इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

कहीं हम अंग्रेजी का मोह त्यागने से कतराते तो नहीं ?


19 दिसम्बर 1934 ई. को कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा राष्ट्रभाषा और उसकी समस्याएं को लेकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के चतुर्थ उपाधि महोत्सव के अवसर पर दिया गया दीक्षांश भाषण का अंश प्रस्तुत है।
आपकी सभा ने पन्द्रह - सोलह साल के मुख्तसर समय में जो काम कर दिखलाया है, उस पर मैं आपको बधाई देना चाहता हूं। खासकर इसलिए कि आपने अपनी ही कोशिशों से यह नतीजा हासिल किया है। सरकारी इमदाद का मुँह नहीं ताका। जो अगरेंजी आचार - विचार भारत में अग्रगण्य थे और है। वे लोग राष्टï्रभाषा के उत्थान पर कमर बाँध लें तो क्या कुछ नहीं कर सकते ? और यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि जिन दिमागों ने एक दिन विदेशी भाषा में निपुण होना अपना ध्येय बनाया था, वे आज राष्टï्रभाषा का उद्धार  करने पर कमर कसे नजर आ रहे हैं और जहां से मानसिक पराधीनता की लहर उठी थी, वहीं से राष्टï्रीयता की तरंगे उठ रही है। और गत वर्ष यानि दल के नेताओं के भाषण सुन कर मुझे यह स्वीकार करना पड़ना है कि वह क्रिया शुरू हो गई है।
अगर हमारे नेता और विद्वान जो राष्टï्रभाषा के महत्व से बेखबर नहीं हो सकते, राष्टï्रभाषा व्यवहार कर सकते, तो जनता में उस भाषा की ओर विशेष आकर्षक होगा। मगर यहां तो अंगरेजियत का नशा सवार है। प्रचार का एक और साधन है कि भारत के अंगरेजी और अन्य भाषाओं के पत्रों कोहम इस पर आमदा करें कि वे अपने पत्र के एक - दो कॉलम नियमित  रूप से राष्टï्रभाषा के लिए दे सके।
एक स्थान पर कथासम्राट ने कहा है कि राष्टï्र की बुनियाद राष्टï्र की भाषा है। नदी, पहाड़ और समुद्र राष्टï्र नहीं बनाते। भाषा ही वह बंधन है जो चिरकाल तक राष्टï्र को एक सूत्र में बांधे रहता है, और उसका शीराजा बिखरने नहीं देता। अगर हम एक राष्टï्र बनकर अपने स्वराज के लिए उद्योग करना चाहते हैं तो हमें राष्टï्रभाषा का आश्रय लेना होगा और उसी राष्टï्रभाषा के बख्तर से हम अपने राष्टï्र की रक्षा कर सकेगें। आप उसी राष्टï्रभाषा के भिक्षु हैं, और इस नाते आप राष्टï्र का निर्माण कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ी राजभाषा संशोधन विधेयक को महामहिम राज्यपाल छत्तीसगढ़ शासन द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी गई है। छत्तीसगढ़ी के विरोधियों ने भारत सरकार से प्रस्ताव भेज कर निवेदन किया गया कि भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में किसी और भाषा को शामिल न किया जाय।
प्रेमचंद ने अपने इसी दिन के भाषण में कहा है कि एक अच्छा सा राष्टï्रभाषा का विद्यालय तो हम खोल नहीं सके। हर साल सैकड़ों स्कूल खुलते हैं जिनकी मुल्क को बिलकुल जरूरत नहीं। उसमानिया विश्वविद्यालय काम की चीज है अगर वह उर्दू और हिन्दी के बीच की खाई को चौड़ी न बना दे। फिर भी मैं उसे विश्वविद्यालयों पर तरजीह देता हूं। कम से कम अंगरेजी की गुलामी से तो उसने अपने आपको मुक्त कर लिया।
कथा सम्राट प्रेमचंद का चिंतन आज भी यथास्थान पर है। आज भी हम राष्टï्रभाषा को सर्वव्यापी बनाने युद्ध कर रहे हैं। ऐसा क्यों ?  हम पूर्ण रूप से हिन्दी को राष्टï्रभाषा नहीं बना पाये हैं ? कहीं हम आज भी अंगरेजी का मोह त्यागने से कतराते तो नहीं। ऐसा तो नहीं कि  हम सम्मेलनों या अन्य स्थानों पर पीठ थपथपवाने के उद्देश्य से ही हिन्दी की महत्ता पर भाषण भर ठोकना जानते है ,उसे अमल पर लाने से परहेज करते हैं ?

सोमवार, 5 अगस्त 2013

छत्‍तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनने से रोका तो नहीं जा रहा ...



श्रीकृष्ण ने जिस समय अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया उसी समय कौरवों की हार और पाण्डवों की जीत सुनिश्चित हो गई। कौरव घंटों से श्रीकृष्ण की निन्द्रा टूटने की प्रतीक्षा करते रहे। पाण्डव, कौरवों के आने के बहुत देर बाद आये। जब पाण्डव आये तो देखे - कौरव, श्रीकृष्ण को घेर कर बैठे हैं। उन्हें वह स्थान रिक्त दिखा, जिधर श्रीकृष्ण का पैर था। पाण्डव वहीं पर जा बैठे। श्रीकृष्ण की निन्द्रा टूटी। उसने अपने सामने पाण्डवों को पाया। अर्जुन ने उन्हें युद्धभूमि में सारथी बनने का आग्रह किया। उन्होंने पाण्डवों का आग्रह स्वीकार लिया। कौरवों ने इसका विरोध किया। कहा - हम पहले से आये हैं। आपको पहले हमारा आग्रह सुनना था। कृष्ण का जवाब था - जब मेरी निन्द्रा टूटी तब मैंने पाण्डवों को अपने सम्मुख पाया। तुम लोग तो बाद में दिखे। इस सच्वाई को कौरवों भी जानते थे। वे निरुत्तर हो गये।
यही दुर्गति छत्तीसगढ़ी भाषा के उन लेखकों की हो रही है जो छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले छत्तीसगढ़ी में लेखन कर रहे हैं , जिनकी रचनाएं छपती रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही हर क्षेत्र में छत्तीसगढ़ के हितैषी पैदा हो गये। जिस प्रकार छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे नेता जो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के समर्थन में कभी नहीं रहे वे ''छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया '' जय की नारे लगाने लगे।
वैसे ही छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने की चर्चा चली तो  वे धुरंधर लेखक जिन्हें छत्तीसगढ़ी से 'दुराव ' था, वे ही सबसे बड़े हितैषी बनकर सामने आ गये। छत्तीसगढ़ी के वे सर्जक जो आजीवन छत्तीसगढ़ी में सृजन करते रहे, उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया गया। वे लोग जिन्हें छत्तीसगढ़ी से लगाव नहीं था, छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण को लेकर विवाद की स्थिति पैदा कर रहे हैं जो छत्तीसगढ़ी भाषा के हित में नहीं लगता।
कई लेखक ऐसे हुए जिन्होंने छत्तीसगढ़ी में रचना तो किए हैं पर छत्तीसगढ़ी भाषा का रुप बदलने में जरा भी संकोच नहीं किए। यही कारण है कि शुद्ध छत्तीसगढ़ी भाषा में सामान्य बोल चाल की भाषा घुसेड़ने में जरा भी संकोच नहीं किए। छत्तीसगढ़ी भाषा की एकरूपता को तोड़ने का प्रयास इन्हीं लोगों द्वारा किया गया। जैसे ' संस्कृति ' को ' संसकिरति ' कह दिया गया। जबकि संस्कृति तो संस्कृति ही होगी।
धर्मयुद्ध के समय एक ही सारथी श्रीकृष्ण थे ,जबकि छत्तीसगढ़ी भाषा के युद्ध के लिए अनेक सारथी पैदा हो गये हैं। और इनमें से सब स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सारथी समझ बैठे हैं। मुझे तो डर है कि मानकीकरण के चक्कर में छत्तीसगढ़ी राजकाज की भाषा बनने से वंचित न रह जाये।
अर्जुन की चतुराई के समक्ष अच्छे - अच्छों ने घुटने टेक दिए। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को वचन दे रखा था - तुमसे बढ़कर कोई भी धनुर्धर नहीं होगा। चूंकि एकलव्य को गुरु आश्रम में जाने से वंचित किया गया। उसने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति को द्रोणाचार्य की उपस्थिति माना और धनुर्विद्या सीखने लगा। एक दिन पता चला कि अर्जुन से भी किसी ने अधिक धनुर्विद्या प्राप्त कर लिया। अर्जुन को पता चला तो वे द्रोणाचार्य के पास दौड़े। द्रोणाचार्य ने तो अर्जुन को वचन दे रखा था कि उससे बढ़कर कोई धनुर्धर नहीं होगा। इसे मिथ्या कैसे होने देते।  वे एकलव्य के पास गये और गुरु दक्षिणा में एकलव्य की अंगूठा ही मांग लिए।
छत्तीसगढ़ी के उन लेखकों के साथ भी यही हो रहा है। उन्हें गुरु दक्षिणा में बहुत कुछ खोना पड़ रहा है। तब उन्हें यह ज्ञात ही नहीं था कि छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए कोई मानकीकरण की भी आवश्यकता पड़ेगी। आज जिस प्रकार से छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण की बात की जा रही है इससे तो यही लगता है, मानकीकरण की बात वे ही लोग ज्यादा कर रहे हैं जो आजीवन छत्तीसगढ़ी से परहेज करते रहे। छत्तीसगढ़ी भाषा की मानकीकरण की आड़ में कहीं छत्तीसगढ़ी भाषा को राजकाज की भाषा बनने से रोका तो नहीं जा रहा है?

रविवार, 4 अगस्त 2013

बलवती होती मान - सम्‍मान हड़पो नीति

मान - सम्मान, पुरस्कार हड़पो नीति आज बलवती होती जा रही है। मान - सम्मान और पुरस्कार के आज हकदार वे होते जा रहे हैं जो राजनीतिक गलियारों में दखल रखते हैं। तुलसीदास के कर्म प्रधान की जगह चाटुकारिता प्रधान ने ले लिया है। जो जितना अधिक चाटुकारिता करेगा उसे उतना ही ज्यादा मान सम्मान, पुरस्कार मिलेगा।
कई लेखक है जो नित्य कर्म में रत लेखन कर रहे हैं मगर न तो वे मान - सम्मान पाने के भागीदार बन पाते हैं न पुरस्कार उन तक पहुंच पाता है। ऐसा क्यों ? कभी - कभार दो - तीन लाइन की कविताएं, गीत, $ग$जल या एकाध कहानी लिखने वाला व्यक्ति साहित्यकार होने का प्रमाण पत्र जुगाड़ कर लेता है और पुरस्कार हड़प लेता है मगर जो सैंकड़ों रचनाएं करता है वह  प्रमाण पत्र का मुखड़ा भी देखने तरस जाता है , ऐसा क्यों ?
मुंशी प्रेमचंद जीते जी और मृत्यु के बाद भी मुंशी प्रेमचंद ही रहे। मगर आज मुंशी प्रेमचंद और उनकी रचनाओं पर शोध करने वाले डाक्टरेट हो गये। इन शोध ग्रंथों के आधार पर देश का शीर्ष लेखक कहलाने का हकदार बन गये। ऐेसे लोग क्यों अपने आप में ऐसी ऊर्जा उत्पन्न क्यों नहीं करते कि उनकी रचनाओं पर भी शोध किया जा सके। जीवन भर अभाव से ग्रसित मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं पर शोध कर या अन्य उपयोग कर लोग आज ढनाड्य बन गये। मगर प्रेमचंद, मुंशी के मुंशी ही रहे।
मुंशी प्रेमचंद तो एक उदाहरण है। आज भी ऐसे कई साहित्यकार है जो जीवंत रचनाएं कर रहे हैं मगर राजनीतिक गलियारे में घुसपैठ नहीं होने के कारण वे पुरस्कार तो क्या, मान - सम्मान पाने के लिए तरस रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि पुरस्कार या मान - सम्मान व्यक्ति  की चाटुकारिता को नहीं अपितु उनकी रचनात्मक कार्यों का मूल्यांकन करके दिया जाना चाहिए। अगर इस पर अमल नहीं किया गया तो वे लोग सदैव पुरस्कार या मान सम्मान से वंचित रहेंगे जो कर्मपथ पर चल कर अपनी रचनाशैली से देश - समाज को दिशा देने का काम ईमानदारी के साथ कर रहे हैं और वे लोग पुरस्कार - मान - सम्मान को लुटते रहेंगें जो रचनाकर्म से दूर चाटुकारिता कर्म पर ही आश्रित रहेंगें।
छत्तीसगढ़ शासन द्वारा भी शुरू से साहित्य के क्षेत्र में पंडित सुंदरलाल शर्मा साहित्य सम्मान पुरस्कार योजना शुरू  किया गया है पर मंथन करने पर कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि साहित्य का वह पुरस्कार उन्हें नहीं मिल पा रहा है जो सही में उस पुरस्कार के हकदार है। संस्कृति विभाग इस ओर गंभीरता से ध्यान दे तो निश्चित रूप में क्रमश: पुरस्कार उन्हीं लोगों को मिलने लगेगा जो उस पुरस्कार के हकदार है। और ऐसे लोग छंट जाएंगे जो राजनीतिक गलियारें में घुसपैठ कर पुरस्कार हड़पो नीति को अपनाते हैं।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

बूंद - बूंद पानी पर रोज हो चिन्‍तन

च्च् आवन लगे बरात त ओटन लगे कपास ज्ज् यह छत्तीसगढ़ी कहावत बहुत पुरानी है। इसका तात्पर्य होता है जब बारात पहुंचने को होती है तब हम कपास की बाती बनाने बैठते हैं। पूर्व से इस कार्य को हम करने से सदैव चूकते रहते हैं परिणाम कई - कई बार हमें परेशानियों का सामना करना पड़ता है। हम पहले से न सुनियोजित कार्यक्रम तय करते हैं और न ही उसे पूरा करने का प्रयास करते हैं। जल बिना जीवन शून्य है यह सब जानते सुनते हुए भी हम क्यों इसके बचत की नहीं सोचते ? जब विकट पानी की समस्या उपस्थित होने की स्थिति निर्मित होती है तब हमारा ध्यान इस ओर जाता है और नारे लगवाने लगते हैं हमें पानी की बचत करनी चाहिए। पानी का एक एक बून्द अमूल्य है। और फिर हमारे सामने पानी की समस्या विकराल रूप ले लेती है। महिलाएं एक - एक बूंद पानी पाने छीना झपटी, गाली - गलौज यहां तक कि मार पीट पर भी उतर आती है। हम ऐसी स्थिति निर्मित हो इसके पूर्व क्यों विचार नहीं करते कि यह समस्या आने वाली है। जबकि जल संकट का सामना हमें हर वर्ष करना पड़ता है। बावजूद क्यों हम संकट आने के कुछ दिन पहले ही जल बचाने, पानी का सदुपयोग करने का रट लगाने लगते हैं।
आज जल स्तर का जिस तेजी से गिरा है वह आगामी समय के लिए विकट समस्या पैदा करने जैसे संकेत है। हमें चाहिए कि एक समस्या की घड़ी आने का इंतजार न करें और समय पर समस्या के  निदान के लिए भीड़ जायें। महज एक दो माह ही जल के महत्व को निरूपित करते हुए उसकी बचत की दुहाई न दे अपितु पूरे वर्ष भर हम पानी बचत के प्रति सचेत रहे तो निश्चित तौर पर हमें आगामी समय में पानी के घोर संकट का सामना करना नहीं पड़ेगा। अब हमें इस इस कहावत को चरितार्थ करने की आवश्यकता है कि च्च् कल करें सो आज कर आज करें सो अब ज्ज् तभी हम समस्या उपस्थित होने के पहले उस पर नियंत्रण कर पायेंगे। यह केवल किसी एक व्यक्ति, एक संस्था, या एक राज्य के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत वर्ष की बात है। आओ, इस आशय का शपथ ले कि हमें न सिर्फ चंद दिनों पानी बचत की दुहाई देनी है अपितु प्रति दिन पानी बचत के लिए चिंतन एवं विचार करना है।