु सभी परीक्षाओं के प्रश्र पत्र मूल रु प से भारतीय भाषाओं में ही छपे, उनका कृत्रिम अनुवाद होना बंद हो।
3 सभी स्तर की अदालतों में, न्याय जनता की बोली - भाषा में ही हो। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की कार्यवाही, फैसले एवं आदेश देश की अनिवार्य रुप से जनता की बोली - भाषाओं में ही हो।
4 संसद एवं विधानसभाओं में कानून मूल रुप में भारतीय भाषाओं में ही बने, भारतीय भाषाओं में महज उनका कृत्रिम अनुवाद भर न हो
mo - 09990210469 

नारी लेखन : कहने की जरूरत

प्रो. थानसिंह वर्मा 

हिन्दी साहित्य में महिला लेखन का सवाल दलित साहित्य या दलित विमर्श की तरह आज चर्चा में है। एक पक्ष यह मानता है कि साहित्य में महिला - पुरुष जैसा विभाजन संभव नहीं है। साहित्य आखिर साहित्य होता है। उसका संबंध उसके संवेदन अनुभव से है। दूसरा पक्ष यह मानता है कि स्त्री ही स्त्री के अनुभवों को ठीक - ठीक व्यक्त कर सकती है। ऐसा मानने वाले महिला लेखकों की एक लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करते हैं। वे उनके लेखन के मूल्यांकन के लिए एक अलग तरह की संवेदना की माँग करते हैं।
जब बात निकली है तो स्वाभाविक है कि लेखकों का ध्यान उस ओर जाये। इस बहस - मुबाहिसे में लेखिकाएं आगे हैं। ज्यादातर अपनी रचनाओं के मूल्यांकन के इस आधार को लेकर कि उन्हें महिला होने के कारण कव्हरेज मिल रहा है या महिला होने के कारण पाठकों के बीच लोकप्रियता प्राप्त हो रही है। या निरस्त किया जा रहा है तो महिला होने के कारण। महिला लेखकों में यह धारणा बनी हुई है। लेकिन स्थापित लेखक इसे एक सिरे से खारिज करती हैं। उनका यह मानना है कि साहित्य में महिला - पुरुष जैसा विभाजन उचित नहीं है। जब लेखक कलम उठाकर अपने लिखने का धर्म निभाता है तब वह केवल लेखक ही होता है। स्त्री - पुरुष के शरीर से परे, धर्म, समाज और परिवार से ऊपर उठ जाता है। [1] लेखन लेखन होता है, नर या मादा के खानों में बाँटकर देखने वाली दृष्टि पूर्वाग्रह ग्रस्त है। लेखन जिस तरह पुरुष लेखक की अनुभूति है और चेतना की अभिव्यक्ति है, स्त्री लेखक द्वारा लिखा गया लेखन [भी] उसके विशिष्ट अनुभवों और आत्म चेतना की अभिव्यक्ति है [2]
दरअसल ऐसे विभाजक रेखा खींचने का कार्य शोध कार्य के तहत किया जा रहा है। जिसके संदर्भ में मृदुला गर्ग का कहना है - हमें शोध से एतराज नहीं होना चाहिए, जो लेखन विशेष में नारी वादी दर्शन के विभिन्न बिन्दुओं की तहकीकात करें [3]
लेखन के क्षेत्र मे नारीवादी दृष्टि महिला लेखकों की ही है। हिन्दी साहित्य में पचास के पहले तक जो कुछ लिखा गया, उसमें नारी का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं होता। नारी का शोषण, उत्पीड़न, नारी की आशा - आकांक्षा अपनी सम्पूणर््ाता में व्यक्त नहीं होती। इसलिए उसे निकट से देखने - समझने वाली लेखिकाएं ही इसे व्यक्त कर सकती हैं। वे यह मानती हैं कि स्त्री अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होती, यहीं से उसकी परतंत्रता का आरंभ होता है। इसे पोषित करने वाले कई घटक हमारे समाज में हैं। परिवार, शैक्षिक संस्थाएं और मीडिया तथा अन्य संचार माध्यम आदि स्त्री संबंधी अपनी पारम्परिक मान्यता को ही बढ़ावा देते रहते हैं, तमाम प्रकार की प्रगतिशील दृष्टियों के बावजूद ये स्त्री को परोक्षत: कटघरे में ले आना चाहते हैं जिसे तोड़ना आसान नहीं है। लेखन - जहाँ तक जीवंत और सक्रिय रहती है वहाँ उसको सामयीकृत या सरलीकृत किया जाता है। [4] इसलिए नारी के शोषण, उसकी विवशता, पुरुष प्रधान समाज में उसकी स्थिति को व्यक्त करने के लिए अलग तरह के लेखन की माँग की जाने लगी है। पर इसमें भी उसकी कामकाजी, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक प्राणी के रुप में उसकी छवि कम अंकित हुई। स्त्री के सेक्सुअल शोषण का चित्रण अधिक हुआ, उसके आत्मबोध चिंतन व सामाजिक उपस्थिति का कम।
सत्तर के दशक से इस स्थिति में बदलाव आना शुरु हुआ। महिला लेखकों ने अपने उस छवि को तोड़कर समाज के मूल प्रश्रों से सामना करना शुरु किया। उनके लेखन में विविधता आना शुरु हुआ। जिसे महिला लेखन कहकर एक खांचे में कैद नहीं किया जा सकता। नासिरा शर्मा का सत घरवा जो साम्प्रदायिकता के घेरे को तोड़कर विशुद्ध मानवीय संबंधों पर केन्द्रित है। माँ के प्यार से हिलगा अब्दुल को अपराधी समझ कर गिरफ्तार कर लिया जाता है, बहु जी के कहने पर। इन्हें कौन समझाये कि इन बंगलों में भी अपराधी रहते हैं। [5] अब्दुल को कैफियत देने पर छोड़ तो दिया गया पर माँ से नहीं मिल पाने का दुख था - वह अपना घर जाना चाहता था पर अब कोई बस न थी, न ट्रेन का समय था और कल माँ का तीजा था। [6] अब्दुल पुन: उसी घर लौट जाता है।
चित्रा मुद्गल की कहानी है लपटें। इस कहानी में उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता को उभार कर किस तरह साम्प्रदायिकता की भावना पैदा की जाती है उसका उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपला मानुष, आमची मुंबई, आमची लोक सेना के नाम से जन भावना को क्षेत्रियता को उभार कर बरसों से रचे - बसे लोगों को बाहर कर देने या अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है। जब - तब भय दोहन किया जाता है। असुरक्षित प्रवासी कहीं प्रतिरक्षा में साम्प्रदायिक हो जाते हैं या भय वश उन्हीं की शरण में जाने के लिए विवश हो जाते हैं - इन्हीं के बीच रह कर जीना - मरना हुआ तो ब्याज दण्ड, हंसी - खुशी स्वीकार कर लेने में कैसी हिल - हुज्जत। [7]
चित्रा मुद्गल की कहानी बलि में सामंती शक्तियों की समाज में उपस्थिति, अंधविश्वास तथा उनके शोषण के क्रूरतम स्वरूप का चित्रण किया गया है। अपनी मंगली बेटी के विवाह के लिए गुइंयादीन जैसे गरीब के बेटे की बलि दे दी जाती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को अपनी पुत्री सोबरन सिंह जैसे नामी जमीदार के घर व्याहना था - पंडित विन्ध्येश्वरी शुक्ल लड़की को मंगली बताते हैं। इस संबंध को अशुभ, अमंगल बताते हैं। पर बहुत आग्रह करने पर उसकी काट भी बताते हैं कि पहले किसी किशोर से उसकी शादी कर दी जाय तो यह ग्रहदशा टल सकती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को युक्ति सूझ जाती है। वह गुइंयादीन को बुलाकर उनसे करूआ को मांगते हैं। बदले में अपने साग - सब्जी की फुलवारी उसके नाम कर देने की बात कहते हैं - विनोबा महराज स्वर्ग सिधार गए गुंइंयादीन मगर हम उनके भूदान यज्ञ के कट्टर अनुयायी ठहरे, देर से ही सही, हमने निश्चय किया कि बलुआ काछी पर बटाई में उठी साग - सब्जी की फुलवारी का पट्टा ... हम तुम्हारे नाम कर देंगे। [8] और दूसरे दिन पता चला गंगा पार करते समय भैंसी के पीठ में चढ़ि के बैठा करूआ संभले - न - संभले रपट के धार में बह गया। [9]
जया जादवानी की कहानी शाम की धूप में देश के विभाजन से प्रभावित विस्थापित एक सिन्धी परिवार की कहानी है। अपने वतन को त्यागकर, सब छोड़कर जान बचाकर आने वाले इन लोगों में गजब की जिजीविषा है। वे कभी जीवन संघर्ष में हार नहीं मानते। जहां भी बसे वहीं अपनी मेहनत, लगन से उठ खड़े हुए। पर पराजित हुए तो अपनों से। लाखों की प्रापर्टी बनाने वाला सेठ दो जून की रोटी के लए तरसता है। अपनी पत्नी से कहता है - क्या तुम सोच सकती हो, जिस आदमी ने लाखों की प्रापर्टी बनाई, वह दो जून के लिए महंगा है। जिन्हें मैं हर पीर - फकीर से झोली फैलाकर माँगा, इनके साथ भी यही होगा। [10] कारखाने का मालिक बुढ़ापे में सायकल सुधारने वाले हम उम्र राजू से कहता है - राजू मुझे कोई काम मिल सकता है ?[11] उसे लगता है सुबह जो भुलावा देती है, शाम उसे आहिस्ता से वापस ले लेती है। [12]
नासिरा शर्मा की कहानी वही पुराना झूठ फर्ज अदा करने के नाम पर लड़कियों को जिस - तिस के पल्ले बांध देने के खिलाफ है। $गफूर की माँ कहती है - हमने गाँठ बांध ली कि आँख मंूद करके लड़कियाँ ब्याहने वालों की हमें तरफदारी नहीं करनी है। अगर शादी बेहतर जगह नहीं होती है तो न हो, कम से कम एक बार मिली जिंदगी को वह जी तो सकती है। [13] उसके पुत्र $गफूर ने यह कसम खाई थी कि वह हर मुसीबतज़दा औरत की मदद करेगा।
अपने कर्तव्य से मुक्त होने के लिए रज्जो बी जाहिदा का हाथ जिस किसी से पीले कर देना चाहती है। वह मालदार बूढ़े अंधे से उसे बांध देना चाहती है पर जाहिदा हाथ छुड़ाकर कलकत्ते की भीड़ में खो जाती है। रज्जो बी अपने मुहल्ले के लोगों को बताने के लिए झूठ का सहारा लेती है। वह सपने में देखती है कि जाहिदा सरौता चलाती उन लड़कियों के बीच पहुंच गई है जिन्हें गफूर ने संरक्षण दिया है और स्वयं को तसल्ली देती है।
महिला कथाकारों की कहानियों में जहाँ एक ओर मध्यम वर्गीय समाज में शिक्षित, नौकरी पेशा स्त्रियों के अधिकारों के प्रति सजगता आई है तो अपने आस - पास गुजर करने वाली महरियों, चौका बासन या मजदूरी करने वाली महिलाओं तथा बच्चों के प्रति भी असीम करूणा दिखाई देती है। शुभदा मिश्रा की कहानी या जसुमति को दुख, मंजुल भगत की काली लड़की का करतब इसी तरह की कहानी है। जहां भूख, गरीबी सामान्य जन की संवेदना को खत्म कर देती है। जीने के लिए अपने बेटे - बेटियों को या तो गिरवी रख देना पड़ता है या उनका सहारा लेना पड़ता है।
काली लड़की का करतब में लेखिका ने लिखा है - संसार और समाज में पहला कदम धरने से पहले औरत को उसके औरत होने का एहसास करा दिया जाता है। [14] भूख से तड़पती लड़की माता - पिता का पेट भरने करतब दिखाते पट्ट हो जाती है।
महारानी एक बार किसना के हवस का शिकार हो गई है। अबोध महारानी अपने पिता से भी डरती है। करतब करते लड़की को भूख से मरते देख वह सीख लेती है। अपने बापू से कहती है - बापू, मैं साया सुथनी पहनूंगी। मैं सामने वाली बीबी के घर झाड़ू पोंछा करूंगी। [15] भुंईयां को लगा वह निपट अकेला नहीं है।
लवलीन की कहानी बहुस्याम तथा लता शर्मा की मर्दाना कमजोरी पहली नजर में स्त्रीवादी कहानी लगती है। पर ये दोनों कहानियाँ - गंभीर यथार्थवादी तथा समाजशास्त्रीय आलोचकीय दृष्टि की मांग करती है। जब वह कहती है - तुषार जी, यह स्त्रियों की सहज आकांक्षाएं हैं जो सिर्फ हमारे औरत होने के कारण, सामाजिक स्थितियों की जड़ता के कारण भूलभूत मानवीय सदिच्छा न होकर अश्लील लालसायें बता दी जाती है। औरतों के लिए सेक्स फार द सेक ऑफ सेक्स कभी नहीं होता। [16] नवलीन पुरुष प्रधान, समाज के उत्पीड़न से बचने के लिए सिस्टरहुड एकजुटता का आव्हान करती है। वे नई पीढ़ी में एक ओर परपीड़क समाज के बहिष्कार की बात करती है तो दूसरी ओर नई पीढ़ी में आत्म विश्वास भर देना चाहती है। उनका मानना है कि पीड़ित को ही उठ कर खड़ा होना होगा। वह पुरूष विरोधी नहीं है। वे कहती हंै - हमें समान समझ वाले स्त्री - पुरूषों से मित्रता कर अपने - अपने लिए निजी समाज बनाना चाहिए जो इस उत्पीड़क बाहरी समाज का विकल्प बन सके। [17]
लता शर्मा की कहानी मर्दाना कमजोरी, सचमुच मर्दाना कमजोरी को व्यक्त करती है। छै चित्रकारों के चित्रों के माध्यम से अपने शोधार्थी पुरूष मित्रों व गुरुता  के गंभीर गर्त में डूबे निर्देशक की नियत को व्यक्त करती है। यह कहानी एक बड़े सच को उकेरती है। जहाँ एक स्त्री को उनके सहकर्मी उठते - बैठते उनके स्त्री होने का अहसास कराते हैं। लेकिन एक स्त्री जब मर्दाना कमजोरी बन जाती है तो वह उन सभी को ध्वस्त करती है। मुस्कुराती मोनालिसा का राज यही है। विकृति या दुर्बलता, जो कुछ भी है,कानों के बीच में है। टांगों के बीच नहीं। उसी तथ्य को रेखांकित करती है मोनालिसा। [18]
इस तरह हिन्दी में महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित अनेक कहानियाँ है, जिसे महज महिला लेखन कहकर टाले नहीं जा सकते हैं। महिला लेखिकाओं में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की कमी जरुर दिखाई देती है। नमिता सिंह, कात्यायनी, नासिरा शर्मा जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दे तो यह स्थिति वर्तमान है। फिर भी इन कहानियों में समय की सच्चाईयां तो है, जो अपने अनुभव की आँच से हर पाठक को तपायेगी व पाठक की दृष्टि को यथार्थ की खुरदरी जमीन तक ले जाने में समर्थ होगी। अब इसे महिला पुरुष के अलग - अलग खाँचे में डालकर देखने की आवश्यकता नहीं है।
जो रचना अपने समय के सच को अपनी सम्पूर्णता में व्यक्त करती है उसे स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ
[1]इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - 96 पृ. 26
[2] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - 96 पृ. 21
[3]इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 -  96 पृ. 25
[4]शिखा बेहरा - समकालीन हिन्दी कविता में नारी स्वातंत्र्य -
पृष्ट 26, शोध पत्रिका राष्ट्रीय संगोष्ठी दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव
[5] इंडया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 134
[6] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 134
[7] उद्भावना - कहानी महाविशेषांक अंक 39, 40, जनवरी 1996 पृ. 21
[8] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 91
[9] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 91
[10] अर्धशती विशेषांक हंस - 1997 पृ. 34
[11] अर्धशती विशेषांक हंस - 1997 पृ. 35
[12] अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य हंस 2000 पृ. 60
[13] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 पृ. 72
[14] अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य - खण्ड - 1
[15] हंस फरवरी - 2002,पृ. 94 , 95
[16] हंस फरवरी - 2002 पृ. 78
[17] हंस फरवरी - 2002 पृ. 78

पता :- 
शांतिनगर, गली नं. 2
राजनांदगांव (छ.ग.)
मोबाईल : 9406272857

बलात्‍कार का समाजशास्‍त्र

डा. मोहन आर्य 

दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुआ जनाक्रोश, वर्मा कमेटी की प्रशंसनीय सिफारिशें, उनके क्रियान्वयन वाले अध्यादेश के बारे में हुई बहसें, बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड और उनके बधियाकरण की मांग आदि बातें बलात्कार और यौन उत्पीड़न के विषय में जायज भावुक अतिरेक के इतर जाकर समस्या को और गहरे समझने की मांग करती है। कठोर कानून की मांग महिलाओं की समुचित सुरक्षा व्यवस्था की मांग आदि बेहदजरूरी मांग जनसमूहों द्वारा उठाई जा रही हैं। कुछ समझदार व्यक्ति और समूह महिलाओं को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। कठोर कानून, यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों में त्वरित और समयबद्ध प्रक्रिया की व्यवस्था महिलाओं की समुचित सुरक्षा की व्यवस्था आदि उपाय अत्यावश्यकीय होते हुए भी फौरी कार्यवाहियां ही हैं।
समाज की मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज का निर्माण ही मुख्य मुद्दा है। परंतु ये होगा कैसे? मानसिकता में बदलाव शून्य में नहीं हो सकता और नहीं बलात्कार की घटनाओं से पैदा हुई भावुकतापूर्ण सहानुभूति ही समाज की मानसिकता में बदलाव की ठोस बुनियाद हो सकती है। क्योंकि ये सहानुभूति उस विस्तृत और शक्तिशाली पितृसत्तात्मक ढांचे और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसके चलते पुरूष मानसिकता पैदा होती है। दरअसल यौन हिंसा और बलात्कार तो पितृसत्तात्मकता और अन्य वर्चस्वशाली ताकतवर व्यवस्थाओं के चलते पुरूषों द्वारा महिलाओं पर किए जाने वाले अनगिनत अत्याचारों में से केवल एक है। बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है।
अशान्त क्षेत्रों में सशस्त्रबलों द्वारा किए गए जाने वाले बलात्कारों, दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ दबंगों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, में पित्रसत्तात्मकता के साथ वर्चस्व की अन्य श्रेणियां मसलन नस्लीय घृणा, जाति व्यवस्था, संप्रभु का राजनीतिक वर्चस्व आदि भी गुंथे हुए दिखाई देते हैं। उपर्युक्त किस्म के बलात्कारों के साथ ही सांप्रदायिक दंगों के समय बड़े पैमाने पर होने वाले बलात्कार, विरोधी समुदाय को सबक सिखाने के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इसके अलावा यौन उत्पीड़न और बलात्कार के कई मामलों में महिलाओं के परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ौसियों का शामिल होना दिखाता है अन्यथा सामान्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आचरण है। जो अपने संस्थागत वर्चस्व के चलते मौके का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं बलात्कार को उसके सही रूप में पितृसत्तात्मकता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है।
बलात्कार दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की पैदाइश है 
यूँ तो मानव समाज में पाए जाने वाले तमाम अपराध जैसे चोरी, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार आदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में गलत सामाजिक व्यवस्था और दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों के ही परिणाम हैं परंतु यौन हिंसा या बलात्कार अन्य किसी भी अपराध या प्रवृत्ति से आधारभूत रूप में भिन्न है। जहां अन्य अपराध या प्रवृत्तियां प्रकृति में मनुष्येत्तर प्राणियों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रियांओं के रूप में बेहद स्वनियंत्रित स्वरूप में मौजूद रहते हैं और प्राणियों के अस्तित्व और जीवन संघर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाई देते हैं वहीं बलात्कार सामान्यतया किसी भी मनुष्येत्तर प्राणिजाति में नहीं पाया जाता है। कुछ नगण्य अपवादों को छोड़ते हुए बहुत ही सामान्य प्रेक्षणों और प्रकृति विज्ञान की सामान्य समझ के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठाया जा सकता है कि बलात्कार केवल मनुष्य समाज में पाया जाने वाला घोर अप्राकृतिक अपराध है और आत्महत्या (जिसे अपराध की श्रेणी से हटाया ही जाना चाहिए) के अलावा एक मात्र ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई प्राकृतिक जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता है।
यहां कई लोग तर्क दे सकते हैं कि बलात्कार पुरूषों की अनियंत्रित यौनइच्छा का परिणाम है जो कि विशुद्ध नैसर्गिक और प्राकृतिक कारणों से है और इसी तर्क की बुनियाद पर बलात्कार को रोकने के लिए कुछ बेहद गैरजिम्मेदाराना सुझाव दिए जाते हैं, मसलन वैश्यावृत्ति को वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता देना और किशोरावस्था के तुरंत बाद ही अथवा किशोरावस्था में ही विवाह करा के सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध कराना। परंतु ऐसा कतई नहीं है जिन देशों में वैश्यावृत्ति वैध है वहां बलात्कार की घटनाएं नहीं होती हैं या फिर विवाहित पुरूष बलात्कार में शामिल नहीं होते हैं। विवाह या वैश्यावृत्ति द्वारा सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध होने पर भी पुरूष बलात्कारी होता है। अमूमन होता भी है। देखा गया है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें लिप्त पुरूष विवाहित होते हैं। विवाह संस्था के भीतर होने वाले यौन शोषण को शामिल कर लें (जैसा कि वाजिब रूप में वर्मा समिति की सिफारिश है) तो विवाहित पुरूषों का बहुत बड़ा हिस्सा यौन हिंसा में लिप्त पाया जाएगा।
अतः वैश्यावृत्ति को वैधता प्रदान करना और जल्दी विवाह जैसे उपाय बलात्कार और यौन उत्पीड़न को रोकने में असफल तो होंगे ही साथ ही ये उस वर्चस्वशाली व्यवस्था को और मजबूत बनाएंगे जिससे पुरूष को बलात्कार करने का औचित्य और साहस मिलता है। क्यूंकि जल्दी विवाह और वैश्यावृत्ति दोनों से ही स्त्री की पुरूष पर निर्भरता अधिक स्थाई होती है।
पुनः लौटते हैं बलात्कार के कारण के रूप में पुरूषों की अनियंत्रित यौनेच्छा की ओर। यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि यौनेच्छा तो प्रकृति के विस्तार का आधार है। जो कि अनियंत्रित रूप में मनुष्येत्तर प्राणियों में भी पाई ही जाती है। परंतु प्रकृति में यौनेच्छा नर और मादा की संयुक्त यौनेच्छा और सामान्य सहवास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यदि नर या मादा में से किसी एक की यौनेच्छा नहीं है तो प्रकृति में सहवास या इस स्थिति में कहें तो बलात्कार हो ही नहीं सकता। साथ ही प्राकृतिक चयन और जैवविकास की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते प्रकृति में मादा को नर के चयन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है। अर्थात प्रकृति में मादा के सहवास के लिए तैयार ना होने पर सामान्य सहवास हो ही नहीं सकता। और मादा के सहवास के लिए तैयार होने पर भी अपने लिए उपयुक्त साथी के चयन का अंतिम अधिकार भी मादा के पास होता है। नर केवल शारिरिक बल के आधार पर ऐसी मादा से सहवास नहीं कर सकता जिसकी उस समय यौनेच्छा ना हो और यौनेच्छा हो भी (जैसा कि मदकाल में होता है) तो नर को अन्य नरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके मादा के वैयक्तिक चयन (जो कि वास्तव में प्रजाति की जैवविकासीय प्रवृत्ति ही है) के पैमानों पर खरा उतरना होता है। (ऐसा प्रकृति में शुक्राणुओं और अंडाणुओं की संख्या के बीच भारी अंतर के कारण होता है) इसके उपरांत ही यौनेच्छा अपने स्वाभाविक परिणाम अर्थात सहवास तदोपरांत संतानोत्पत्ति तक पहुंच पाती है।
अब यहां तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य ने अपने यौन व्यवहार को मनुष्येत्तर प्राणियों की तुलना में काफी विकसित किया है। और इसे संतानोत्पत्ति तक सीमित नहीं रखा है। साथ ही मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा प्रकृति के अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है। (हांलाकि ऐसा कुछ अन्य प्राणी जातियों में भी होता है।) जहां तक यौनव्यवहार को संतानोत्पत्ति तक सीमित ना रखने वाली बात है तो प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यौन व्यवहार को उसके कर्ता या माध्यम द्वारा अपने लिए किस रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है भले ही यौन व्यवहार मात्र-मात्र यौन आनंद के लिए किया उसके मूलभूत उद्देश्य और परिणाम की प्राकृतिकता का जैव वैज्ञानिक स्वरूप अपरिवर्तित रहता है, तो यह एक सामाजिक परिघटना है कि बलात्कार में यौन व्यवहार में वर्चस्व के एक औजार के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है और यौन परिपक्वता के बाद महिलाएं जैव-वैज्ञानिक तौर पर किसी भी समय सामान्य शारिरिक संबंधों के लिए तैयार रहती हैं परंतु एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य का यौन व्यवहार हारमोनल के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी है। और इसीलिए मनुष्य के शारिरिक विषय में जैववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर ही महिलाओं के साथी के चयन का विशेषाधिकार समाप्त नहीं हो जाता है। और जटिल मानव समाज में महिला की सहमति ही इस चयनके विशेषाधिकार का मानवोचित रूप है। ऊपर की सारी कवायद का मेरा उद्देश्य यही दिखाना है कि बलात्कार प्राकृतिक जगत में ना पाई जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं। इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक जगत की सबसे अप्राकृतिक प्रवृत्ति की शिकार है और इस प्रवृत्ति को पाशविक कहना पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस तरह बलात्कार सभ्यता का संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरूषों द्वारा किए जाते हैं। इसके लिए क्यों संपूर्ण मानव समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए। दरअसल बलात्कार अपनी अप्राकृतिकता के कारण उतना घृणित नहीं है जितना कि सामाजिक उत्पत्ति और सामजिक परिणामों के कारण। इस बात को और समझने के लिए हम अनियंत्रित यौनेच्छा के तर्क की ओर पुनः लौटते हैं। अनियंत्रित यौनेच्छा तो महिलाओं की भी हो सकती है। क्या होगा यदि आनियंत्रित यौनेच्छा के वशीभूत होकर कोई महिला किसी असहाय पुरूष के साथ जबरन यौन संबंध बनाए। इस कृत्य का कोई सामाजिक कारण नहीं होगा परंतु इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे और पुरूष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? हो सकता है पुरूष इसे अपने वैयक्तिक चयन के अधिकार का अतिक्रमण मानकर अप्रसन्नता प्रदर्शित करे और शारिरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आहत भी हो। परंतु इस कृत्य के सामाजिक परिणामों की ओर गौर कीजिए, पुरूष अधिक से अधिक कुछ छोटे अंतराल तक उपहास का पात्र बन सकता है। हो सकता है उसे खुशनसीब का दर्जा भी दिया जाय। इस घटना के कोई मनोवैज्ञानिक और शारिरिक दुष्परिणाम हो भी तो इसके दूरगामी सामाजिक परिणाम उस पुरूष के प्रतिकूल नहीं होंगे। परंतु जब बलात्कार महिला के साथ किया जाता है तो यह बलात्कार के रूप में पुरूषों द्वारा महिला के सहमति के अधिकार का अतिक्रमण उन्हें शारिरिक या मनोवैज्ञानिक रूप से चोट पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बलात्कार का वीभत्स रूप तो महिला के लिए बलात्कार के बाद सामने आता है और सारी उम्र उस महिला के जीवन पर छाया रहता है। शील भंग की दकियानूसी और घटिया सामाजिक अवधारणा महिला के सामाजिक जीवन को नष्ट कर देती है। बलात्कार की शिकार महिला के विवाह में कई दिक्कतें आती हैं अथवा विवाहित महिलाओं को कई बाद उनके पतियों द्वारा त्याग दिया जाता है। वो महिला किसी भी सामाजिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है। बलात्कार की शिकार स्वयं होने के बावजूद वो एक किस्म के अपराधबोध या हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। और उसे हमेशा अपनी पहचान छिपाकर रखनी पड़ती है। उसके सामान्य सामाजिक जीवन जीने की संभावना न के बराबर है इसलिए सूर्यनेल्ली प्रकरण में यौन हिंसा की शिकार द्वारा यह कहा गया कि दिल्ली में वीभत्स बलात्कार कांड की शिकार छात्रा की मौत होना उस छात्रा के लिए अच्छा ही हुआ। इस सबके कारण मनोवैज्ञानिक और शारिरिक न होकर मूलरूप में सामाजिक हैं।
स्त्री के द्वारा पुरूष के बलात्कार और पुरूष के द्वारा स्त्री के बलात्कार के सामाजिक परिणाम एक दूसरे से बहुत ही अलग हैं। इस तरह लिंग निर्धारण के समय का प्राकृतिक संयोग महिला के लिए एक सामाजिक दुर्घटना बनकर रह जाता है। चूंकि प्राकृतिक जगत में किसी खास लिंग का होना किसी दुर्घटना का कारण नहीं होता है इसी रूप में मनुष्य सभ्यता पशुओं से बदतर है। साथ ही महिलाओं द्वारा पुरूषों पर बलात्कार के नगण्य मामले ही प्रकाश में आए हैं। तो अनियंत्रित यौनेच्छा का तर्क पुनः खारिज होता है। अब यदि कोई प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं है और समाज में है तो इसके कारण प्राकृतिक से अधिक सामाजिक होने चाहिए। बलात्कार करते समय पुरूष की मस्कुलैनिटी ही निर्णायक कारक दिखती है। परंतु इस शारीरिक बल के पीछे निश्चित रूप से वे संस्थागत् बल कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो कि हमारे समय में पुरूषों को प्राप्त है।
हमारी सभ्यता, मूल्य, संस्कृति हर तरह से पुरूषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं। जब मैं हमारी सभ्यता मूल्य या संस्कृति का जिक्र करता हूं तो इसका तात्पर्य केवल भारतीय सभ्यता या संस्कृति से नहीं है यह सर्वलौकिक मानवीय सभ्यता का सामान्य अनुभव है। अब यह तर्क दिया जा सकता है कि लगभग सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में बलात्कार को गलत माना गया है और इसके उपचार के लिए कई नैतिक नियम और सजाएं भी तय की गई हैं। परंतु जैसा कि पहले कहा गया है कि बलात्कार को पितृसत्ता और वर्चस्व की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करके एक अकेली घटना के रूप में नहीं समझा जा सकता है। यह सांस्कृतिक ढांचा जो कि तथकथित नैतिक नियमों और सजाओं/बहिष्कारों आदि के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है उस भौतिक ढांचे की बिल्कुल अनदेखी करता है या यह कहें कि जानबूझकर उसे बनाए रखता है जिसपर स्त्री और पुरूष के संबंध और समाज में उनकी स्थिति निर्धारित होती हैं। समाज के भौतिक सामातिक संबंधों में स्त्री के दोयम दर्जे की हैसियत को बनाए रखते हुए यदि उसकी सुरक्षा के तथाकथित नैतिक नियम बनाए जाएंगे तो ये नियम असफल ही हो जाएंगे भले ही कितनी भी कठिन सजाओं का प्रावधान किया जाय। और इस तरह के नियमों का खामियाजा स्त्रियों को ही अधिक भुकतना पड़ता है। सभी जानते हैं कि बलात्कार होने पर सबसे पहले महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन पर ही लक्ष्मण रेखाएं लाघने का आरोप लगाया जाता है। समाज में स्त्री पुरूष की स्थिति के विषय में हमारा सांस्कृतिक ढांचा गलत बुनियाद पर खड़ा है। और कुछ मातृसत्तात्मक और आदिम संस्कृतियों को छोड़कर ऐसा सभी संस्कृतियों में हुआ है। चूंकि वह भौतिक बुनियाद ही स्त्री विरोधी है जिस पर सांस्कृतिक ढांचा टिका है इसीलिए यह सांस्कृतिक ढांचा भी स्त्री विरोधी है। अब समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरूष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब सम्पदा कम थी तो सम्पत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था। साथ ही मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि सम्पत्ति गोत्र के भीतर ही रहें स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी।
एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथ बच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवतः बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरूष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाईयों और बहिनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरूष का दर्जा महत्वपूर्ण हुआ पुरूष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरूष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे। इस तरह पैत्रक वंशानुक्रम और पैत्रक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रैडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में माक्र्स लिखते हैं, ‘‘मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोड़ने के लिए परंपरा में खोट निकालता है।’’
एंगेल्स आगे लिखते हैं, मातृसत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरूष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरूष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों में नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा। पर वह दूर नहीं हुई।’’
इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पित्रसत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। इसी भौतिक आधार पर वह मूल्य प्रणाली पैदा होती है जिसके कारण पुरूष स्त्री के शरीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है और स्त्री से बिना शर्त समर्पण की उम्मींद करता है। इसने स्त्री को असहाय बनाकर रख दिया है। यह पित्रसत्तात्मक वर्चस्व अकेले या अन्य वर्चस्वशाली संस्थाओं के साथ मिलकर स्त्री के यौन संबंधों में सहमति के अधिकार को समाप्त करता है।
धर्म, व्यक्तिगत नैतिकता, पूंजीवादी राज्य और कानून की नाकामी
यद्यपि हम धर्म एवं सांस्कृतिक ढांचे की बलात्कार को रोकने के संबंध में नाकामी की चर्चा कर चुके हैं। परंतु समाज में धर्म के व्यापक प्रभाव और मूल्य प्रणाली के निर्माण में इसकी भूमिका को देखते हुए यह विस्तृत जांच की मांग करता है। धर्म अपने दार्शनिक और आद्यात्मिक स्वरूप में जहां विश्व की समस्याओं का समाधान उन समस्याओं के भौतिक मूल की अनदेखी करके प्रस्तुत करता है वहीं अपने सामाजिक स्वरूप में धर्म ना केवल यथास्थितिवाद का पोषक है बल्कि स्वयं भी एक शोषक वर्चस्वशाली ढांचा तैयार करता है। धर्म एक तरफ तो अनुयायियों को व्यक्तिगत् नैतिकता की सतही अवधारणा देता है जिसे वह बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने का माध्यम मानता है। वहीं दूसरी ओर व्यापक संहिंताएं तैयार कर स्त्रियों की परतंत्रता को सुनिश्चित करता है। और इन संहिताओं का प्रभाव निश्चित तौर पर धर्म की नैतिकता की अव्यवहारिक मांग से अधिक पड़ता है।
साथ ही धर्म कई बार स्त्रियों की अधीनता का इस्तेमाल समाज में वर्चस्व के अन्य ढांचों को बनाए रखने के लिए करता है। धर्म की स्त्रियों के विषय में दी गई व्यवस्थाओं और उनके कार्यात्मक अनुभवों से स्पष्ट है कि धर्म हमेशा से स्त्री विरोधी रहा है। यहां पर आदिम तथा मातृसत्तात्मक समाजों की धार्मिक रीति रिवाज, टोटमवाद इत्यादि की बात नहीं की जा रही है परन् धर्म के बहुराष्ट्रीय व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है। हिंदू धर्म को ही लें तो इसकी तमाम समाजिक संहिंताएं स्त्री विरोधी हैं। मनुस्मृति शूद्रों की गुलामी के साथ साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। चूंकि ब्राह्मणवाद की तथाकथित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों को गुलाम बनाए रखना आवश्यक था। 
डा0 अंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक 5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरूष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। साथ ही मनु ने विधुर पुरूष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरूष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरूष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरूष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री ना मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरूषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति 2-213)। स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे यौनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्यु पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र ना रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही सुंदर हो या असुंदर पुरूष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं।
हिंदु धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदु धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पित्रसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी है। अन्य धर्मों की स्थिति भी इस संदर्भ में अच्छी नहीं है। इस्लाम में स्त्री को स्वाभाविक तौर पर ही पुरूष के संरक्षण में रहने योग्य माना गया है- ‘पुरूष महिलाओं के पोषक और संरक्षक हैं उन विशिष्टताओं के आधार पर जो ईश्वर ने एक व्यक्ति को दूसरे पर दी हैं।’ (कुरान 4/34 संदर्भ इस्लाम सिद्वांत और स्वरूप, जफर रज़ा)
ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट शाखा में पूंजीवादी प्रभाव के तौर पर स्त्रियों के संदर्भ में कुछ खुलापन अवश्य नज़र आता है। परंतु इसकी वही सीमाएं हैं जो पूंजीवादी समाज की सीमाएं हैं। इस पर अलग से चर्चा की जाएगी। ईसाई धर्म की कैथोलिक शाखा में कौमार्य की अवधारणा पर विशेष जोर दिया गया है। इतिहास है कि कैथोलिक शाखा के मठाधीशों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वतंत्र विचार वाली स्त्रियों को मृत्युदंड समेत कठोर सजाएं दी गई। बौद्ध धर्म पर अवश्य ही सिद्धांत के तौर पर स्त्री और पुरूष के भेद का निषेध किया गया है। कई स्थानों पर बुद्ध ने स्वयं कहा है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरूष का कोई भेद नहीं है और वे स्त्रियों की अपेक्षा किसी भी तरह से पुरूषों को विशेष नहीं मानते (अंगुत्तर निकाय 8:2:2:11)। एक स्थान पर बुद्ध कहते हैं पुत्री, पुत्र से अधिक योग्य हो सकती है (संयुत्त निकाय)। परंतु साथ ही बुद्ध स्त्री और पुरूष की सामाजिक हैसियत के भौतिक आधार को परिवर्तित करने के प्रति सचेत नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए वे कन्याओं को यह उपदेश देते हैं कि उन्हें पति से पहले सोकर उठने वाली और पति के बाद में सोने वाली होना चाहिए और काम करने वाली और चीजों को व्यवस्थित करने वाली होना चाहिए। (उग्ग्ह सुतंत अंगुत्तर निकाय)
इस तरह चूंकि सभी धर्म (बौद्ध धर्म कुछ सीमा तक) स्त्री को पुरूषों से निम्न और प्राकृतिक तौर पर निर्भर मानते हैं अतः धर्म और उसके नैतिक नियमों का सांस्कृतिक ढांचा कभी भी पुरूष वर्चस्व के खिलाफ नहीं जाएगा। इसलिए धर्म बलात्कार को रोकने के लिए तो कुछ नहीं कर सकता साथ ही यौन नैतिकता के इसके नियम किस तरह स्त्रियों के ही खिलाफ जाते हैं इसकी चर्चा हम कर चुके हैं।
पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता: स्त्री बनाम आधुनिकता
राज्य कानून के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रया स करजा है परंतु इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण है राज्य कम से कम पूंजीवादी राज्य पितृसत्तात्मकता और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। परंतु हां पूंजीवादी समाज व्यवस्था में सामंती जकड़ के ढीले होने से स्त्रियों के प्रति नजरिए में कुछ हद तक बदलाव जरूर आता है। पूंजीपादी राज्य और कानून पुरूष वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाता तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि पूंजीवादी राज्य को अपने कृत्य काफी सीमित रखने होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं तक पूंजीवादी राज्य की पहुंच उसके अपने अंतर्निहित चरित्र के कारण गलत सामाजिक संबंधों के उन्मूलन की हद तक होती ही नहीं है। साथ ही यदि कुछ सुधारात्मक कानून लाए भी जाएं तो उनका व्यापक विरोध भी होता है। याद करें हिंदु समाज में स्त्री पुरूष समानता के लिए अंबेडकर द्वारा किए गए हिंदु कोड बिल का क्या हश्र हुआ था। और किसी तरह कानून ले भी आया जाए जैसा कि हिंदु कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में लाकर किया गया तो उसे लागू करने के क्या औजार राज्य के पास हैं। 
राज्य अपने आप को कानून बनाने तक सीमित रखता है। कानूनों से जुड़ा कोई वाद न्यायालय के समक्ष आने पर ही कानून लागू होता है। स्त्री को उत्तराधिकार दिलाने के लिए राज्य कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं चलाता क्योंकि यह राज्य की प्राथमिकता में ही नहीं है। साथ ही समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से अधिक और कई मायनों मंे अधिक ताकतवर हैं। अतः कानून बनाने की कवायद औपचारिकता मात्र रह जाती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। पूंजीवादी राज्य विधि के स्रोत के रूप में परंपरा को स्वीकार करता है। इसी आधार पर कई समुदायों के पर्सलन लाॅ, विवाह व्यवस्था, तलाक आदि के प्रावधानों को राज्य स्वीकारता है। इन व्यवस्थाओं में स्त्री की स्थिति प्रथम दृष्टया ही दोयम दर्जे की होती है। उस समुदाय विशेष की स्त्री के उन व्यवस्थाओं से शोषण को रोकने के लिए राज्य कुछ नहीं करता है। राज्य की एजेंट अर्थात सरकार किसी बड़े समुदाय की नाराजगी झेलने के लिए किसी राजनैतिक कारणों से तैयार नहीं रहती है और सामान्यतया उदासीन और कभी कभी तो प्रतिक्रियावादी भूमिका में नजर आती है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी की सरकार ने जो कृत्य किया उसे आजादी के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकरों पर राज्य द्वारा किया गया सबसे बड़ा कुठाराघात माना जाना चाहिए।
समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कितनी ताकतवर हैं इसका उदाहरण हरियाणा सरकार की खाप पंचायतों की असंवैधानिक अधिकारिता के सामने घुटने टेकने से जाहिर होता है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी होगी जैसा कि उपर्युक्त मामले में दिखाई देता है तो राज्य भी पंगु हो जाता है। पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता का सबसे बड़ा कारण है स्त्री पुरूष संबंधों की उस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के प्रति उसकी अंतर्निहित अनिच्छा जिसके विषय में फ्रेड्रिक एंगेल्स के विचारों की हम चर्चा कर चुके हैं। पूंजीवादी कानून उत्तराधिकार की पित्रसत्तात्मकता को नष्ट नहीं करता बल्कि उसमें स्त्रियों को भी विधि के माध्यम से हिस्सा दिलाने का प्रयास करता है। (यह स्थिति भी केवल वास्तविक पूंजीवादी देशों में ही है।) चूंकि पुरूषों का सामाजिक वर्चस्व कायम रहता है इसलिए यह कवायद कभी अंजाम तक नहीं पहुंच पाती।
अक्सर कहा जाता है कि जैसे जैसे आधुनिकता शिक्षा और तकनीक का प्रसार होगा स्त्री की स्वतंत्रता भी बढ़ती जाएगी। परंतु इस आधुनिकता की वही अंतर्निहित सीमाएं हैं जो कि पूंजीवादी समाज की हैं। आधुनिकता की एक अन्य समस्या स्त्रियों के विषय में इसका विकृत दृष्टिकोण भी है। सामंती समाज यदि स्त्री को ढकी हुई उपभोग की चीज मानता है तो आधुनिक पूंजीवादी समाज उसे उपभोग की खुली हुई चीज मानता है। यह सही है कि स्त्रियां सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं आधुनिकता ने स्त्रियों को अवसर प्रदान किए हैं परंतु इसने पुरूषों का स्त्रियों के प्रति दृश्टिकोण को बदल दिया है ऐसा कतई नहीं है। आधुनिकता और स्त्री आजादी के विषय में लिव इन रिलेशन का जिक्र करना समीचीन होगा। यह सामान्य समझदारी पर आधारित संबंध है परंतु इसके नतीजों के अंतिम नुकसान यदि कोई हों तो स्त्रियों को ही उठाने पड़ते हैं। और कभी कभी तो यह संबंध पुरूष स्त्रियों को धोखे में रखकर मात्र शारिरिक आवश्यकताओं के लिए ही बनाते हैं। इस आधुनिकता में कितने अंतर्विरोध हैं इसका प्रमाण पश्चिमी समाजों में हाईमैनोप्लास्टी का बढ़ता चलन है। क्या आधुनिकता के पास पुरूषों के कौमार्य की पुनस्थापना का आग्रह है?
क्या है रास्ता ?
हमने बलात्कार और यौन उत्पीड़न से बात शुरू की थी परंतु ये घटनाएं स्त्री-पुरूष की सामाजिक स्थितियों के साथ इस तरह गुथी हैं कि पितृसत्तात्मकता के नष्ट हुए बगैर ये बने ही रहेंगे।
1. पितृसत्ता की समाप्ति आवश्यक है
एंगेल्स ने स्त्री पुरूष के बीच के वर्ग विभाजन के आधार के रूप में पितृसत्ता की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति के पितृसत्तात्मक स्वरूप को नष्ट करना आवश्यक है। परंतु पितृसत्ता का विकल्प क्या हो सकता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था इसकी जगह ले सकती है? असल में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अपने अंतर्विरोधों के कारण ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ था। अतः मातृसत्ता पितृसत्ता का विकल्प नहीं हो सकती। सही कदम तो होगा कि उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति का स्वरूप ही न रहे। अतः संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक हो। जब संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक होता है तो स्त्री-पुरूष के संबंध बेहद स्वाभाविक एवं वर्चस्व रहित होते हैं। इसका उदाहरण प्रकृति से तादाम्य के साथ रहने वाली वे जनजातियां हैं जिनके समाज में संपत्ति का स्वरूप सामुदायिक होता है। इन समाजों में स्त्रियां उत्पादन प्रणाली में अपने योगदान के अनुंरूप और समाज के पुरूष सदस्य के समान ही अधिकार और स्वतंत्रता का आनंद उठाती हैं। इस तरह की आदिम और घुमंतू जनजातियों में स्त्री पुरूष भेद बेहद कम और बलात्कार जैसी घटनाएं भी नगण्य होती हैं। संपत्ति के निजी स्वरूप और उत्तराधिकार प्रणाली से ही स्त्री की गुलामी की शुरूआत हुई थी। अतः इस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के साथ ही यह गुलामी भी वास्तविक रूप से नष्ट होगी। कई लोग संपत्ति के सामाजिक स्वरूप वाली प्रणाली में परिवार और एकनिष्ट विवाह जैसी संस्थाओं के उन्मूलन हो जाने के खतरे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार और एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नही। होगा वरन् इनका शोषक और वर्चस्वशाली स्वरूप समाप्त होगा। जैसा कि एंगेल्स दिखाते हैं कि एकनिष्ठ विवाह निजी संपत्ति के उन्मूलन पर अधिक मजबूत होगा क्योंकि यह प्रेम और रूचियों की समानता पर आधारित होगा। यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ ही बलात्कार और यौन शोषण पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाएंगे। कुछ घटनाएं तब भी हो सकती हैं। परंतु तब पुरूष वर्चस्व की समाप्ति होगी और बलात्कार के सामाजिक परिणाम बदल जाएंगे। क्योंकि भौतिक आधार नष्ट होने से मूल्य प्रणाली भी बदल जाएगी।
उपर्युक्त विश्लेषण की एक सीमा यह है कि इसमें सभी महिलाओं को एक ही समुदाय के रूप में प्रदशित किया गया है। महिलाएं वर्ग, जाति, रंग आदि कई वर्चस्व वाली श्रेणियों में बंटी हुई हैं अतः निजी संपत्ति के उन्मूलन का रास्ता इतना आसान नहीं। जैसा कि इस लेख की शुरूआत में ही स्पष्ट किया गया कि पितृसत्ता के साथ ही समाज की अन्य वर्चस्वशाली ढांचों के कारण महिलाएं अधिक असुरक्षित होती हैं। अतः महिला मुक्ति का प्रश्न मानव मुक्ति के अन्य प्रश्नों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
निजी संपत्ति के उन्मूलन का एजेंडा राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में माक्र्सवादियों का प्रमुख ऐजेंडा है और माक्र्सवादियों ने ही सही रूप में स्त्री की गुलामी की भौतिक बुनियाद को समझा है। परंतु राजनैतिक कार्यवाहियों में जेंडर के प्रश्न को माक्र्सवादियों ने उपेक्षित ही छोड़ा है। यह शुरूवात कम्युनिष्ट घोषणापत्र से ही हुई है जब माक्र्स और एंगेल्स घोषणा करते हैं कि कम्युनिष्टों पर ज्यादा से ज्यादा यह आरोप ही लगाया जा सकता है कि वे पुराने काल से चली आरही स्त्री की सर्वोपभोग्यता के गोपनीय रूप को समाप्त कर खुला कानूनी रूप देना चाहते हैं। यहां पर माक्र्स और एंगेल्स के मंतव्य पर कोई संदेह नहीं कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं परंतु ‘स्त्री की सर्वोपभोग्यता का कानूनी रूप’ ये शब्द कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जैसी महान कालजयी कृति में ना होते तो अच्छा था। ये बुर्जुआ नैतिकता का आग्रह नहीं परंतु स्त्री की ही सर्वोपभोग्यता ही क्यों पुरूष की क्यों नहीं? यह जायज प्रश्न माक्र्स से पूछा ही जाना चाहिए था। यही जेंडर का नाजुक प्रश्न है जिसपर निजी संपत्ति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध राजनैतिक कौम से अधिक समझदारी और गंभीरता की अपेक्षा है। इसे मात्र अस्मिता का प्रश्न मानने से समस्याएं हल नहीं होंगी।
2.सेक्सिज्म का विरोध करना होगा
यह पूंजीवादी समाज की देन है कि यौन आवश्यकताओं को उनकी प्राकृतिकताओं से कहीं अधिक महत्व दिया जा रहा है। यह कुत्सित प्रचार किया जा रहा है कि भोजन की तरह ही यौन संबंध भी जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं। यह सोच प्राकृतिकता के बजाय कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। क्योंकि भोजन के बगैर जीवन संभव नहीं है परंतु यौन संबंधों के बगैर निश्चित संभव है। क्योंकि भोजन जीवन के लिए आवश्यक है तो यौन संबंध जीवन की निरंतरता के लिए। यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरे द्वारा ब्रह्मचर्य जैसी अव्यवहारिक अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा रहा है। परंतु वर्तमान मुनाफा केंद्रित व्यवस्था। जिस रूप में यौनवाद को बढ़ावा दे रही है। उसका विरोध होना ही चाहिए क्योंकि यौनवाद अपने आधारभूत स्वरूप में ही स्त्री विरोधी है। यह यौनवाद का ही परिणाम है कि बाजार पुरूषों की उत्तेजना बढ़ाने वाले अनगिनत उत्पादों से भरा पड़ा है और इसका बाजार बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यवहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।
3.धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा
चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अत: स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविष्कार करना होगा जो मनुष्यों के संतुलित भौतिक संबंधों पर आधारित हो।
4.कानून - सुरक्षा - न्यायिक व्यवस्था में सुधार
किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीड़ित महिला की सुबूत मिटाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा।
मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यवहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।
3. धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा
चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अतः स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविष्कार करना होगा जो मनुष्यों के संतुलित भौतिक संबंधों पर आधारित हो।
4. कानून/सुरक्षा/न्यायिक व्यवस्था में सुधार
किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीडि़त महिला की सुबूत मिलाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।