इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 28 जुलाई 2013

गांव के भगवान


नूतन प्रसाद

दुनिया में भाई भतीजावाद की बीमारी को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है मगर मैं ऐसा हूं कि पारिवारिक संबंध को सुदृढ़ बनाने पर तुला हुआ हूं. कई महानुभावों क ी कड़ी आपत्ति के बावजूद प्रतिष्ठित व्यक्तियों से दादा, चाचा के रिश्ते जोड़ लिए हैं. जब लोग धर्मबहन बनाकर बाद में धर्मपत्नी बनाने से नहीं चूकते तो मेरे भी इस पुनीत कार्य में गहरा राज होगा ही.
जिनका यश - वर्णन करने अभी बैठा हूं. वे पिता के साले याने मेरे मामा हैं. उनसे मामा का सम्बन्ध उसी दिन जुड़ा जिस दिन उन्होंने सरपंच पद संभाला. इससे पहले पोता भी मानना अस्वीकार था. उनके संबंध में फिलहाल एक लेख ही तैयार कर रहा हूं बाद में पाठकों की टिप्पणी देखकर महाकाव्य या उपन्यास लिखूंगा. जब बाल्मीकि ने अपने मित्र दशरथ के पुत्र को लोकनायक सिद्ध करने के लिए एक बड़ी पोथी ही लिख डाली,अपने राज्य को ही स्वराज कहने वाले तथा दूसरों राज्यों को लूटने वाले शिवाजी को इतिहास कारों ने राष्ट्रीय महापुरुष के पद पर विभूषित कर दिया तो अपने प्यारे मामा को राष्ट्रीय स्तर का नहीं तो प्रांतीय स्तर के श्रेष्ठ नेता प्रमाणित करने के लिए उनकी प्रसंशा में चार चांद लगाऊंगा ही.
मंगलाचरण के पश्चात उनके दयालु स्वभाव की चर्चा करना चाहता हूं -वे दीन दुखियों के अनन्य सेवक हैं. एक बार उन्हें सूचना मिली कि शासन निराश्रितों को सहायता बतौर रुपये देने वाला है. उन्होंने अपने ग्राम पंचायत क्षेत्र में असहाय व्यक्ति ढूंढे लेकिन मिले ही नहीं. अंत में सोचा कि मैं पंचों की राय के बिना कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं कर सकता. शिक्षक,  पंचायत सचिव, तथा कोटवार तक वेतन भोगी हैं लेकिन शासन मुझे एक पैसा भी नहीं देता. मुझसे बढ़कर गरीब और दुखी कौन है. फिर क्या था, वे निराश्रितों को बांटने के लिए आये रुपयों से अपनी गरीबी हटाने लगे.
मुख्यमंत्री विधानसभा में दहाड़ते हैं तो मामा जी ग्राम पंचायत भवन में. किसी पंच में इतनी हिम्मत नहीं कि उनके खिलाफ आवाज उठा सके. एक बार कुछ पंचों ने उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखने का दुस्साहस किया. मामा जी ने तत्काल केन्द्रीय नेताओं  के कदमों का अनुशरण किया. जो पंच पैसों के बल पर बिक सकते थे उन्हें उचित मूल्य में खरीदा और जो ऐंठबाज थे उन्हें लठैतों के द्वारा पिटाई दिलाई लेकिन अंत में दो तिहाई मत अर्जित करके ही रहे. जिन पंचों ने उनकी पवित्र आत्मा को ठेस पहुचाई थी उन्हें ऐन - केन प्रकारेण पंच पद से निकलवा दिया. तभी उनकी टेढ़ी हुई भृकुटि सीधी हुई. साम दाम दण्ड भेद के सच्चा पालनकर्त्ता होने के कारण मार्कण्डेय की तरह सरपंच पद पर अमर रहने की प्रबल संभावना है.
पारिवारिक झगड़े हो या जमीन संबंधी झगड़े, उन्हें वे विद्वान न्यायाधीश की तरह सुलझा कर रहते हैं. दो भाई थे. उनके पास १ हेक्टेयर जमीन थी. वे जमीन को आपस में बांटना चाहते थे लेकिन बराबर बंट नहीं पाती थी. वे न्याय कराने मामा जी के पास आये. मामाजी न्यायी तो है ही. उन्होंने तीन तीन हेक्टेयर दोनों भाईयों को दे दी. बाकी जमीन अपने पास रख लिया. भाईयों ने आपत्ति की तो मामा जी ने एक कहानी बतायी- दो बिल्लियां थी. उनके पास कुछ रोटियां थीं. वे भी तुम्हारी तरह बंटवारा चाहती थीं. लेकिन वे ठीक से नहीं बांट सके तो वे एक बंदर के पास पहुंचे. बंदर ने त्रेतायुग का तराजू निकाला और रोटियां तौलने लगा. जिस पलड़े की ओर भार अधिक होता उधर की रोटी वह खा जाता. कभी एक पलड़ा भारी होता तो कभी दूसरा. इसी तरह उसने सभी रोटियां खा ली. बिल्लियां रोती हुई वापस हुई.
कहानी समाप्त कर मामा ने लाल आंखें दिखाते हुए कहा - जब बंदर ने न्याय के नाम पर पूरी रोटियां हजम कर ली फिर मैं मनुष्य हूं . फिर भी दयावश तुम्हें जमीन दे दी. बोलो और कुछ कहना हैं.
मामाजी की जुबान ही कानून है. भागते भूत की लंगोटी ही सही , ऐसा सोचा दोनों भाईयों ने अपनी राह पकड़ ली.
मामाजी श्रमिकों के पक्षपाती हैं. वे उनके हितों का ध्यान बगुलों की तरह रखते हैं. वे मजदूरों के स्वास्थ्य सुधार के लिए उनसे ब्रह्म मुहूर्त से लेकर सूर्यास्त के बहुत बाद तक काम लेते हैं पर मजदूरी आधी देते हैं. एक दिन मजदूरों ने इसी बात पर हड़ताल कर दी. मामाजी बिगड़े - अगर तुम लोग मेरे खेत में जाना बंद करोगे तो गांव में रहना मुश्किल पड़ जायेगा. दूसरे शहर जाओगे तो किसी न किसी अपराध मे फंसवाकर जिला से निष्कासित करा दूंगा. दूसरे प्रांत जाओगे तो देश निकाला का दण्ड दिलवा दूंगा. दिल्ली तक मेरी पहुंच है. फिर वे समझाने लगे - हमारे जैसे लोगों के घर कमाने के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है. विश्वास न हो तो शास्त्र उठा कर पढ़ लो. पैसे वाले कितने दुखी होते हैं,बताने की आवश्यकता नहीं. तुम्हारे आध्यात्मिक विकास के लिए ही कम मजदूरी देता हूं. यदि उचित पारिश्रमिक दूंगा तो तुम लोग आलसी हो जाओगे. बीमारियां जकड़ लेगी इसलिए उपवास रह कर शरीर स्वस्थ रखो.
मजदूरों ने कान पकड़कर गलती के लिए क्षमा मांगी. मामा ने एवमस्तु कर अभयदान दिया.
मामाजी बड़े स्वच्छता प्रेमी हैं. वे अपने घर के कचड़े को पड़ोसी के घर के सामने फिेंकवा देते हैं. एक बार वे तालाब में फैली गंदगी को देखकर चिंता में डूब गये. उन्होंने मछली मारने के लिए तत्काल जाल डलवाया. ग्रामीणों ने विरोध किया तो मामाजी के त्रिनेत्र खुल गये. बोले - जब एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है तो यहां बहुत मछलियां हैं. मछलियों के कारण ही पानी रोगीला हो गया है. लोग उपयोग करेंगे तो बीमार पड़ेंगें इसलिए मछलियों को निकलवा कर तालाब को स्वच्छ रखना मेरा कर्तव्य है.
ग्रामवासियों की बोलती बंद हो गयी. मामाजी ने मछलियों की बिक्री करा दी. आये दिन बैंकों में डकैतियाँ पड़ती है अतः आय के रुपयों को अलीगढ़ी पेटी में सुरक्षित कर दिया.
मामाजी इलाके के शेर हैं तो जनता बकरी. मजाल कि उनसे कोई मुंह लड़ा सके. शासकीय कर्मचारियों को डांटना उनके अधिकार क्षेत्र के अंर्तगत आता है. शिक्षकों के वेतन देयक प्रपत्र पर दस्तखत करना न करना उनकी इच्छा पर निर्भर करता है. जिस प्रकार लेखकों की रचनाएं फेंक देते हैं उसी प्रकार वे वेतन देयक प्रपत्र की दुर्गति कर देते हैं. शिक्षकों का वेतन कटा देना उनके बांयें हाथ का खेल है. एक शिक्षक मामाजी को नमस्कार नहीं करता था. मामाजी ने अपमान का बदला लेने के लिए शिक्षक के पूरे माह का वेतन ही कटवा दिया. शिक्षक अपने पापकर्म का फल भोग चुका तो अब दिन में तीन बार दण्डवत करता है.
मामूजान बच्चों के प्रति नेहरु जी से भी अधिक स्नेह रखते हैं. उनके भविष्य के प्रति चिंतित हुए तो उन्हें अपने खेतों में काम दे दिया. शिक्षक उनके पास गये. बोले - सभी बच्चों को शिक्षित होना अनिवार्य है अतः आप उन्हें शाला भेजिये.
मामाजी शिक्षकों की बुद्धिहीनता पर हंसे. बोले - जब सभी पढ़ लेंगें तो हल कौन चलायेगा !अन्न कौन पैदा करेगा !मैं बच्चों को अपढ़ रखकर राष्ट्र की उन्नति में योगदान दे रहा हूं. यदि सभी शिक्षित हो गये तो नौकरी दोगे ! जवाब दो !
मामाजी के सुतर्क की बल्लेबाजी से शिक्षक विकेट आउट हो गये. एक बार उन्हें किसी ने बताया कि मंत्री घूंस लेते हैं,फिर क्या था उन्हें घूस लेने की धुन सवार हो गई. बांस का प्रमाण पत्र बनवाने वाले से घूस तो साधारण बैठक बुलाने वाले से घूस लेने लगे. मैंने पुलिस - सरकार और अधिकारियों के भ्रष्टाचारण पर कितने ही कागज खराब किये. लेकिन मामा के काला चिठ्ठा कभी नहीं खोला. उनका विरोध कर रिश्तेदारी थोड़ी ही खत्म कर लूं.
गांव के पास एक नाला बहता है. उनमें बांध बंध जाये तो खेतों की सिंचाई हो सकती है. अकाल में भी धान पक सकता है. बांध निर्माण के लिए शासन से स्वीकृति मिल चुकी थी लेकिन मामा ने यह कह कर काम बंद करा दिया कि बांध फूट गया तो फसल चौपट होगी ही उसके साथ गांव भी बह  जायेगा. सड़क इसलिए नहीं बनने देते कि दुर्घटना होने की खतरा रहता है. इसी प्रकार उनके अथक प्रयासों से क्षेत्र के गांव निरंतर विकास कर रहे हैं. मामाजी के जनहितैषी कार्यों का गुणगान कहां तक करुं. यदि सम्पूर्ण पर्वतों को स्याही बना कर समुद्ररुपी पात्र में घोला जाये. कल्पवृक्ष की विशाल  शाखा लेखनी बने और भूमि रुपी कागज पर सरस्वती निरंतर लिखे तो भी मामाजी के गुणों का वर्णन होना असम्भव है.
  • पता - भंडारपुर ( करेला ) पोष्‍ट - ढारा, व्‍हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव ( छ.ग.)

बेचारे नारद


नूतन प्रसाद 
नारद जी वैष्णव तंत्र लिख चुके तो उसे प्रकाशित कराने की समस्या आयी. उन्होंने प्रकाशकों के नाम विनम्र शब्दों में कई रजिस्टर्ड पत्र लिखे लेकिन पत्र कि स कूड़ेदानी में फिके पता ही नहीं चला. जब घर बैठे काम नहीं बना तो वे ब्रह्मा के पास दौड़े . बोले - आप बुजुर्ग हैं. प्रकाशकों से जान पहचान होगी ही. एप्रोच मार कर मेरी एक पुस्तक तो छपवा दीजिए.
ब्रह्मा बोले - बेटे , तुम तो रोगी के पास चिकित्सा कराने आये हो प्रकाशकों से सम्पर्क स्थापित करते - करते मेरे बाल पक गये. किसी ने घास नहीं डाली. वेद आज तक अप्रकाशित पड़े हैं. उन्हें जीवित रखने के लिए शिष्यों को कंठस्थ करा रहा हूं.
- लेकिन डैडी, अपना तो कोई चेला नहीं है जो आपके कार्यक्रम का अनुसरण हो. मेरी रचनाएं तो बेमौत मर जायेंगी.
- यदि ऐसा है तो प्रकाशकों से स्वयं मिल लो. लेकिन याद रखना उनकी तुलना वनैले जानवरों से की गई है. जो हाथ तो नहीं आते ऊपर से आहत कर देते हैं.
नारद ने ब्रह्मा के चरण स्पर्श किये. आर्शीवाद प्राप्त कर वहां से विदा हुए. रास्ते में कठिनाईयों ने उस पर धावा बोला. फिर भी वे संघर्ष करते हुए प्रकाशक गोपीलाल के पास पहुंचे. उस समय प्रकाशक महोदय अपने मित्र मनोहर के सामने अपने मुंह मियां मिठ्ठू बन रहे थे -हमने कई असहाय और उपेक्षित साहित्यकारों को अंधेरे उजाले में लाया. आज जो राकेश शर्मा से भी ऊंची उड़ानें भर रहे हैं. इनके मूल में हम है.
मनोहर ने पूछा - लेकिन इसके संबंध में मुझे किसी ने नहीं बताया.
अब गोपीलाल मछली की गति पाने को हुए. बचने के लिए उन्होंने नारद की ओर इंगित करते हुए कहा - प्रत्यक्षं किं प्रमाणं. आपके पास जो खड़ा है उसे ही पूछ लीजिए .
मनोहर ने नारद से पूछ ही लिया - क्यों जी, गोपीलाल सच कह रहे हैं.
नारद के लिए तुरंत एक ओर कुंआ दूसरी ओर खाई खुद गयी. यदि हां कहते तो पुस्तक नहीं छपी थी. और नहीं कहते तो गोपीलाल के नाराज होने का भय था.
प्रकाशक को सत्यवादी हरिश्चंद्र प्रमाणित कर अपना उल्लू सीधा करना था. उसने कहा- गोपीलाल जी ने मेरी नौ पुस्तकें छापी है. उनमें से एक विश्वविद्यालय में चल रही है.
- कुछ मुद्राराक्षस भी दिये हैं. . . ?
- जी हां, तभी तो मेरे बालबच्चे पल रहे हैं.
इतने में मनोहर के घर से बुलावा आ गया. वे चले गये. नारद ने उपयुक्त अवसर देखा. पाण्डुलिपि प्रकाशक के सामने रख दी. प्रकाशक ने पूछा- यह क्या है ?
नारद ने स्पष्ट किया - अप्रकाशित रचनाओं की पाण्डुलिपि
- दुनिया में एक तुम ही लेखक हो जो तुम्हें ही छापता रहूं.
- आप गलत कह रहे हैं, मैं तो अभी तक अप्रकाशित हूं.
- इतने दिनों तक नेता धोखेबाज और मक्कार रहे. अब उनके श्रेणी में भी आ गये.
- आपके प्रति मेरी धारण ऐसी नहीं है.
- झूठा कहीं का. कुछ समय पूर्व नौ पुस्तकें प्रकाशित होने की बात कह अब उसे ही काट रहो हो. ऐसे में तुम पर कौन विश्वास करेगा?
- वो तो आपको सच्चा व्यक्ति साबित करने के लिए मैं झूठा बना था.
- याने तुमने विष्णु बनकर मुझ गजेन्द्र को उबार लिया. जब तुम दूसरे का उद्धार कर सकते हो तो मुझसे सहायता मांगने की क्या आवश्यकता ?
प्रकाशक की दुलत्ती से नारद जरा भी विचलित नहीं हुए. क्योंकि दूध देने वाली गाय की लात भी मीठी होती है. बोले - बहुत भरोसा लेकर आया था इसे पढ़कर तो देख लीजिये !
प्रकाशक ने दो तीन पत्ते उलटकर देखे. बोले - वाह, तुम तो क्रांतिकारी लगते हो. रचनाओं के माध्यम से अपना आक्रोश जाहिर किया है. . . . ।
नारद को आशा बंधी. पूछा- तो मेरा काम हो जायेगा.
प्रकाशक ने गुर्रा कर कहा - मैं रेवड़िया नहीं बांट रहा हूं. यदि तुम्हारे जैसे की पुस्तकें छापता रहूं तो सुदामा बन जाऊंगा.
अब नारद ने व्यवसायिक नीति चलायी. बोले - जितनी भी आमदनी होगी, आप रख लीजिएगा. मुझे रायल्टी भी नहीं चाहिए.
- जब पैसे वाले बनते हो तो छपाई के पैसे दे दो. पूरा लाभ तुम ही कमा लेना.
- यही तो रोना है कि मैं धनवान नहीं हूं.
- तो साहित्य के झमेले में क्यों पड़े ?मालूम नहीं कि बीड़ी पीने वाले को माचिस भी रखनी चाहिए.
- कुछ तो दया कीजिए.
-छोड़ों जी, गर्ज टल जाने पर कहते फिरोगे कि मैंने प्रकाशक को अच्छा उल्लू बनाया. तुम लोग जिस पत्तल पर खाते हो उसे ही छेद करते हो.
- मैं कृतध्न नहीं हूं. कुछ तो रास्ता बताइये.
- अंधे हो जो दिख नहीं रहा कि दरवाजा खुला है पीछे मुड़ो और नाक की सीध में चले जाओ .
नारद हर चौकी पर हार चुके थे. उन्होंने पाण्डुलिपि संभाली और वापस हुए. इसी तरह कई प्रकाशकों के चरणों पर मत्था टेके लेकिन सबने इंकार दिया. वे चिंतामग्न दर - दर भटक रहे थे कि एक पत्रकार से मुलाकांत हो गई. उसने कहा - प्यारे, चिंता करते करते चिता की भेंट चढ़ जाओगे. तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होगी. मेरी सुनो - राजा शीलनिधि की पुत्री विश्वमोहनी का स्वयंवर होने वाला है. यदि उससे शादी हो गई तो तुम मुफ्त में मालामाल हो जाओगे फिर किसी के सामने भीखरी बनना नही पड़ेगा.
पत्रकार की सलाह ने संजीवनी का काम किया. नारद विद्युत गति से विष्णु के पास पहुंचे. विष्णु ने पूछा- बहुत दिनों के बाद आज आये हो. कोई स्पेशल न्यूज है क्या ?
नारद बोले - नहीं,मैंने आपकी बड़ी सेवा की है मैं उसके बदले सहायता मांगने आया हूं.
- कहो. . . ।
- मैं विवाह करना चाहता हूं लेकिन न सूट है और न संवरने के लिए कोई सामान.
- तो फिक्र क्यों करते हो. मैं इंतजाम कर देता हूं .
विष्णु ने नारद को एक सूटकेश पकड़ाया और कहा -इसके अंदर ऐसी ऐसी वस्तुएं है जिनके उपयोग से तुम्हारे व्यक्तिव में चार चांद लग जायेगे.
नारद खुशी से झूम उठे. उन्होंने सूटकेश उठाया और विष्णु का गुणगान करते हुए वहां से लौटे. जब स्वयंवर की तिथि आयी तो विष्णु का दिया सूट - बूट डंटाया और शीलनिधि के दरबार में उपस्थित हुए. वे कुर्सी पर ठाठ से जम गये. वहां और भी लोग थे. वे उन्हें देखकर मुस्कराने लगे. एक ने पूछा- कोई बता सकता है कि विश्वमोहनी किसके गले माला डालेगी ?
दूसरे ने कहा - सबसे अधिक भाग्यशाली नारद साहब ही लगते हैं. देखो न, कैसे सजधज कर आये हैं.
तीसरे ने हामी भरी - हां यार, तुम्हारी भविष्यवाणी सत्य उतरेगी.
इतने में विश्वमोहनी माला लेकर आयी. नारद उचक कर अपने को दिखाने लगे. विश्वमोहनी उसके पास गयी और मुंह बिचकाकर आगे बढ़ी कि नारद ने पूछा - जब मो सम पुरुष न तो सम नारी फिर मेरा तिरस्कार क्यों कर रही हो ?
- तुमसे शादी करके क्या अपना जीवन बर्बाद कर लूं.
- देखते नहीं, कीमती सूट पहना हूं.
- यह तो दूसरे का दिया हुआ है जब कपड़े नहीं सिलवा सकते तो मुझे खिलाओगे क्या ?
नारद ने पैतरा बदला. कहा - मेरी गरीबी से क्या मतलब ! तुम्हें खूबसूरत पति चाहिए. देखो भला मैं कितना सुन्दर हूं.
- हां- हां, कामदेव भी लजा जायेगा. पहले अपना मुंह दर्पण में तो देख लो. बन्दर जैसे दिख रहे हो.
नारद ने दर्पण में मुंह देखा तो स्वयं से घृणा करने लगे. वे अपने पक्ष में तर्क देते कि इसके पहले ही विश्वमोहनी ने विष्णु के गले में वर माला डाल दी. नारद विष्णु के पास गये. रोष भरे शब्दों में बोले -जब आपको शादी करनी थी तो मुझे धोखे में क्यों रखा ?यह तो सरासर बेईमानी है.
विष्णु ने कहा - तुम तो संत हो . तुम्हें घर गृहस्थी के चक्कर में पड़ने का विचार भी नहीं करना चाहिए.
इतना कह विष्णु विश्वमोहनी को लेकर चले गये. एक आदमी ने नारद से कहा - आप बुद्धू है इसलिए नहीं जान पाये कि लक्ष्मी शासक के पास रहती है.
नारद कुछ नहीं बोले. चुपचाप खिसकते नजर आये. यद्यपि प्रकाशन के नाम पर उनकी प्रतिष्ठा कौड़ी के भाव बिक चुकी थी लेकिन संघर्ष के पथ से मुंह नहीं मोड़ा. आज भी जो बगल में पाण्डुलिपि दबाये प्रकाशकों के दरवाजे खटखटा रहे हैं , वे नारद ही है.

निर्बल के बलराम

नूतन प्रसाद 
श्रोताओं, मै तुम्हें एक कहानी सुनाऊंगा. तुम्हारी इच्छा सुनने की नहीं तो भी तुम्हारे कान में जबरदस्ती उड़ेल दूंगा. जबरदस्ती का जमाना है. जब भाषावादी क्षेत्रीयता की और जातिवादी लड़ाइयां अनिच्छा से लड़ रहे हैं तो मेरी कहानी भी सुननी पड़ेगी.
तो परम्परानुसार सर्वप्रथम गणेशजी को प्रणाम कर कहानी शुरु करता हूं. गणेशजी दूसरे देवताओं को ठगकर याने उनके अधिकार छीनकर प्रथम पूज्य बने थे वैसे ही दूसरी की लिखी कहानी तुम्हें सुनाकर सर्वश्रेष्ठ कहानीकार घोषित होना चाहता हूं . साहित्य की यही नियति है कि मुर्गी मिहनत करती है और अंडे फकीर खाता है. नाटककार पर्दे की पीछे दुबका रहता है तो कलाकार स्टेज पर वाहवाही लूटते हैं. तुलसीबाबा कथावाचकों के समक्ष कब नतमस्तक नहीं हुए.
मैं नतमस्तक हूं अकाल के आगे जो बिना बुलाये मेहमान बन जाता है. इस अतिथि का पदार्पण नहीं होता तो ग्रामीणों को नगर भ्रमण करने का मौका नहीं मिलता. सरकार को लोगों को सहायता देने की घोषणा करने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता. वैसे वह उस समय भी सहायता करने की घोषणा करती है जब लोग दंगे में मर जाते हैं. पहले से ही सुरक्षात्मक कदम उठा देगी तो दयालु कैसे कहलायेगी ! लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. राज्य शासन ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिये. उसने अकालग्रस्त क्षेत्र को सहायता देने की बात किसी को नहीं बताया. यहां तक कि विरोधी दल को भी इसका पता नहीं चला. वैसे विरोधी दल को कुछ मालूम भी नहीं रहता. उसके सदस्य की नीलामी हो जाने के बाद ही उसे ज्ञात होता है तब उसका सिर्फ एक काम बच जाता है - सत्ता पक्ष का विरोध करने का । विरोधपक्ष की परिभाषा में ही यह लिखा है कि वह सरकार की गलत नीतियों की ही नहीं वरन अच्छी नीतियों का भी विरोध करें.
नाजुक स्थिति को सुधारने के लिए तत्काल कार्यवाही करनी थी इसलिए रात को विधानसभा सत्र लगाया गया. सत्तापक्ष के सारे सदस्य धड़ाधड़ आ गये. एक मंत्री ने जुए की जीतती बाजी छोड़ दी. चार सदस्यों ने फिल्म आधी छोंड़ दी. पांच सदस्य बार रुम से सीधे यहीं दौड़े क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.
यद्यपि कागजी घोड़े नहीं दौड़ने थे,ठोस कार्य होना था फिर भी मुख्य सचिव, उपसचिवों को गुप्त रुप से बुला लिया गया. उन्हें सख्त आदेश दिया गया कि किसी सदस्य को निंद्रादेवी अपनी आलिंगन में लेती है तो बेमौसम पानी बरसा कर उन्हें जगा दें ताकि चलते कार्य में बाधा उपस्थित न हो क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.
उस रात बिजली बंद थी. मोमबत्तियां लालटेन खरीदने का वक्त नहीं था इसलिए कुर्सियों को जला कर रोशनी की गई. वैसे कई सदस्य चड्डी बनियान के सिवा बाकी कपड़ों को जलाकर सभा की कार्यवाही जल्दी निपटाने उत्सुक थे क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.
सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुई. अध्यक्ष को औपचारिकता पूरा करने का अवसर नहीं मिला. यहां तक कि मुख्यमंत्री भी बिना भूमिका बांधे कहने लगे - मित्रों आप लोगों को बताने की आवश्यकता नहीं कि भंयकर दुर्भिक्ष पड़ा है. लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं. सुनने में यहां तक आया है कि रोटियां बनाने के लिए घास भी नहीं मिल रही है इसलिए. . . . ।
चन्द्रभान ने बीच में छलांग लगायी - महोदय, मुझे लोगों के साथ सहानुभूति है लेकिन दो तिहाई सदस्य सहायता देना चाहते हैं कि नहीं इसके लिए मतदान तो हो जाय.
मुख्यमंत्री ने उनका गला दबाया -मैं जानता हूं कि तुम मेरी कुर्सी पर बैठना चाहते हो. इसके लिए षड़यंत्र भी रच रहे हो लेकिन इस वक्त तो टांग मत अड़ाओ.
चन्द्रभान चुप हो गये. मुख्यमंत्री फिर बोले - तो मेरा विचार है कि लोगों के पास चांवल, दाल, गेहूं , तेल यानि आवश्यक वस्तुएं जल्दी भेजी जाये. . . . . ।
प्रतापनारायण जिनका मुंह बहुत देर से बोलने के लिए खुजला रहा था ने मुंह मारा - मैं ये नहीं कहता कि लोग तड़प तड़प कर असार संसार त्याग दें पर यह भी तो पता होना चाहिए कि वे किसके समर्थक हैं. अगर विरोधियों के समर्थक हुए तो व्यर्थ खर्च करने से क्या लाभ ?
मुख्यमंत्री ने उनकी भी धुनाई की - शटअप, यही तुम्हारी शराफत है ! तुम्हारे जैसों के कारण ही सत्तापक्ष बदनाम होता है. कौन किसका है अभी देखने का समय नहीं है.
अन्य सदस्य चन्द्रप्रताप और प्रतापनारायण को धिक्कारने लगे. रामशरण ने कहा - मुख्यमंत्री जी ठीक कह रहे हैं. तुम दोनों ऐसे ही उटपुटांग वक्तव्य देते हो और सम्हालना हमें पड़ता है.
यह सच है कि ये दोनों हमेशा समाज विरोधी हरकतें करते हैं. पर उनका दल उबार ही लेता है अभी भी उन्होंने गलत बयान दिये हैं पर सुनने को मिलेगा कि चन्द्रप्रताप और प्रतापनारायण लोगों की दयनीय स्थिति का समाचार सुनकर रो पड़े.
मेरे साथ भी इसी प्रकार का उल्टा नियम लागू है. जिसे मैं कहानी कह रहा हूं वह हकीकत है. ऐसा भी हो सकता है कि कहानी मैंने शुरु की पर समाप्त कोई दूसरा करे. श्रोता भी सोच रहे होंगे कि विरोधी दल के बिना विधानसभा का सत्र कैसे लग गया. लो भाई, तुम्हारी बात मान लेता हूं- विरोधी आ ही गये. वे एक साथ दरवाजे से नहीं घुस सके तो खिड़कियों से अंदर पहुंचे. सबसे पहले उनने सरकार मुर्दाबाद के नारे लगाये. मुख्यमंत्री के पुतला जलाने का अवसर नहीं मिला तो संसदीय गाली का प्रयोग कर उनका दिल ही जलाया. इस पर अध्यक्ष ने आक्षेप किया तो विरोधी नेता ने कहा - हमें स्पष्ट रुप में बताया जाये कि रात में ही सत्र क्यों लगाया गया. इसकी सूचना हमें क्यों नहीं दी गई ?क्या जनता का दुख हमारा दुख नहीं है ?
मुख्यमंत्री ने लिखित उत्तर दिया- कार्यवाही तत्काल करनी थी. हमारे पास इतना समय नहीं था कि सुबह का इंतजार करते या तुम्हें सूचना देते.
विरोधी दल नाराज हो गया. वह वाक आउट कर गया. वह उस वक्त भी वाक आउट कर जाता है जब जनता के हित में प्रस्ताव रखा जाता है लेकिन इस समय वह लोगों का हित करने को कटिबद्ध था. वह लौट कर आया. जल्दी आया और कहा - बेमतलब देरी की जा रही है ! लोगों के ऊपर क्या बीत रही है किसी को पता है ! अगर सरकार अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकती तो इस्तीफा दे ।
सत्तापक्ष ने दुलत्ती लगायी - तुम्हें तो बस आलोचना करने का बहाना मिलना चाहिए. तुम्हारे कहने से इस्तीफा क्यों दे !सत्ता जनता ने सौंपी है इसलिए उसकी जल्दी सहायता करने हम खुद चिंतित हैं.
- खाक चिंतित हो ! लोग कितने दिनों से भूखे हैं. कमजोरी के कारण उन्हें बीमारियां तो नहीं लग गयीं. अगर लग गयी तो कौन सी दवाइयां देनी पड़ेगी इसके बारे में कुछ मालूम है ?
इस प्रश्न का सरकार के पास कोई जवाब नहीं था इसलिए तुरंत सात सदस्यों की एक कमेटी गठित की गई . जिसमें दो मंत्री, दो विरोधी, और तीन अधिकारी नियुक्त हुए . वे अकालग्रस्त क्षेत्र में गये और सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी एकत्रित कर लौट आये. ऐसे ही तथ्य लाने के वे आदि थे. एक बार भंयकर बाढ़ आयी. वहां की स्थिति का वे अवलोकन कर रहे थे कि एक आदमी डूबता हुआ दिखा. अधिकारियों को उसके ऊपर दया आयी तो उनने कहा - इसे कोई बचा लेता तो कितना अच्छा होता ?
विरोधियों ने कहा - बड़े उपकारी हो तो तुम्हीं बचा लो न !
मंत्रियों ने झगड़ा शांत किया - आपस में क्यों लड़ते हो ?कोई जिये या मरे इससे हमें क्या ! हम तो बस जानकारी एकत्रित करने आये हैं.
और उनने आदमी को मरने दिया पर कागजात सुरक्षित बचा कर ले आये. इस बार वे प्रमाण देने के लिएं चित्र भी खींच कर लाये थे तथा दुखी स्वर में बताया कि वहां की गंभीर स्थिति का वर्णन करने के लिए हमारे पास वाणी नहीं है लेकिन जल्दी सहायता नहीं पहुंची तो अनर्थ हो जायेगा. . . . ।
सत्ता और विरोध पक्ष की आवाज एक साथ निकली - तो यहां देरी कौन कर रहा है. हम भी तो यही चाहते हैं कि वहां की स्थिति सम्हालकर दूसरा काम करें.
सभा का कार्य सम्पन्न हुआ. सदस्यों ने पारित प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया. उनने कहा कि इसके कारण जेल जाने का दण्ड मिलेगा तो सहर्ष स्वीकार कर लेंगे लेकिन किसी भी स्थिति में समय नहीं गंवाना है. वाहनों में खाद्यान्न लदना शुरु हो गया. आधा कार्य हो चुका कि विरोध पक्ष की पैनी आंखों ने देखा कि सामान अत्यंत घटिया है. उसने तुरंत अपना कर्तव्य निभाया- ऐसी सरकार को धिक्कार है जो जीवन देने के नाम पर जहर खिलाने उतारु है. चांवल में कीड़े गेंहू में कंकड़ तो तेल से मिट्टी तेल की बू आ रही है. लोग इनके सेवन करेंगे तो उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा.
समान तुरंत बदला गया. स्वास्थ्य वर्धक तथा अच्छी वस्तुएं वाहनों पर लादी गई. भोजन पकाने में देरी होती इसलिए सेव, अंगूर, पेड़े रसगुल्ले भी रख लिए गये. वाहन रवाना होने वाले थे कि विरोध पक्ष ने कहा - हमें किसी पर विश्वास नहीं. बीच रास्ते में माल उतार लिये गये या डाकूओं ने लूट लिया तो मिहनत बेकार चली जायेगी. इसलिए समानों को सुरक्षित पहुंचाने के लिए हम भी साथ जायेंगे.
उनकी चालाकी को सत्तापक्ष ने ताड़ लिया. खाद्यमंत्री ने मुख्यमंत्री के कान में कहा - सर , दाल में काला नजर आ रहा है. ये अपनी खिचड़ी पकाने की सोच रहे हैं. देखिये न , सामान तो हम भेज रहे हैं लेकिन हमारे दुश्मन ये प्रचार कर सम्पूर्ण यश लूट लेंगे कि खाद्यान्न तो हम लाये हैं. अतः हमें साथ चलना होगा यही नहीं अपने हाथ से बांटेगे भी. . . ।
खाद्यन्न के साथ दोनों दल हो लिए. लो साहब, मैं वर्णन भी नहीं कर पा रहा पर वे अकालग्रस्त क्षेत्र मे पहुंच गये . सत्तापक्ष ने ऊंची स्वर में आवाज लगायी -भाइयों, हम तुम्हारी आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु लाये हैं. इसके लिए भारी मुसीबतें उठानी पड़ी पर कोई गम नहीं. तुम्हें सुख सुविधा देना हमारा कर्तव्य है. आओ, और अपना हिस्सा ले जाओ .
विरोध पक्ष भी पीछे न रहा. उसने भी ऊंची आवाज में चिल्लाया - दुखी मित्रों, सत्तापक्ष झूठा है. उसकी बातों पर विश्वास मत करो क्योंकि खाद्यान्न तो हम लाये हैं. आओ जल्दी आओ और अपने अधिकार की वस्तुएं ले जाओ. हम लूटने तैयार हैं.
इधर ये लोगों को आमंत्रित कर रहे थे पर दूसरी ओर से आदमी तो क्या उनकी आवाज तक नहीं आ रही थी. प्रतीक्षा करते बहुत देर हो गई तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. सत्तापक्ष ने चिड़चिड़ाकर कहा - अजीब तमाशा है. वैसे तो मांगे पूरी कराने अनशन, हड़ताल और प्रदर्शन करते हैं पर जब स्वयं मदद देने आये हैं तो उनकी सूरत तक नहीं दीख रही. कुछ भी हो जब सामान लाये हैं तो सौंपकर जायेंगे.
विरोध पक्ष भी भन्नाया - देखो इन घमन्डियों को, सरकार इनकी नहीं सुनती तो हमारी शरण में गिरते हैं लेकिन स्वयं कष्ट हरने आये है तो इनके मुंह सिल गये हैं. जवाब तक नहीं देते. तो हमारा भी प्रण है कि लायी हुई वस्तुओं को उनके मुंह में ठूंस देंगे.
कहानी रोककर बेताल ने विक्रमार्क से पूछा- राजन, तुम इस ध्रुव सत्य से परिचित हो कि कुंए के पास प्यासे को ही जाना पड़ता है लेकिन इस बार सत्ता और विरोध पक्ष पुराने सिद्धांतों की अवहेलना कर सहायता देने स्वयं पधारे हैं तो लोग उनके पास क्यों नहीं आ रहे है ! उन्हें तो खाद्य वस्तुओं पर टूट पड़ना था ?
विक्रमार्क शव को कंधे पर लादे चलता ही रहा क्योंकि वह शव से ही अतिशय प्रेम करता था. वह नहीं बोला तो बेताल ने पुनः कहा - तुम समय बर्बाद कर रहे हो. मैं लास्ट वर्निंग देता हूं कि दस के गिनते तक तुमने उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े - टुकड़े होकर बिखर जायेगा.
विक्रमार्क ठठाकर हंस पड़ा. बोला -बेताल, तुम बहुत जल्दी नाराज मत हो जाया करो. सोचो, भला मैं मर गया तो शासन कौन करेगा ! और अकालग्रस्त क्षेत्र के लोगो के सम्बंध में पूछते हो तो वे सहायता लेने आते ही कैसे, वे भी तो तुम्हारे समान लाश बन चुके थे !

एक और हरिश्‍चन्‍द्र

 
नूतन प्रसाद 

श और धन पाने की लालसा किसे नहीं रहती,पर मिले तो कैसे!आप ईमानदार हैं. सत्यपथ के राही हैं. बदनाम होंगे ही. कंगाल रहेंगे लेकिन चार सौ बीसी करेंगे. दूसरों का गला काटेगें तो यश और धन आपके कदम चूमेंगे.
उस दिन एक मंत्री जिसका नाम हरिश्चंद्र था मेरे पास आये. बोले-भैय्या,मैं जनता में लोकप्रिय होना चाहता हूं. अपनी जय जयकार कराना चाहता हूं. विरोधियों के कारण मेरी इच्छाओं पर तुषाराघात हो जाता है. तुम कोई ऐसा रास्ता निकालो,जिससे लोग मुझ पर श्रद्धा करें. जब तक सूरज चांद रहे तब तक मेरा नाम रहे.
मैंने कहा- आप लोग गरीबों के पैसे से ऐश करते हैं . जनता को धोखा देते हैं तो बदनामी मिलेगी ही. अब तक यह अच्छा हुआ कि बीच चौराहे पर पीटे नहीं गये.
- वह तो ठीक है पर तुम्हारे पास आया हूं तो कुछ तरकीब तो भिड़ाओ.
मैं लेख और जुबान से नेताओं का कच्चा चिठ्ठा खोलता हूं पर वास्तविकता यह है कि कुर्सी से चिपके रहने के उन्हें तरीका बताता हूं. श्रमिकों को क्रांति करने के लिए उकसाता हूं पर आंदोलन के समय कारखाने के मालिक का पक्ष लेता हूं. मैंने कहा- आप लोग कलयुग के राजा हैं. इन्द्र के समान सुरा पान करते हो. कृष्ण की रास रचाते हो. आप हरिश्चंद्र है और राजा हरिश्चंद्र के समान सत्यवादी,ईमानदार कहलाना चाहते हैं तो उनके ही कर्मों का अनुसरण कीजिये न !
उन्होंने पूछा - क्या सच ?
- हां,राम चरित्रवान थे पर रामलीला का राम दुराचारी होकर भी पूजित होता है. यह मूर्खता है लेकिन जब तक दुनिया में मूर्ख है,बुद्धिमानों को अपना स्वार्थ सिद्ध कर ही लेना चाहिये.
मैंने राशि का मिलान कर उसका गुण बता दिया तो वे बड़े प्रसन्न हुए. ज्योतिषी मोहन और महेन्द्र को एक राशि होने के कारण एक ही प्रकार का फल बता देता है पर मोहन को पदोन्नति मिल जाती है और महेन्द्र निलम्बित हो जाता है. कोई जीये या मरे ज्योतिष को क्या मतलब!उसकी तो जेब गर्म होनी चाहिये.
हरिश्चंद्र ने नेक सलाह देने के बदले मुझे पुरस्कार दिलाने का आश्वासन दिया और चले गये. वे एक दिन अन्य मंत्री विश्वामित्र के पास पहुंचे. बोले- मैं अपना विभाग तुम्हें दान करना चाहता हूं.
विश्वामित्र चकराये-बिना मांगे मोती कैसे मिल रहा है. उन्होंने कहा- तुम पगला गये हो क्या!अपना विभाग मुझे सौंप रहे हो. यहां तो मंत्री पद पाने के लिए एक दूसरे की गर्दन काटी जाती है.
- तुम्हें इससे क्या मतलब,लेनी है या नहीं.
- लूंगा क्यों नहीं. दस विभाग मिले फिर भी संभाल लूंगा. छप्पर फाड़ कर आये धन को कोई लतियाता है!एक विभाग ने कार बंगला दिया तो दूसरा एकाध कारखाना खुलवा देगा. तुम्हारी बात स्वीकार है पर तुम छोड़ क्यों रहे हो कारण भी तो ज्ञात हो. क्या साधु बनने जा रहे हो?
हरिश्चंद्र ने बताया-वैसे साधु बनना उत्तम है. क्योंकि उसे बिना मिहनत किये भोजन मिल जाता है. साथ ही उसकी पूजा भी होती है. लेकिन अपनी समस्या यह नहीं. दरअसल मैं एक नाटक खेलना चाहता हूं.
- कैसा नाटक. . . ।
- तुम अच्छी तरह जानते हा कि आज हर कोई नेताओं के ऊपर ऊंगली उठा रहा है. इसलिये इनकी छवि को चमकाने के लिए हरिश्चंद्र का नाटक खेलना चाहता हूं. मुझे विश्वास है कि तुम पात्र बनकर मेरी सहायता करोगे. खेल खत्म होने के बाद मेरा विभाग मुझे वापस करने के लिए नाटकबाजी नहीं करोगे.
और हरिश्चंद्र ने अपना विभाग विश्वामित्र को थमा दिया. इसके बाद वे अपनी पत्नी तारा तथा रोहित को लेकर गली-गली चिल्लाने लगे-है कोई हमें खरीदने वाला. हम नीलाम होने को तैयार है.
शहर के चौराहे पर मजदूर रोज बिकते हैं. पर हल्ला नहीं मचता. लेकिन नेता बिक रहे थे तो भीड़ लग गई. लोगों ने पूछा- आपके पास कोई कमी नहीं है फिर क्यों बिक रहे हैं.
हरिश्चन्द्र ने स्पष्ट किया-भाइयों,जैसे ढोल के अंदर पोल रहता है वैसी ही स्थिति मेरी है. मैंने अपनी सारी पूंजी गरीबों में बांट दी तथा जनता की भलाई के लिए मद से अधिक खर्च कर दिया पर यही उदारता मेरे लिए घातक हो गई. सरकार मुझसे रुपये वसूलना चाहती है. मैं कंगाल तो हो ही गया हूं. रुपये कहां से लाऊं इसलिए मुझे परिवार सहित बिकना पड़ रहा है. कोई बात नहीं ,चाहे मैं नीलाम हो जाऊं पर जनता की सेवा करना छोड़ नहीं सकता.
लोग हरिश्चन्द्र की प्रशंसा करने लगे-इनके समान त्यागी पुरुष कौन होगा. धन्य है हरिश्चन्द्र,इनकी जय हो.
हरिश्चन्द्र ने कहा- मुझ जैसे अभागे का गुणगान क्यों करते हो !मुझे खरीदो साथ में पत्नी और बच्चे को भी . . . ।
लोगों को पता चला कि तारा बिकने वाली है तो अनेक ग्राहक मैदान में कूद पड़े. उनमें मारा मारी हो गई. अपने देश में नारी पूज्य है. अतः बिकती है. उसका सम्मान हम करते हैं इसलिए जिन्दा जला देते हैं और कहते हैं-वह सती हो गई. खिड़की दरवाजा बनाने के लिए लकड़ियों का अभाव है पर नारी दहन के लिए नहीं. इस देश को बारम्बार प्रणाम .
तारा बिक गई साथ ही रोहित भी. रोहित को भीख मंगवाने के लिए खरीद लिया गया होगा. बच्चे सबसे अच्छे और आंखों के तारे होते है. इसलिए उनके हाथ पांव तोड़ कर भीख मंगवाये जाते हैं. आंदोलन करना हो तो बच्चों को सामने कर दो. वे गोलियों के शिकार हो जाये तो कह दो कि वे वीर थे. हंसते- हंसते शहीद हो गये.
अब हरिश्चन्द्र को अपने को बेचना था. उन्हें विरोधियों या उद्योगपतियों के पास बिकना होता तो कब के बिक चुके होते. उन्हें आम आदमी के पास बिक कर खास बनना था. वे डोम के पास पहुंचे. बोले- अबे,तुम्हें मुझे खरीदना पड़ेगा.
डोम सकपकाया. बोला-सरकार आप कैसी बातें कर रहे हैं. राजा को प्रजा कैसे खरीदेगी. गंगुवा को भोज ने खरीदा था क्या ?
- मुझे ज्ञात है कि तेरा बाप भी नहीं खरीद सकता पर सिर्फ हां कह दे.
- जब खरीदना ही नहीं है तो झूठ क्यों बोलूं ?
- बड़ा सत्यवादी है न जो सच ही बोलेगा. सच के सिवा कुछ नहीं बोलेगा. अरे,जब मैं ही दली हूं,प्रपंची हूं. तो तुम्हें झूठ बोलने में क्या हैं. जैसे राजा वैसी प्रजा को भी होनी चाहिए.
डोम ने डरकर हरिश्चन्द्र को खरीद लिया. हरिश्चन्द्र तत्काल मरघट आये और कर वसूलने लगे. वे जलती लाश को देखकर प्रसन्न होते कि जनसंख्या तो कम हो रही है. जीवित मनुष्य नेताओं के कुकर्मों का विरोध करते अतः उनके मरने पर वे विजयगान गाते हैं. लेकिन उनकी कलुषित भावना को कोई पढ़ न पाये इसलिए श्रद्धांजलि अर्पित कर देते हैं. यही नहीं वे कफन और लकड़ियों का भी इंतजाम कर देते हैं ताकि वे पुण्यात्मा कहलायें.
एक आदमी मर गया. उसे जलाने के लिए लकड़ियां नहीं मिल रही थी. तो एक नेता ने प्रबंध कर दिया. यही नहीं वे लाश को भस्म करने के लिए बांस मारने लगे. मैंने उनसे पूछा- आपको पुल का उदघाटन करने जाना था पर आप यहां डंटे हैं,ऐसा क्यों ?
वे मुझ पर चिढ़ गये. बोले-तुम बड़े अधर्मी हो. तुममे मनुष्यता लेशमात्र नहीं है. यदि लाश को छोड़कर चला जाता हूं तो लोग मुझ पर थूकेंगे नहीं.
-अपनों से कभी झूठ बोला जाता है. आप सच सच बताइये.
उन्होंने इधर उधर देखा. जब उन्हें विश्वास हो गया कि हमारी बात सुनने वाला कोई नहीं है तो वे बोले-हकीकत यह है कि मृतक मेरा विरोधी है. मैं उसे छोड़कर इसलिए नहीं जा रहा हूं कि वह पुनः जीवित न हो जाये. यदि वह जिंदा हो गया तो मेरा बखिया उघेड़ देगा. इसलिए उसे राख में बदले बिना यहां से मैं हट नहीं सकता.
इधर हरिश्चन्द्र अपने कर्तव्य का पालन सहजता पूर्वक रहे थे. उधर एक दुर्घटना यह घट गई. रोहित को सांप ने डस लिया. उसे चिकित्सकों के पास दिखाया गया पर वे ठीक न कर सके. चिकित्सकों को अलग से फीस नहीं मिली होगी. चिकित्सक वेतन पाते हैं पर उन्हें फीस न मिले तो रोगी को बिना टिकट स्वर्ग की सैर करा देते हैं. रोहित का प्राण नहीं बचे तो तारा रोती पीटती उसे मरघट लायी. इसके लिए पाठकों से अनुरोध है कि वे तारा के दुख से द्रवित होकर आंसुओं की नदी न बहा डालें क्योंकि यह नाटक है. हकीकत नहीं. नाटक फिल्म और प्रेमपत्र सत्य पर आधारित नहीं होते. फिल्म में गरीब की भूमिका निभाने वाला पात्र वास्तविक जीवन में करोड़पति होता है. मरियल अभिनेता दस-बीस गुण्डों की धुलाई एक साथ कर देता है. साध्वी-पतिव्रता दिखने वाली अभिनेत्री के पांच-पांच प्रेमी होते हैं.
तारा ने जैसे ही रोहित का अग्नि संस्कार करने का विचार किया वैसे ही हरिश्चन्द्र दौड़ कर आये. डपट कर बोले-ऐ स्त्री,तुम कौन हो यह किसका लड़का है.
तारा ने कहा-आप कितने निष्ठुर हैं. अपनी पत्नी और बच्चे को भी भूल गये.
-कैसी पत्नी,कैसा बच्चा. न तो मैं किसी को पहचानता हूं न पारिवारिक सम्बन्धों पर मेरा विश्वास है. कर पटाये बिना मैं दाह संस्कार करने ही न दूंगा.
-भांग तो नहीं छान लिए हैं. लोग परिवार के लिए दुनिया भर की बेईमानी करते हैं पर आप ईमानदारी दिखा रहे हैं. लानत है ऐसे पति पर. . . ।
पत्नी को नाराज देखकर हरिश्चन्द्र को हकीकत पर उतरना पड़ा. बोले- तुम समझती क्यों नहीं. पल-पल में मुंह फूला लेती हो. मैं अपने परिवार के लिए ही तो दंद फंद कर रहा हूं. बस,कुछ क्षण धैर्य रखो फिर इस संसार में हम लोग ही पूज्य होगे.
रोहित जो मरने का ढोंग करते उकता गया था,बोला-पिता जी ड्रामा जल्दी खत्म कीजिये. परीक्षा देने का समय आ गया है. पढ़ाई बिलकुल नहीं हुई है. उत्तीर्ण कैसे होऊंगा !
हरिश्चंद्र ने कहा - तुम उसकी चिंता बिल्कुल मत करो क्योंकि जनरल प्रमोशन दे दिया गया है.
- क्या, सच ?
- हां, आखिर तूने सच बोलने के लिए मजबूर कर ही दिया.
हमारी सरकार बड़ी उदार है. वह अनुत्तीर्ण होने लायक विद्यार्थियों को भी उत्तीर्ण कर देती है. परीक्षा बोर्ड की उपयोगिता समाप्त हो गयी है. इसलिए उसे भंग कर देना चाहिए.
उनका नाटक पुनः प्रारंभ हुआ. तारा ने आंसू गिराते हुए कहा- स्वामी मैं कर पटाने के लिए रुपए कहां से लाऊं ?
हरिश्चन्द्र ने फटकारा - चोरी करो,डांका डालो पर कर तो पटाना ही पड़ेगा. तुम्हारे लिए नियम बदल देता हूं तो दुनियां क्या कहेगी.
- आप मुझ पर नहीं तो कम से कम अपने बच्चे पर तो रहम खाइये. उसका दाहकर्म तो होने दीजिए.
हरिश्चन्द्र आग के शोले बन गये - तुम मुझे सत्यपथ से डिगाने आयी हो. बेईमानी बनाकर मुझ पर कलंक लगाना चाहती हो. हट जाओ सामने से वरना मार डालूंगा.
हरिश्चन्द्र जैसे ही तारा को मारने दौड़े कि विश्वामित्र धड़ाम से कूदे. बोले - बस करना यार,तुम्हारी इच्छा तो पूर्ण हो गई. तुम्हारे यश का डंका सर्वत्र बज रहा है. लोग तुम्हारी जय- जयकार रहे हैं.
हरिश्चन्द्र प्रसन्नता के मारे उछल पड़े. उन्होंने पूछा- क्या सच ?क्या मैं सत्यवादी और ईमानदार मान लिया गया ?
- और नहीं तो क्या ? दूरदर्शन,आकाशवाणी और समाचार पत्रों के द्वारा तुम्हारे यश का प्रचार हो चुका है. अब अपना विभाग सम्हालो और मौज करो .
हरिश्चन्द्र ने अपना विभाग झटका और पूर्ववत मंत्री बन गये.
  • भंडारपुर ( करेला ) पोष्‍ट - ढारा, व्‍हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव ( छ.ग.)

रविवार, 21 जुलाई 2013

मई 2013 से जुलाई 2013

इस अंक में 
कहानी
विपात्र : गजानंद माधव मुक्तिबोध       
दो मजबूत  पैर : हीरालाल अग्रवाल 
चुनाव मेरे शहर का : पद्या मिश्रा
परली तरफ के लोग : मनीष कुमार सिंह
अनुवाद
बुलबुल अउ गुलाब : कुबेर
लघुकथाएं
तकरार :  लियो वोत्स्तोम
व्यंग्य
जीवनी चोखेलाल की : वीरेन्द्र ' सरल'
बोध कथा
परीक्षा : शिवम वर्मा
गीत / गज़ल / कविता
हौसला भी उड़ान देता है :  अशोक अंजुम, छत्‍तीसगढ़ के माटी : राजेन्द्र पटेल , केशव शरण की दो ग़ज़लें, अभिनंदन छंद उगाते चल:  विद्याभूषण मिश्र , समर शेष है :  रामधारी सिंह दिनकर, ग्रीष्‍म की त्रिपदियॉं :   आनन्द तिवारी पौराणिक, ग़ज़ल : राजेश जगने ' राज ', कौन हो तुम : आलोक तिवारी , मॉं : दिलीप लोकरे   
पुस्तक समीक्षा
अकथ कहानी की कहानी के भीतर - बाहर :  डॉ. जीवन यदु 

साहित्यिक सांस्‍कृतिक गतिविधियां
छत्तीसगढ़ी कथा कंथली का विमोचन

फरवरी 2013 से अप्रैल 2013

अनुक्रमणिका 
सम्‍पादकीय
कहानी
बिन्दा : महादेवी वर्मा                  
लाश : कमलेश्वर           
झलमला : पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी 
लड़की : सुरेन्द्र अंचल    
सफा काका : डाँ. रामशंकर चंचल
व्यंग्य
शांतिदूत : नूतन प्रसाद
लघुकथाएं
अफसोस : मनोज आजि़ज
मोहभंग : डॉ. बच्चन पाठक ' सलिल ' 
बालकथा
सुरीली मैना और मोती : डॉ. मंजरी शुक्ल
गीत 
बिरछा ल झन काट - पीसी लाल यादव,
गज़ल़ 
मेरे करीब ओ - मो. कासिम खान ' तालिब '
खामोश हर मंजर है : जितेन्‍द्र ' सुकुमार '

अमृत ध्‍वनि -  श्‍याम ' अंकुर '


विजय राठौर 
व्यक्तित्व
भारतीय आर्य संस्कृति की इमारत पर खड़े  कवि सत्यनारायण जटिया ' सत्यज ' : जगन्नाथ ' विश्व '
पुस्तक समीक्षा
यूरोपीय काव्यदृष्टि की सरल व्याख्या- पाश्चात्य काव्य दर्शन
समीक्षक - डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी
छत्तीसगढ़ी संस्कृति की गलत जानकारी देना अक्षम्य :  समीक्षक - कुबेर
साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियाँ
राज्य स्तरीय साहित्यिक संगोष्ठी एवं पुस्तक विमोचन समारोह संपन्न

नवम्‍बर 2012 से जनवरी 2013

अनुक्रमणिका
सम्‍पादकीय : अतिथि संपादक दादूलाल जोशी ' फरहद ' की कलम से
आलेख 
प्रेमचंद मुंशी कैसे बने : डॉ. जगदीश व्‍योम
व्‍यंग्‍य का सही दृष्टिकोण - हरिशंकर परसाई : डॉ. प्रेम जनमेयजय
निज भाषा उन्नति, सब भाषा मूल : जया केकती
बच जायेगी दुनिया, अगर बेटियॉं बचाओगे : गरिमा ' विश्‍व '
शोषण से लेकर सशक्तीकरण का सफर : डॉ. प्रीत अरोड़ा
कहानी 
अनुभव : मुंशी प्रेमचंद
गउ हतिया ( छत्‍तीसगढ़ी ) : सुरेश सर्वेद
व्‍यंग्‍य
मुण्‍डन : हरिशंकर परसाई
गंध, खुशबू और बदबू : कुबेर
लघुकथाएं 
नशा : खलील जिब्रान
व्‍यवस्‍था : शिवनारायण
शांतिमार्ग : विष्‍णु नागर
अपना पराया : हरिशंकर परसाई
गीत / ग़ज़ल / कविता 
एक पर्व अंगारों का : आचार्य सरोज व्दिवेदी, मेरा मन बैरागी : इब्राहीम कुरैशी, गीत मेरा गॉंव : गणेश यदु, जांगर के गीत : डॉ. पीसीलाल यादवआ...क..थूं..ह.. : सुरेन्‍द्र अंचल, चल संगी रे  : प्रदीप देशमुख 'कोटिया', ग़ज़ल : मुकुन्‍द कौशल, दो ग़ज़लें : जितेन्‍द्र ' सुकुमार '

अगस्‍त 2012 से अक्‍टूबर 2012

इस अंक के रचनाकार
आलेख
छत्तीसगढ़ी साहित्‍य में समकालीन चेतना : अशोक सिंघई
कहानी
क्‍या वह रघुनाथ नहीं था : कुबेर
घासवाली : मुंशी प्रेमचंद
लघुकथाएं 
ब्रम्‍हभोज : शोभा रस्‍तोगी ' शोभा '
नास्तिक : गुरप्रती सिंह
आंकाक्षा यादव की दो लघुकथाएं
गीत 
नवजागरण : जगन्‍नाथ ' विश्‍व '
दो छत्‍तीसगढ़ी गीत : पीसी लाल यादव
ग़ज़ल
कहीं लगा खुशियों के पौधे : मुकुंद कौशल 
कविता
ले चल वहां भुलावा देकर : जयशंकर प्रसाद
छाती म गोली खा बे : शरद शर्मा
ऐसा तो नहीं होता : आलोक तिवारी
करवट : नरइंदर
गिरीराज खोजो : स्‍व. वासुदेव प्रसाद 
सुरता 
ममतामयी मिनीमाता - तीन यादें : दादूलाल जोशी ' फरहद ' 
पुस्‍तक समीक्षा
जीवनपथ के गीत सारथी : पं. रमाकांत शर्मा - डॉ. गणेश खरे
साहित्यिक सांस्‍कृतिक गतिविधियां
आकांक्षा यादव को डॉ. अम्‍बेडकर फेलोशिप राष्‍ट्रीय सम्‍मान 2011

शनिवार, 20 जुलाई 2013

मई 2012 से जुलाई 2012

अनुक्रमणिका 
आलेख 
महिला सशक्तिकरण की सशक्‍त सूत्रधार - फूलबासन : आकांक्षा यादव
कहानी 
अंधेर : मुंशी प्रेमचंद
जाति : दादूलाल जोशी ' फरहद '
सावन का अंधा : कुबेर
क्रिसमस : मनीष कुमार सिंह
व्‍यंग्‍य 
पवित्रता का दौरा : हरिशंकर परसाई
लघुकथाएं 
इलाज : विष्‍णु नागर
भय : महेश दर्पण
रोशनी : मुरलीधर वैष्‍णव
खिड़की : एलन सनेगर
असंवाद : खलील जिब्रान 
बेताल पच्‍चीसी
कविता 
पड़ाव : पं. रमाकांत शर्मा, प्रश्‍न चिन्‍ह : हीरालाल अग्रवाल, खुद सूरज कोतवाल : भा. ला. श्रीवास्‍तव ' भारतीय '
मंहगाई के सुरसा : कांशीपुरी कुंदन
साहित्यिक सांस्‍कृतिक गतिविधियां 
वेदना से निकलकर संवेदना में निखरती है कविता ( दूर क्षितिज ) का विमोचन 


फरवरी 2012 से अप्रैल 2012

इस अंक के रचनाकार
 सम्‍पादकीय : एक ही विधा पर लेखन सफलता दिलाती है
आलेख
बदली हुई भाषा और छत्तीसगढ़ की लोक संस्‍कृति : डॉ. जीवन यदु
समकालीन बोध और स्‍त्री विमर्श : दादूलाल जोशी ' फरहद '
कहानी
नया नीड़ : सनत कुमार बाजपेयी ' सनातन '
भाड़े का मकान : डॉ. रामचन्‍द्र यादव
वह एक लड़की : डॉ. तारिक असलम ' तस्‍नीम '
रण म जीत ( छत्तीसगढ़ी ) सुरेश सर्वेद
व्‍यंग्‍य
ग्राम बसे सो भूतानाम् : नूतन प्रसाद
पुराने चीजों को टिकाने की कला : कांशीपुरी कुंदन
गीत
एक सितारा छत्‍तीसगढ़ : इब्राहीम कुरैशी, बसंत के बाजार में : हरीराम पात्र, सुर मिला लें : श्रीमती सुधा शर्मा, स्‍वर्णिम सी प्रात: जगन्‍नाथ ' विश्‍व ', ऋतुआ आ गे : आत्‍माराम कोशा ' अमात्‍य '
गज़ल 
चुप रहो : ज्ञानेन्‍द्र साज, राम भजो : अशोक ' अंजुम ', हमने उसके शहर में : जितेन्‍द्र कुमार ' सुकुमार '
कविता 
अनुभूति मान मर्दन : आनंद तिवारी पौराणिक, सेवा बर उबकाई : विद्याभूषण मिश्र, भील बच्‍चा : डॉ. रामशंकर ' चंचल ', श्‍मशान : आकांक्षा यादव 
सुरता 
फक्‍कड़ कवि थे निराला : कृष्‍ण कुमार यादव
पुस्‍तक समीक्षा 
सौन्‍दर्य भी है और सुगंध भी : मुकुंद कौशल
अस्‍वाभाविक कथानकों वाला कहानी : कुबेर
कचना धुरवा खंड काव्‍य : सुभद्रा राठौर
छत्‍तीसगढ़ी गीतों की नई बानगी : सुनीता तिवारी
साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियां 
कुबेर में बहुत कुछ संभावनाएं है : विनय पाठक

नवम्‍बर 2011 से जनवरी 2012

अनुक्रमणिका 
सम्‍पादकीय : फिर विवादित हुआ सम्‍मान ?
आलेख 
श्रम और सौन्‍दर्यशास्त्र : डॉ. गोरेलाल चंदेल
कथावाचन परम्‍परा : वी. के. शुक्‍ल
कहानी 
बड़े आदमी ( छत्तीसगढ़ी )
क्रोध का मंत्र : गिरीश बख्‍शी
आशा से आकाश थमा है : सुरेश सर्वेद
भोमरा ( छत्तीसगढ़ी ) सुधा वर्मा
नचकार ( छत्तीसगढ़ी ) : मंगत रवीन्‍द्र

व्‍यंग्‍य 

प्रसिद्धि पाने के लिए : नूतन प्रसाद
छछुन्‍दर क्‍या जाने अदरख का स्‍वाद : डॉ. तारिक असलम ' तस्‍नीम '
नाटक 
अंगरा के अंजोर : डॉ. जीवन यदु
कविता 
आधारशीला : प्रो. डॉ. जयजयराम आनन्‍द,पानी : डॉ. पीसीलाल यादव, बचपन : हरप्रसाद निडर,
अम्‍मा ऐसी बहू लाना : आलोक तिवारी
गीत 
मन म गजब उमंग रे : मुकुंद कौशल
ग़ज़ल :
पत्‍थरों से सर टकराने का अंजाम मिला : जितेन्‍द्र ' सुकुमार ',
सुरता 
विश्‍वंभर यादव ' मरहा ' : ओमप्रकाश साहू ' अंकुर '
पुस्‍तक समीक्षा 
माटी के सोंध - सोंध भरे कविता संग्रह : सरला शर्मा

अगस्‍त 2011 से अक्‍टूबर 2011

इस अंक के रचनाकार 
आलेख 
 प्रेम अनुराग का लोकस्‍वर : ददरिया  - डॉ. पीसीलाल यादव
कहानी 
बासी भात में खुदा का साझा : मुंशी प्रेमचंद
अभागिन : डॉ. रामशंकर चंचल
भरका ( छत्‍तीसगढ़ी ) : मंगत रवीन्द्र
फूटहा छानी ( छत्‍तीसगढ़ी ) सुरेश सर्वेद
बड़की भौजी ( छत्‍तीसगढ़ी ) हरप्रसाद निडर
व्‍यंग्‍य 
थ श्री अस त्‍य नारायण व्रत कथा : नूतन प्रसाद
शोले उगलते लोग : कांशीपुरी कुंदन
सुरता 
छत्‍तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा के पुरखा : दाऊ मंदराजी - कुबेर
गीत / ग़ज़ल / कविता 
जितेन्‍द्र जौहर के दोहे, इज्‍जत अउ परान : शरद शर्मा, लोग जो नाकाम हो करके जीये : ज्ञानेन्‍द्र साज, करम दिखता है क्‍या नगीने में : राजेश जगने ' राज ', रही तड़पती आंसुओं में  : ओमरायजादा, औरत: श्रीमती सुधा शर्मा, खदीजा खान की कविताएं, नव विश्‍वास जगाए बाबा : इब्राहीम कुरैशी, जिधर देखूं उधर मुझको : विजय ' तन्हा ', हाथों के फूटेगें छाले एक दिन  : जगन्‍नाथ ' विश्‍व ', नहीं सुलझते हैं सुलझाये : रामेश्‍वर प्रसाद ' इंदु ' , मेरे गीतों में आओ : पं. रमाकांत शर्मा, अम्मा : आलोक तिवारी, ओ सावन, ओ मनभावन : धर्मेन्‍द्र गुप्‍त ' साहिल ',राना लिधौरी के हाइकु
विचार
समवेत प्रयास से ही राजभाषा समृध्‍द होगी : सुनील कुमार ' तनहा '
पुस्‍तक समीक्षा 
आदर्श और यथार्थ के बीच संतुलन बनाती कहानियां - कुबेर
दोपहर में खिले गुलमोहर की याद दिलाती कविताएं : त्रिभुवन पाण्‍डेय
साहित्यिक सांस्‍कृतिक गतिविधियां 
साहित्‍यांचल शिखर सम्‍मान समारोह आई.टी.एम में सम्‍पन्‍न
' रोशनी का घट( अशोक अंजुम : व्‍यक्ति एवं अभिव्‍यक्ति ) ' का पद्मभूषण नीरज व्दारा लोकार्पण
सुरता हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय समारोह संपन्‍न

मई 2011 से जुलाई 2011

अनुक्रमणिका
आलेख 
गाथाऔर इतिहास : कुछ अनुत्‍तरित प्रश्‍न : जीवन यदु
कहानी 
मरहा राम के जीव : कुबेर
उसकी पत्‍नी बेचारी : गिरीश बख्‍शी
व्‍यंग्‍य 
गांव के भगवान : नूतन प्रसाद
लघुकथाएं 
मॉं की ममता, शिकायत : डॉ. तारिक असलम ' तस्‍नीम '
कविता
प्रेम नदी की धार : हरगोविन्‍द पुरी
ग़ज़ल 
राम भजो : अशोक ' अंजुम ', राह चलते नहीं : ज्ञानेन्‍द्र साज
पुस्‍तक समीक्षा 
आम्‍बेडकरवादी कविताएं : किसान दीवान

फरवरी 2011 से अप्रैल 2011

इस अंक के रचनाकार
सम्‍पादकीय : क्‍या संस्‍कृति विभाग अपनी चैतन्‍य अवस्‍था का परिचय देगा ?
सुरता
अन्‍तर्वेदना के कवि डॉ. रतन जैन : वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह
कहानी
एक पाव की जिंदगी: रामनाथ शुक्‍ल ' श्रीनाथ '
पथराई ऑंखें : मनोज शुक्‍ल ' मनोज '
आमेली ( अनुवाद ) : कृष्‍ण कुमार ' अजनबी '
चायवाली अम्‍मा : नरेश श्रीवास्‍तव
आ अब लौट चलें : गोपाल सिंह कलिहारी
संपत अउ मुसवा (छत्‍तीसगढ़ी )  : कुबेर
एक चरवाहा साहित्‍यकार की कथा : सुरेश सर्वेद
व्यंग्‍य
दर्शन - प्रदर्शन : रामसाय वर्मा
लघुकथाएं
अलाव : डॉ. रामशंकर चंचल
प्रदर्शनी : गार्गीशरण मिश्र ' मराल '
चिंगारियां : मुहम्‍मद बशीर मालेरकोटलवी
अफसर : डॉ. महेन्‍द्र कुमार ठाकुर
कविता 
मॉं और मैं : भीखम गांधी ' भक्‍त ' भोजन :यशवंत मेश्राम
गीत
आसमान से कितने ही तारे : श्रीमती रवि रश्मि अनुभूति,कलम जागरण गाती है : हरप्रसाद ' निडर ',धावा बोल रहे हैं : सुनील कुमार ' तनहा '
ग़ज़ल 
अब्‍दुस्‍सलाम कौंसर की चार ग़ज़लें, मुझे जिंदगी में क्‍या मिला : श्रीमती गरिमा पटेल 
पुस्‍तक समीक्षा 
जीवन के विभिन्‍न रंग दिखाती कहानियां : ओमप्रकाश कादयान
साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियॉं 
डॉ. विनय पाठक के सम्‍मान में हुई कविता गोष्‍ठी

नवम्‍बर 2010 से जनवरी 2011

इस अंक के रचनाकार
सम्‍पादकीय : छ.ग. शासन व्‍दारा महान विभूतियों के नाम पर दिये
जाने वाले राज्‍य सम्‍मान, अलंकरण और पुरस्‍कार
आलेख 
प्रेमचंद की सामाजिक चेतना : डॉ. श्रीमती शीला शर्मा
कहानी
डाक बंगला : कृष्‍णा रंजन शास्‍त्री
धनबहार के छांव म ( छत्‍तीसगढ़ी ) : सुधा वर्मा
रईस बेटा : परसराम चन्‍द्राकर
नचकार : मंगत रवीन्‍द्र
शादी में न जाने पर : गिरीश बख्‍शी
व्‍यंग्‍य 
लेखक बने के सउंख ( छत्‍तीसगढ़ी ) सुशील भोले
जंगल में मंगल : नूतन प्रसाद
कविता 
कैसे मन मुस्‍काये : डॉ. जयजयराम आनंद, उस सुबह के लिए : आनंद तिवारी पौराणिक, वे इधर से उधर : रमेश चन्‍द्र शर्मा ' चन्‍द्र '
गीत 
गुलशन की मैं : डॉ. जीवन यदु
गज़ल
गुलों पे अब नहीं : डॉ. दीप बिलासपुरी 
व्‍यक्तित्‍व 
छत्‍तीसगढ़ में उर्दू शायरी की पहचान कौसर : वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह
पुस्‍तक समीक्षा 
लोक की कहानी : डॉ. गोरेलाल चंदेल

अगस्‍त 2010 से अक्‍टूबर 2010

इस अंक के रचनाकार 
सम्‍पादकीय राजनांदगांव के साहित्‍यकारों को उपेक्षा और अनादर का बोझ ढोना ?
कलेक्‍टर परदेशी इस पुनरावृत्ति पर लगाएंगे अंकुश ?
आलेख 
कृषि संस्‍कृति और हरेली : डॉ. गोरेलाल चंदेल
राष्‍ट्रभाषा और उसकी समस्‍याएं : मुंशी प्रेमचंद
कफन - ऊर्जावान कहानी : यशवंत मेश्राम
कहानी 
कफन : प्रेमचंद
सड़क : जसवंत सिंह विरदी
धुंए की लकीर : श्रीमती निर्मला बेहार
चिन्‍हारी ( छत्‍तीसगढ़ी ) : सुशील भोले
लोककथा
अगमजानी : मंगत रवीन्‍द्र
व्‍यंग्‍य 
कारागर जाएं और मेहमानबाजी का लुफ्त उठाएं : डॉ. तारिक असलम ' तस्‍नीम '
कविता
अश्‍वत्‍थामा के घुघवा करनी : डॉ. जीवन यदु, छै ठन तिनगोडि़या : आनंद तिवारी पौराणिक
गज़ल 
दुआ का होना : ज्ञानेन्‍द्र साज, शाहे जहां का होकर : अशोक सेमसन, फिर पुराने राग : ओम रायजादा
पुस्‍तक समीक्षा 
यही तो समय है : कुबेर
साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियां 
गोदान को फिर से पढ़ते हुए का लोकार्पण

मई 2010 से जुलाई 2010

इस अंक के रचनाकार 
सम्‍पादकीयबख्‍शी सृजनपीठ के पदाधिकारियों की मनमानी आखिर कब तक ...?
( कलेक्‍टर सिद्धार्थ कोमल सिंह परदेशी बधाई के पात्र )
आलेख 
आंसू के कथावस्‍तु : वीना शुक्‍ल
छत्‍तीसगढ़ बिहाव और लोकगीत : सुरेश सर्वेद
कहानी 
डर : नरेश श्रीवास्‍तव
गमछा के छोर में बंधाये कानून : दादूलाल जोशी ' फरहद '
सुहाग चिन्‍ह : जसवन्‍त सिंह बिरदी
उजाले की नीयत : कुबेर
व्‍यंग्‍य 
अपराधी आश्रम में कवि सम्‍मेलन : कांशीपुरी कुन्‍दन
लघुकथाएं 
कलयुगी अमृत : आचार्य सरोज व्दिवेदी
जिम्‍मेदारी : भावसिंह हिरवानी
पूज्‍य पिताजी : विष्‍णु प्रभाकर
विषपान एवं अन्‍य लघुकथाएं : नूतन प्रसाद
बालकथा 
पुरस्‍कार चतुराई का : सृष्टि शर्मा
गीत
जल है तो कल है : देवनारायण निषाद शिक्षक, मन फागुनी हे आज संगी : आनन्‍द तिवारी पौराणिक, थोकन बइठ ले : बिहारी साहू
ग़ज़ल 
किया है वादा : महेन्‍द्र राठौर
कविता
केशर की क्‍यारी : लक्ष्‍मीनारायण, परिन्‍दों का अंतर्ज्ञान : विजयप्रताप सिंह, भ्रम : डॉ. बल्‍दाऊ निर्मलकर, तेरी दुनिया : जितेन्‍द्र कुमार ' सुकुमार '
पुस्‍तक समीक्षा 
गीत निडर के गाता चल : प्रो. जी.सी. भारव्‍दाज

साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियां 
उजाले की नीयत कहानी संग्रह पर समीक्षा गोष्‍ठी

फरवरी 2010 से अप्रैल 2010

इस अंक के रचनाकार 
 सम्‍पादकीय: आओ हम गर्व करें ....?
आलेख 
मीरा के काव्‍य में नारी चेतना : दादूलाल जोशी ' फरहद '
कबीर की प्रासंगिकता एवं उनके राम की शाश्‍वत सत्‍ता : परिमल शुक्‍ल
जहां होती है सबकी मनोकामना पूर्ण : सुरेश सर्वेद
कहानी 
सुकारो दाई (छत्‍तीसगढ़ी )  : कुबेर
दौना ( छत्‍तीसगढ़ी ) : मंगत रवीन्‍द्र
अंतिम संस्‍कार : सुरेश सर्वेद
लघुकथाएं 
गहरी खाई : दिनेश चौहान
झलमला : डां. पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी
एक टोकरी भर मिट्टी : माधवराव सप्रे
बैल या बेटे : हसमुख रामदेपुत्रा
लापरवाह शुभचिंतक : डॉ. श्रीराम ठाकुर
व्‍यंग्‍य 
मेहनत करे मुर्गी, अण्‍डा खाये फकीर : रमेश कुमार शर्मा
गीत
हैं कुछ लोग : डॉ. कौशलेन्‍द्र , सावन आ गे : डॉ. जीवन यदु
कविता
कुंडलिया : हरप्रसाद निडर, भगवान नहीं कोई : ज्ञानेन्‍द्र साज, मिट्टी की महिमा : आचार्य रमाकांत शर्मा
ग़ज़ल
दर्द मैं उधार चाहता हूं : राजेश जगने ' राज ', उग्रवाद : जोगीराम वर्मा,
पुस्‍तक समीक्षा 
अमन ( ग़ज़ल संग्रह ) : कृष्‍ण कुमार साहू ' पथिक '
साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियां
नाटककार शिवराम का व्‍याख्‍यान