इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 31 मार्च 2013

साले साहब का सम्‍मान

कहानी

गिरीश बख्‍शी
गिरीश बख्‍शी
भैय्‍याजी भी कभी छुटभैया थे, पर अब उनका प्रमोशन हो गया है.माननीय भैया जी हो गये हैं.कभी मंत्रियों से मंत्रणा करने राजधानी जाते हैं तो कभी टिकिट कमेटी में उन्हें सम्मिलित कर हाईकमान दिल्‍ली ‍बुलाता है.भैयाजी को फुरसत कहां ?इन दिनों वे निगम चुनाव को लेकर व्‍यस्‍त है.टिकिट याचकों की सबेरे से लाइन लग जाती है.उनका सोचना है - विधानसभा, लोकसभा चुनावी टिकिट में इतनी किल्‍लत नहीं होती जितनी... क्‍या बताएं लगता है - वे मछली बाजार में आ गये हैं और सड़ी - गली मछली भी उन्हें एक से एक तर्क देकर अपनी - अपनी खूबियां समझा रही है.आज वे दोपहर एक बजे करीब नाक में रूमाल दबाकर तो नहीं ,हां ! कान में कपास ठूंसकर पार्टी कायार्लय से उठकर एकाएक घर आ गये.
असमय उन्हें घर आते देख पत्नी चिंतित हो उठी. वे बड़े परेशान - हलाकान नजर आ रहे थे.आते ही बोले - जोरों की भूख लगी है.सुनो, जो कुछ बना है जल्दी खिला दो.मैं खाना खाकर आराम करूंगा.हां, फोन आये तो आदमी पहचान कर जवाब देना.मंत्री - अंत्री का फोन आये तो मुझे उठा लेना.
भैयाजी की चुस्त - दुरूस्त टंच पत्नी बरबस हंस उठी.
- तुम हंसी क्‍यों ? भैया जी चिढ़ उठे.
पत्नी ने गरम - गरम खर रोटी उनके दीमाग को शांत करने के लिए दी.फिर बोली - तुम पहले ही ठीक थे जी,अब तुम्हारे बड़े हो जाने पर मुझे भी बड़ा झूठ बोलना पड़ता है.
भैयाजी मुसकरा उठे - रोटी बढ़िया खर और आलू ,भठा, मेथी,भाजी, सेमी और बड़ी की सब्‍जी वाह ! क्‍या कहना है ? ऐसई खर - खर रोटी देती जाओ, और घर की कोई अच्छी बात सुनाओ.खूब मजा आ रहा है. आज तो टिकिट के मारे सिर भन्‍ना‍ गया था.
अपनी पाक - कुशलता से पत्नी पुलकित हो उठी - अभी मनोहर आया था.हषिर्त मन बोली - वो कह रहा था... । तभी फोन की घंटी बज उठी. पत्नी दौड़ी.भैयाजी प्रेम से डांट उठे - बच्‍चों जैसे इस कदर दौड़ती क्‍यों हो. हपट - अपट कर कहीं गिर पड़ी तो ऐसी सब्‍जी कौन बनायेगी ? पत्नी ने मुग्धभाव से देखा अपने पति को - मनोहर का फोन है जी, क्‍या कहूं ?
- ओह, सालेराम. बुला लो उसे. चार बजे मुझे फिर जाना है. फिर फुरसत नहीं मिलेगी.
मनोहर मिडिल स्कूल का मास्टर पर हेडमास्टर उसके सामने पंगू हो जाता. मनोहर मास्टरी करता है अपने जीजा जी के,याने भैया के दम - खम पर. तो वह मर्जी का मालिक है. मर्जी से स्कूल आता जाता है टाइम टेबल से नहीं. अपनी मर्जी से पढ़ाता है. अक्‍सर वह तीन साढ़े तीन बजे घर आ जाता है.मिडिल स्कूल के अबोध बच्‍चे उससे बड़े खुश रहते हैं क्‍योंकि वे पढ़ाते कम हैं छुटटी ज्यादा देते हैं और होमवर्क कभी देते ही नहीं. दूसरे ईष्यार्लु मास्टर जिन बेचारों पर किसी नेता की छत्रछाया नहीं है जब हेडमास्टर से मनोहर की शिकायत करते तो हेड मास्टर बड़े सम्हल - सम्हल कर उत्तर देते - आज तक सिवाय आपके, किसी एक भी छात्र ने उनकी शिकायत नहीं की. मैंने पूछा है उनसे. वे कहते हैं - मनोहर सर तो बड़े अच्छे सर है. बुलाऊं मैं क्‍लास केप्टन को. आप खुद पूछ लेना.
फिर तो शिकाय त करने वाला गुरूजी का एक बारगी कांप जाता.उसे एकदम से अबूझमाढ़ नजर आने लगता. मनोहर कही नाराज होकर उनका ट्रांसफर... ? वह कह उठता - नहीं ! नहीं !! सर, मैं तो फिर वह खुशामदी हंसी हंस उठता.
वही मनोहर अपनी मनोहरी मुस्कान के साथ आ गया. भैयाजी ने बड़े अलमस्त भाव से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा - आओ.. आओ.. आज तुम्हारी जीजी ने ऐसा शानदार भोजन कराया कि मन प्रसÛ हो गया. हम बड़े खुश हैं . बोलो, क्‍या चाहिए तुम्हें..... ?,
समय पारखी मनोहर ने एक नाटकीयता से सिर खुजाते हुए कहा - जीजाजी, चौदह साल हो गये मुझे शिक्षक हुए पर मुझे अभी तक कोई पुरस्कार - उरस्कार प्राप्‍त नहीं हुआ.
भैयाजी आश्‍चार्य से अभिभूत हो गये - अरे, तुम्हें चौदह साल हो गये ? मतलब यू आर सीनियर टीचर नाऊ ? यह तो अन्याय है कि हमारे रहते हमारे सालेराम कोई ईनाम न मिले. तुम्हारे हेडमास्टर के यहां फोन है क्‍या ?
- जी, जीजा जी । मनोहर की आंखें चमक उठी
- लगाओ, उन्हें बुलाओ .
चतुर मनोहर ने नम्बर लगा कर जीजाजी को फोन थमा दिया.
- हां कौन, हेडमास्टर साहब. हम भैया बोल रहे हैं. अच्छा - अच्छा. बस - बस अभी स्कूल से घर आये हैं . कोई बात नहीं. आप लोगों की दोपहर में लंच की छुटटी रहती है. आप जरा घर आइये.. नहीं, हेडमास्टर साहब. घबराने की कोई बात नहीं. जरा पसर्नल बात है. जरा जल्दी आइए !
सीधे सरल स्वभाव के साहू जी प्रधानपाठक खाने के बीच में ही मारे डर के उठ खड़े हुए. लूना पर तेजी से आ गये. मनोहर की स्कूटर भैयाजी के बंगले के सामने खड़ी देख उनकी बी.पी. बढ़ गई.कांपते हाथों से काल बेल दबाई. वे अपने सहायक वर्मा जी को भी साथ ले आये थे. मुसकुराते हुए मनोहर ही आकर उन्हें भीतर की बैठक में ले गया. भैयाजी ने उन्हें सामने कुर्सी् पर बैठने का इशारा करते हुए कहा - सुना है, आप लोगों के गांव में गुरूओं का सम्मान होने जा रहा है ?
- जी, जी हाँ, भैयाजी । प्रधानपाठक ने हाथ जोड़कर कहा - गांव वालों का आयोजन है.
- पर अभी कैसे ! कुछ चकित से हुए भैयाजी.
हेडमास्टर साहूजी के घबराहटी हाव - भाव देख सहमे - झिझके सहायक वमार्जी ने सम्हलकर बताया - वो ऐसा सर, कि शिक्षक दिवस के दिन ही गांव में गर्मी की छुटटी हो गई थी. इसीलिए दीवाली के बाद... ।
- अच्छा - अच्छा.. पान का एक बड़ा सा बीड़ा मुंह में ठूंस कर भैयाजी ने कहा - तो हमारे सालेराम.. ओह ! मतलब मनोहर सर का भी सम्मान होगा न ?
- जी.. जी.. । सचमुच हकला गये साहू जी अब तो. सहायक वमार्जी ने फिर सम्हाला - वो ऐसा है सर कि गांव वालों ने शिक्षकों के सम्मान का जो क्रायटेरिया निश्चित किया है उसमें... ।
एकाएक तमक गये भैयाजी, बड़े जोर से तमक गये - उसमें मनोहर नहीं आता यही न ? तो मनोहर का सम्मान किया जा सके ऐसा क्रायटेरिया बनाइए न आप लोग. हम लोग कैसे करते हैं जानते हो - जिसे टिकिट देना निश्चित कर लेते हैं उसके अनुसार दिखाने के लिए वैसा क्रायटऐरिया बना देते हैं. लगता है, जाइए. आप लोग वैसा कीजिए. और हां, गांव के सरपंच , क्‍या नाम है उसका... अंकालूराम. उससे कहिए हम खुद आयेंगे उस दिन. शिक्षकों को साल हमारी तरफ से रहेगा
बड़ी श्रद्धा से झुककर दोनों ने भैयाजी को प्रणाम किया. बाहर आकर जैसे प्रधान पाठक में जान आयी. उन्होंने पसीना पोंछा. सहाय क वमार्जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि आप चिंता न करें. मैं सब सम्हाल लूंगा.
निश्चित दिन, निश्चित समय पर शिक्षक - सम्मान समारोह आयोजित हुआ. मुख्य अतिथि भैयाजी हुए.अध्यक्षता सरपंच अंकालू राम ने की. सम्मानित होने वाले चार शिक्षकों में से पहला ईनाम मनोहर सर का ही था.शिक्षक सम्मान समारोह का संचालन करते हुए वक्‍तव्‍य - कला के धनी प्रधान पाठक के सच्‍चे सहायक वमार्जी ने, मनोहर सर के माला,शाल, श्रीफल द्वारा मुख्य अतिथि के कर कमलों से सम्मानित होने के पूर्व उनकी प्रशस्ति में बड़े आकषर्क लहजे में कहा - मनोहर सर, हमारे स्कूल, हमारे गांव, हमारे जिले के ही नहीं वरन हमारे पूरे राज्य के एक त्यागी पुरूष है. भौतिकता के आकषर्ण को छोड़ सहजता और सरलता को अपनाने वाले महान आत्मा मनोहर सर. भाईयों, इसमें जरा भी अतिश्योक्ति नहीं.यदि हमारे मनोहर सर चाहते तो क्‍या‍ नहीं बन सकते थे.नायाब तहसीलदार,सेलटेक्‍स इस्‍पेक्‍टर , एक्‍साइज , फुड और जाने क्‍या - क्‍या। ऊपरी कमाई के एक से एक इस्‍पेक्‍टरी , भौतिकता से संपन्‍न उनका बंगला जगमगाता रहता. उनका पारिवारिक बैकग्राउ·ड ऐसा कि उन पर अनेक बड़े - बड़े नेता - मंत्रियों की पूरी कृपा हमेशा रही, पर वाह रे ! शिक्षा प्रेमी, शिक्षक जीवन के अनुरागी, त्यागी और सेवा की जीवन्त मूर्ति इन्होंने सब ठुकरा दिया, सब कुछ ठुकरा दिया. और तामझाम विहीन शिक्षा के शांत एकान्त मंदिर में अपना सवर्स्व जीवन अपिर्त करने का संकल्प किया. तो आज ऐसे त्यागी, तपस्वी,समपिर्त शिक्षक को सम्मानित कर हम सभी स्वयं सम्मानित हो रहे हैं. गौरान्वित हो रहे हैं.
पूरा स्कूल प्रागंण तो फिर देर तक तालियों से गूंजता रहा.गदगद भैयाजी ने बड़े प्रशंसात्मक भाव से उस दिन के डरे - सहमे सहाय क शिक्षक वमार् गुरूजी को देखा. वर्मा जी ने आशाभरी निगाहों से उन्हें प्रणाम किया.

पता - ब्राम्‍हाण पारा, राजनांदगांव (छ्ग)







परऊ बैगा

कहानी

पदमराग शुक्ल
अद्भूत है हमारा महाविद्यालय। यहां राष्‍ट्रीय सेवा योजना की तीन - तीन इकाइयाँ कार्यरत है। बड़े प्रयोगधर्मी है यहां कार्यक्रम अधिकारी ' सर ' लोग। एन. एस. एस. के अंर्तगत हर वर्ष 10 दिवसीय शिविर लगता है। ऐसे ही एक शिविर में मेरा जाना हुआ। गत वर्ष की ही बात है। क्वांर का महीना नवरात्रि चल रहा था। बिलासपुर - रतनपुर रोड में 10 किलोमीटर दूर ग्राम सेंदरी में हमारा शिविर आयोजित हुआ।
शिविर को लगे आज पांच दिन हो गये। दिन भर सुबह से देर रात तक शिविर की दिनचर्या इतनी व्यस्त थी कि ठीक से साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी। प्रात: 5 बजे शैय्या त्याग, 6 बजे प्रात:कर्म, 7 बजे पी.टी. प्रार्थना, 8 बजे चाय नास्ता, 9 बजे श्रमदान, 10 बजे अनुभव लेखन, 11 बजे स्नान, 12 बजे भोजन 1 बजे विश्राम, 2 बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का पूर्वाभ्यास, 3 बजे गोष्ठी, 4 बजे मध्यान्तर, 5 बजे खेलकूद, 6 बजे सांध्यकर्म, 7 बजे प्रार्थना 8 बजे भोजन, 9 बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम ... देखा न आपने, कहीं है अवकाश ? सांस लेने का ...?
इसी व्यस्त कार्यक्रमों के बीच एक संध्या मैं भ्रमण हेतु गांव के बाहर श्मतला रोड में गांव से एक किलोमीटर दूर सेंदुरा दाई का मंदिर चला गया। वहां नवरात्रि के एक सौ आठ कलश दीप जल रहे थे। होम धूप की गंध से समस्त मंदिर परिसर गमक रहा था। एक कोने में पलाश पेड़ के नीचे एक आदमी बैठा उंघ रहा था। बाद में पता चला कि वह उन्मनी अवस्था में था और उसके नेत्र अर्धनिमीलित थे। माथे सिंदुरी तिलक कुर्ते में चम्पक का फूल नीचे स्वच्छ धोती नंगे पैर मुझे देखते ही अपने पास बुला लिया। पोलीथीन का एक बोरा बिछाकर बोला - बैठिए .. मैं चुपचाप बैठ गया। उन्होंने धीरे से पूछा - आप लोग शिविर वाले विद्यार्थी हो ? मैंने हामी भरी। उन्होंने कहा - आपको आज मैंने ही बुलाया था, मैने कहा  - मुझे तो किसी का बुलावा नहीं मिला। मैं अपने मन से आया हूं। उन्होंने कहा - 150 छात्र- छात्राओं के शिविर में आप अकेले इधर कैसे आ गये, कैसे और क्योंकर हुआ आपका मन इधर आने को ? मैं चुप रहा उन्होंने पुन: कहा - यह सब भगती महामाया की प्रेरणा से हुआ देगुन गुरू की आप पर कृपा है। आप निर्भय होइये और जीते जी जीवन को धन्य कीजिए।
मुझे वहीं बैठे उस व्यक्ति ने  बाद में पता लगा कि उसका नाम परऊ है और वह इस गांव का बैगा है। गांव के भूगोल का सजीव वर्णन सुनाया कि दक्षिण में अरपा नदी बहती है उसके किनारे ही सेन्दुरा ने इस गांव को बसाया था। सेन्दुरा रतनपुर के कलचुरी नरेश जाजकवदेव की पुत्री थी। बाल्यकाल से हमारे अंचल के प्रसिद्ध सिद्ध तांत्रिक करूपाद के सम्पर्क मे आ गई। करूपाद आश्रम आज जहां सिद्धेश्वरी समूह का आश्रम है वहीं पर अरपा और ताला नाला के संगम में था किन्तु वे प्राय: भैरव से मिलने रतनपुर जाया करते थे। वहीं जाजकवदेव की पत्नी तीजमन भी आती थी। उनकी बेटी सेन्दुरा भी साथ होती थी। भैरव के आश्रम में हवन होता था। कुण्ड में हजारों रतालू लाल कुमुदनी  के महावरी रंग के फूल खिले होते थे। उनके शिष्य दोनों में ताजा मधु पीने को देते सेन्दुरा भौचक्की हो इन सिद्धों के सम्भाषण को सुनती रहती।
युवती होने पर उसने आम लड़कियों के समान शादी व्याह और घर गृहस्थी की जिन्दगी को नकार दिया। उसने कहा कि वह किसी साधक से ही विवाह करेगी। उसे हाड़ मांस का पुतला नहीं चाहिए जो जीते जी मरजीवा की जिन्दगी बिताने तैयार हो वही मेरा जीवन साथी हो सकता है। विन्ध्य का एक राजकुमार मदनसिंह तैयार हो गया, अपने जीवन को दांव पर लगाने के लिए। बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा था मदनसिंह को। रतिक्रीड़ा के चरमक्षणों में भी उसको होश साधना पड़ा था। अद्भूत अनुभव था ववह कब रात बीत गई पता नहीं चला। गजब की भैरवी थी परीक्षा लेने वाली, सुखमत नाम था उसका केंवट परिवार में जन्म लिया था। उसके परीक्षण के बाद भैरव ने सेन्दुरा से कहा - यह सच्चा साधक है, इसकी कुंडलिनी जागृत है। इसका वरण कर सकती हो, और सेन्दुरा ने उसे जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर लिया।
मैं परऊ की बातों को मंत्रमुग्ध की भाँति सुनता रहा। मंदिर में नेवरात गीत गाया जा रहा था। मैंने परऊ से माफी मांगते हुए कहा -  शिविर के नियमानुसार रात्रि के 10 बजे के पूर्व मुझे शिविर में हाजिर होना है। मैंने भोजन भी नहीं किया है। ऐसे में शिविर से निकाल दिया जाऊंगा। परऊ ने कहा - लाखों में किसी एकाध को महामाया चयन करती है। तुम पर मां सेन्दुरा प्रसन्न तुम आज रात यहीं रूको। आज तुमको भोजन की आवश्यकता भी नहीं है।
इसके बाद परऊ मुझे पलाश कुंज में ले गया जहाँ एक भैरवी बैठी थी। उसने मेरे रीढ़ की हड्डी का स्पर्श किया जिससे पूरे शरीर में सनसनी फैल गई। एक बार मैं बिजली के नंगे तार को छू लिया था तब जैसे शरीर में सनसनी फैली थी, कुछ - कुछ इसी तरह। भैरवी ने मातृवत पुचकारा और अपने आलिंगन में ले लिया फिर तो वह महारास सामने आया जिसका उल्लख केवल साहित्य में पढ़ा था, कभी उस पर विश्वास नहीं हुआ था। गत वर्ष महाविद्यालयल के टूर में खजुराहो गया था वहां की मूर्तिशिल्पों को देखकर जो जो अकल्पनीय चिन्तन मन में आया था उन सभी की साक्षात अनुभूति हुई। भैरवी लगातार मीठे स्वर में कहती रहती थी - साधक होश में रहना, तुम शरीर नहीं। शरीर तुम्हारा है। यह सब जो भोग रहे हो, वही माया है। तुम पर महामाया की कृपा है। इससे ऊपर उठो।
कब रात बीत गई मुझे पता नहीं चला। प्रात: ब्रम्‍हा् बेला में भैरवी ने मुझे मुक्त कर दिया। मैं एक विचित्र और अनजान दुनियाँ में मानों विचरण कर रहा था। मंदिर में नेवरात गीत कब खतम हुआ, मुझे नहीं मालूम। चारो ओर सन्नाटा था। बाहर आया तो आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। पूर्व दिशा में शुक्र नक्षत्र अपने दिव्य प्रकाश से मानो मुझे आश्वस्त कर रहा था कि जो कुछ आज मैंने जाना है वह अत्यंत दुर्लभ है। इसे निरन्तर बनाये रखना है। यह सतोरी प्रमाद करने पर बिला जायेगी। परऊ बैगा ने मुझे मुंह धुलवाया और शिविर जाने को कहा।
शिविर में पांच बजे जागरण की घंटी बज चुकी थी। लाउडस्पीकर में रामचरित मानस की पंक्ति  मंगल भवन अंमगल हारी ... बज रहा था। सभी छात्र - छात्राएं प्रात: कर्म हेतु बाहर आ रहे थे। उन्हीं के साथ मैं भी हो लिया। किसी ने नहीं पूछा कि मैं रात कहाँ था। पी.टी. प्रार्थना मैं विधिवत शामिल हुआ। सब कुछ पूर्ववत चल रहा था। फिर भी मेरे अन्तर आकाश में इतना बड़ा परिवर्तन हो गया था कि मुझे बात - बात में हंसी आ रही थी। मेरे कई मित्रों ने मुझे टोका कि मैं इतना प्रसन्न क्यों हूं ? मुझे अकारण पसीना आने लगा था। श्रमदान के समय अन्य दिनों की तुलना में तीन गुना परिश्रम किया फिर भी थकान का नामोनिशान नहीं। सब कुछ मुझे खेल लग रहा था। कभी - कभी तो आकाश में उड़ने का बोध होता था।
दोपहर संगोष्ठी में मेरे वक्तव्य पर बहुत तालियाँ बजी। मेरे मित्र ने पूछा - कहां से मसाला पाया। कब रट लिया। आज तो ऐसा लग रहा था मानो टेप बज रहा है। जिससे मिलता बड़े प्रेम से मिलता। लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि मुझमें एकाएक परिवर्तन हो रहा है। शाम को जब जनसम्पर्क में गये तो छात्राओं ने मुझे अपने ग्रुप में शामिल कर लिया। रास्ते में पूछा कि तुम कुछ गोलियाँ खाते हो क्या ? तुम्हारे चेहरे की लाली इतनी क्यों बढ़ गयी ? तुम इतने आकर्षक क्यों लग रहे हो ? मैंने पूरी तरह नकार दिया। कैसे बताता - बीती रात क्या हुआ था ?  हम लोग एक परिवार से कुशलक्षेम पूछ रहे थे। उस परिवार के मुखिया का नाम था भगऊ केवट। उसने कहा - हमारे गांव में एक मंदिर है, करूआ बाबा का। उसमें जोड़ा बकरा बलिदान करने पर सिद्धि प्राप्त होती है। यहां के गुलामा महराज उनके कोप के कारण ही मर गये। एक भैरवी थी - बतिया उन्होंने बहुत समझाया किन्तु नहीं माने।
उसकी बातों को सुनकर पहली बार मैं भयभीत हुआ। मुझे फिर पसीना आने लगा। मैंने छात्राओं से माफी मांगते हुए कहा - मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। मैं वापस शिविर लौटना चाहता हूं। शिविर आकर सो गया। कब शाम हुई, कब रात हुई ? कब लोगों ने भोजन किया ? कब सांस्कृतिक कार्यक्रम खतम हुआ, मुझे नहीं मालूम। एक से एक दिव्य सपने आ रहे थे लग रहा था - मैं शरीर से विलग एक दिव्य चेतना हूं।
दस बजे रात को शिविर संयोजक एक डाक्टर को लेकर आ गये। उन्होंने मेरा चेकअप किया और एक इंजेक्शन लगा दिया। मैं विरोध करता रहा मगर सर नहीं माने। खूब गहरी नींद आई। सबेरे उठा तो ठीक लग रहा था। किन्तु वह दिव्य अनुभूति गायब हो चुकी थी। मैं  उस अनुभूति के लिए व्याकुल हो उठा। दौड़ा - दौड़ा सेन्दुरा दाई के मंदिर गया किन्तु वहां परऊ बैगा से भेंट नहीं हुई। उस भैरवी से भेंट हुई। उसे मैंने सारा हाल बताया। उसने कहा - बैगा तो एक सप्ताह के लिए चन्दरपुर चले गये हैं, अब भेंट नहीं होगी। किन्तु आप चुक गये। आपकी जगी कुंडलिनी आप के भय के कारण लुप्त हो गई। अब आप आम आदमी हो गये। किन्तु कोई बात नहीं उस भगवती महामाया की आराधना करते रहिए कभी उनकी कृपा कदाचित फिर हो तो इस बार डरिये नहीं। मैं शिविर में लौट आया।
तीन दिन बाद शिविर समाप्त हो गया। मैं अपने साथियों के साथ महाविद्यालय लौट आया और पहले जैसा पढ़ने - लिखने लगा किन्तु उस शिविर में मिले दिव्य अनुभूति की मीठी याद बनी हुई है।
पता - बी - 5 नेहरू नगर, बिलासपुर (छ.ग.)

हर दिल अजीज की तमन्ना पूरा करेगी तमन्‍ना


हर दिल अजीज की तमन्ना पूरा करेगी तमन्‍ना
डां. अनुज प्रभात
महेन्द्र राठौर नई पीढ़ी के एक ऐसे ग$जलकार है जिनकी ग$जलों में जिन्दगी बोलती है। और जिन्दगी तभी बोलती है जब उसमें जिनगी को रू - ब - रू कराती हकीकत होती है। वैसे तो ग$जल लिखने वालों की आज कमी नहीं। लेकिन गजल में जो नफीसी होनी चाहिए उसके जो अल्फाज होने चाहिए उसमें जो कशिश होनी चाहिए वह राठौर जी की गजल संग्रह तमन्ना में देखने को मिलता है।
तमन्‍ना राठौर जी की तीसरी गजल संग्रह है। इससे पूर्व इन्होंने वर्ष २००१ में तश्नगी और २००४ में जुस्तजू लिख चुके हैं और कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं। निश्चय ही ये सम्मान उनकी उत्कृष्टï रचनाओं की पहचान है। यह पहचान विशेष उनकी कलम से लिखे गये गजल के कारण है।
गजल के संबंध  में मेरा मनना है कि गजल लिखने का अपना - अपना फन होता है और हर फन की अपनी एक तहजीव होती है। तहजीव इसलिए कि अक्सर लोग कापिया मिला देते हैं लेकिन केवल काफिया मिला देनेसे केवल गजल, गजल नहीं हो जाती बल्कि उसके मिजाज को भी देखा जाता है। मिजाज से ही तहजीव का पता चलता है।
यहां मिर्जा अजीम बेग अजीम के ये कुछ अल्फाज को दुहराना चाहूंगा जिन्होंने तमन्ना को देखते हुए महेन्द्र राठौर के लिए इसी पुस्तक में कुछ लिखे हैं - च्च्पुराने दौर की गजलें रोती विसोरती ऊंघाती - लड़खड़ाती तरन्नुम में समा तो सकती है लेकिन आज के  गजलों के निखार और श्रृंगार से बिलकुल अलग लगती है जो महबूब की नाजुकी नजाकत और लचक में समाहित हो जाती है। दर्दों गम के अलावा जुदाई, तन्हाई, फने शायरी के ऐसे अल्फाज है जो आज की शायरी के किसी न किसी लिबास में मिलते हैं।
मिर्जा अजीम बेग अजीम के ये अल्फाज ही इस बात का इशारा करते हैं कि पुराने दौर की ग$जलें या शायरी और आज के दौर की शायरी में जो फर्क है वह लिबास के हैं। किन्तु एक सच्चाई वे भी मान चुके हैं कि अल्फाज मिजाज को बतलाता है और मिजाज से पुराने दौर और नये दौर का पता चलता है जो महेन्द्र राठौर की गजलों में है।
हकीकत तो यह है कि वक्त के साथ इन्सानी खयालात भी बदलते हैं और जब खयालात बदलते हैं तो मिजाज भी बदल जाते हैं। मिजाज के बदलते ही तहजीव में भी फर्क आ जाता है। ऐसा की कुछ देखने को महेन्द्र राठौर की गजलों में मिलता है जो अपने नये -नये खयालात मिजाज और तहजीव के साथ तमन्ना में १३८ गजल बनकर समाहित है। उनके खयालात का एक मिशाल पृष्ठï २३ के ये अल्फाज है -
आया फटे लिबास पे चादर को डालकर
अपनी गरीबी यूँ भी छुपाई है किसी ने।
इन अल्फाजों में न मुहब्बत के दर्द है और न बेवफाई के तरन्नुम बल्कि आज के हालात पे व्यंग्य है जो ग$जल के लिए नई तहजीव है। इसी तरह एक ग$जल में इन्होंने यह भी लिखा है -
सारे चराग थे बुझे मंजिल की राह में
बस हौसला ही मेरा तेरी रौशनी का था।
इसमें राठौर जी ने जिस हौसले की बात कही वह पुराने दौर से कु छ अलग हटकर नई राह को दिखाती है। और जहां तक नई राह की बात है उन्होंने एक खास बात यह भी कही है -
मंजिल भी मेरी है हिम्मत भी मेरी
किसी का कहां आसरा कर रहा हूं।
यह आज के दौर की बातें हैं जहां आसरा करना ही बेवकूफी है क्योंकि कभी - कभी हम जिनसे आसरा करते हैं, वही दगा दे देते हैं। शायद इसीलिए राठौर जी नसीहत के अंदाज में एक जगह लिखा है -
यहां तो साँप भी पलते हैं आस्तीनों में
यहां किसी को मुहब्बत  राजदां मत कर।
इस तरह हम देखते हैं कि महेन्द्र राठौर जी ने अपनी पुस्तक तमन्ना में ग$जल के नये मि$जाज को नई तहजीव से पेश किया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सभी ग$जलें इसी तरह की है। ऐसी बहुत सारी ग$जलें हैं जिनमें दर्द, जुदाई, तन्हाई आदि भी है। इसका मिशाल उनकी इन पंक्तियों से मिलता है -
शम्मा ने जलके मुझसे किनारा जो कर लिया
एक आरजू थी मोम की जैसी पिघल गई।
यहां अजीम साहब के इस अल्फाज से मैं भी इन्तेफाक रखता हूं कि तरन्नुम के कद्रदां थे, इस दौर की शायरी से बहुत ज्यादा मुनासिर हैं। और इस हकीकत से इन्कार किया नहीं जा सकता कि महेन्द्र राठौर की ग$जलें जो तमन्ना में संग्रहित है, हर दिल अजीज की तमन्ना को पूरा करेगी। नई पीढ़ी के गजलकार में इनका नाम रौशन होगा।
शायर - महेन्द्र राठौर
प्रकाशक - पुष्पगंधा प्रकाशन कवर्धा
मूल्य - १०० रूपए
दीनदयाल चौक, फारविसगंज, ६छ.ग.८
ख्‍ारे कहते खरी - खरी
साप्ताहिक हिन्दुस्तान द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत होते ही विभु कुमार चर्चा में आ गये। कहानी और नाटक दोनों क्षेत्रों में उन्हें भरपूर सफलता मिली। वे छत्तीसगढ़ के नाटकों के प्रारंभिक सफल प्रस्तोता के रूप में भी ससम्मान याद किये जाएंगे। विभु कुमार को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। सम्मान पत्र प्रशंसा से दूर रहने वाले विभुकुमार विरोध और उपेक्षा में तनकर खड़े रहते थे लेकिन अभिनंदन के अवसर पर कदाचित असहज हो जाते हैं।
खरे कहते खरी खरी में उनके सहपाठी प्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल का संस्मरण विभु कुमार के व्यक्तित्व के कई परतों को हमारे आगे खोलता है। परितोष चक्रवर्ती ने भी विभु के संबंध में अपनी विशिष्टï शैली में खूब लिखा है।
विभु कुमार के सहपाठी प्रसिद्ध पत्रकार रमेश नैय्यर ने अतंरंग संस्मरण में एक नई जानकारी दी है। दो मित्रों के बीच विषय के आदान - प्रदान की प्रेरक घटना से हम सब पहली बार परिचित हुए। सदैव सहयोग करने के लिए अवसरों की तलाश करने वाले सह्रïदय मित्र श्री रमेश नैयर ने विभु कुमार का साथ उसी तरह जीवन भर निभाया। विभु कुमार संभवत: हम उम्र होने के बावजूद श्री नैयर जी को अपने बड़े भाई की तरह इज्जत देते थे। गालियों के अक्षय पात्र का ढक्कन वे जिन लोगों के आगे नहीं खोल पाते थे, उनमें से श्री नैयर ने संकेतों में एक बड़ी विडम्बना से जुड़ी पीड़ा की ओर इशारा किया है। लक्ष्मण मस्तुरिया ने चार लाइन में अपनी श्रद्धा व्यक्त कर दी है।
एस.अहमद, राजेश गनोदवाले, नंदकिशोर तिवारी, हसन खान, रमाकांत श्रीवास्तव, चंद्रशेखर व्यास, लाल रामकुमार सिंह ने अपने आलेखों में विभु कुमार के व्यक्तित्व के भिन्न - भिन्न रंगों को स्पष्टï किया है। डां हरिशंकर शुक्ल, रमेश अनुपम के आलेख नाटकों के संबंध में है और इनमें नई जानकारियां मिलती है।
देवेश दत्त मिश्र का संस्मरण विभु कुमार के व्यक्तित्व को समझने में अधिक मददगार है। सदैव मुह में गाली लिए फिरने वाले विभुकुमार किन्हीं आदरणीय जनों के आगे अनुशासित बच्चे की तरह हो जाते हैं। देवेश दत्त  उन्हीं लोगों में से एक थे। विभु कु मार सीमा का अतिक्रमण करने वाले व्यक्ति को तुरंत रोक देते थे। देवेश दत्त ने उनके इस गुण पर खूब प्रकाश डाले हैं। गिरीश पंकज, य.गो. जोगलेकर और देवेन्द्र राज के संस्मरणों में विभु कुमार का संजीदा व्यक्तित्व झांकता है।
हववों का विद्रोह पर उषा बैरागकर मां तुम कविता नहीं हो पर प्रसिद्ध कवि लीलीधर मंडलोई ने सविस्तार लिखा है। तारों में बंद प्रजातंत्र लेखन से मंचन तक यह विभु कुमार लिखित महत्वपूर्ण आलेख है। एक रचनाकार के साथ ही विभु कुमार रंगमंच के भिन्न - भिन्न आयामों से जुड़े विशेषज्ञ रंगकर्मी भी थे। नाटक के लेखन से रंगमंचन तक की कथा नाट्य जगत का रहस्य खोलती है।
कुंजबिहारी शर्मा का यह एक स्तुत्य प्रयास है। पुस्तक की प्रस्तुति भी स्तरीय है। पुस्तक में विभु कुमार के व्यक्तित्व एवं अवदान पर पर्याप्त सामाग्री है। इससे शोध छात्रों को विशेष सुविधा होगी। चित्र अलबत्ता उभर कर नहीं आ पाये। विभु कुमार के ऐसे मित्र जो उन्हें बहुत करीब से जानते हैं वे उस विभु कुमार पर भी लेख लिख सकते थे जो अपने गलत निर्णय पर व्यथित होता था। पश्चाताप और दुख से घिरे विभु कुमार पर कम लिखा गया। शायद आगामी प्रकाशनों में कुछ और रंग बिखरे।
संपादक - कुंजबिहारी शर्मा
प्रकाशक - रूपक रायपुर छत्तीसगढ़
मूल्य - ५० रूपये

शनिवार, 30 मार्च 2013

कौन करे आभार व्यक्‍त, प्रकाशक संपादक या लेखक ?


मन खिन्‍न था.समझ से परे था कि किस विषय  पर इस बार की सम्पादकीय  लिखा जाये.सम्पादकीय  से ही सम्पादक की महत्ता समझ आती है इसमें संदेह नहीं इसलिए संपादक सदैव कोई ऐसी संपादकीय  लिखना चाहता है जिस पर पाठक वर्ग चिंतन - मनन कर सके.
संपादकीय  लेखन पर विचार कर ही रहा था कि डाकिया ने एक पत्र लाकर दिया.पत्र गुरूर से आया था और उस पत्र को प्रेषित किए थे कहानीकार भावसिह हिरवानी. पत्र पढ़ने के बाद मुझे लगा इस पर ही क्‍यों न संपादकीय  लिख लिया जाये. पत्र लिखा गया था कि  विचार वीथी का पहला अंक मिला. आपने पत्रिका में मेरी कहानी प्रकाशित की उसके लिए  मैं हृदय  से आभारी हूं.आपने डाँ महमल्‍ल की कविता प्रकाशित की उसके लिए धन्यवाद. पर प्रश्न यह उठता है कि क्‍या सिर्फ और सिर्फ संपादक व प्रकाशक ही धन्यवाद के अधिकारी होते हैं.क्‍या सिर्फ और सिर्फ लेखक ही आभारी हो सकते हैं. क्‍या प्रकाशक संपादक का दायित्व नहीं बनता कि हम उन लेखकों को ही क्‍यों न हृदय  से आभार व्यक्‍त करें जिनकी रचना शैली के बदौलत हमारे द्वारा प्रकाशित पत्र - पत्रिका में जान आती है.वह पठनीय  बन पाती है.आभार तो संपादक प्रकाशक को रचनाकार का व्यक्‍त करना चाहिए मगर ऐसा होता कहां हैं.संपादक प्रकाशक तो मात्र किसी रचनाकार की रचना प्रकाशित कर ऐसा महसूस करते हैं मानों वे  रचनाकार पर एहसान कर दिये मगर सत्य  यह है कि  पत्र - पत्रिका की  महत्ता रचाकार की मेहनत, उसकी लेखनीय  शैली, उनके विचार से बढ़ती - घटती है.किसी भी पत्र पत्रिका में चार चांद लगाने का कोई काम करता है तो वह है रचनाकार की रचना. 
इस अंक के संपादकीय  से कुछ पत्र - पत्रिकाओं के संपादकों - प्रकाशकों को उजर हो सकती है मगर इसकी चिंता कतई नहीं.वास्तव में देखा जाये तो संपादकों प्रकाशकों को उन रचनाकारों का हृदय  से आभारी होना चाहिए जिनकी लेखनीय  ताकत के बदौलत प्रकाशित पत्र - पत्रिकाओं का महत्व बढ़ जाता है.
अगस्‍त 2007

                        संपादक

नाटक का शेष हिस्सा जीवन यदु

कविता
डाँ जीवन यदु
सुनें ! सुनें ! भाई - बहन सभी सुनें !
आज इस नुक्‍कड
हम खेलने जा रहे है एक नाटक
इसलिए आप सभी
कान खोल कर देखें
और आंखें खोलकर सुनें
अपने ही शबदों को आप ही गुनें

सुनें ! सुनें ! सभी जन सुनें
और जो श्रीमन्त है,महा - जन है
जो सचमुच  के नाटकबाज है,सत् - जन हैं
वे न चाहें, तो न सुनें
वे अब तक -
अपनी बंदूकों के लिए
ऐसी गोलियां चुनें
कि जिसकी मार से मारे जा सके शब्‍द ।
और यदि देखना चाहे वे भी
तो अवश्य  देखें,
यदि सुनना चाहें वे भी
तो अवश्य  सुनें
हाथ मलें और सिर धुनें
सुनें ! सुनें ! सुनें ! सभी सुनें ।

हमारे इस नाटक का नाम है -
आदमी की लम्बाई उर्फ्
एक शब्‍द है आदमी
(क्‍या बात है कि इस नुक्‍कड़ पर
याद आ रहे है सफदर हाशमी)
नाटक का नाम बहुत लम्बा है
बहुत लम्बा है नाटक भी
नाम की लम्बाई पर मत जायें
नाटक को उसकी लम्बाई में देखें
देखें कि कोई आदमी
कितना लम्बा हो सकता है शब्‍दों के साथ
कि उसकी एक घायल चीख
सुनी जाती है दूर - दूर तक ।

अभी इस नाटक में
आप देखेंगे कि एक आदमी
पूरी ताकत से उछाल कर कुछ शब्‍द
आपके बीच  शामिल हो जायेगा
और आप ही में खो जायेगा
आपके अंदर कुछ शब्‍द बो जायेगा
और आप ही में खो जायेगा
अभी वह इस नुक्‍कड़ पर मरेगा -
लेकिन हारी - बीमारी से नहीं,
बुढ़ापे की लाचारी से नहीं
वह जब मरेगा
तो इस लम्बे नाटक को
अपनी लम्बाई पर ले जायेगा
अपनी शेष उम्र -
अपने शब्‍दों को दे जायेगा ।

अच्छा तो, अब शुरू कर रहे हैं खेल
अब तक -
श्रीमंत और महा - जन
समाज के स्वयं - भू कणर्धार
चढ़ा चुके होंगे अपने छुरों पर धार
कर चुके होंगे अपने गुण्‍‍डों को तैयार
फूंक चुके होंगे मंत्र - मार - मार - मार
चुन चुके होंगे गोलियां
साफ कर चुकें होंगे बंदूकें
इस बार वे मत चूकें
मार कर बतायें शब्‍दों को

सुनें ! सुनें ! भाई - बहन सभी सुनें ।
सावधान कि कोई गोली
लग सकती है आपको भी
छुरे घुस सकते हैं भुक्‍क से
आपकी भूखी अतड़ियों में
सिर पर हो सकते हैं लाठियों से प्रहार
पीठ पर खा सकते है -
नाल ठुंके जूतों की दनाकेदार ठोकर
आपके बीच  से -
कोई भी उठ सकता है
रामपाल होकर ।
सावधान रहें और देखें
कि कोई आदमी
शब्‍दों में कैसे बदलता है
कि एक लोहे का टुकड़ा
जवाबी हमले के लिए
हथियारों में कैसे ढ़लता है ?

जब बंदूक की आवाज
और आदमी की चीख एक साथ सुनें
तो ध्यान रहे -
खतम नहीं समझ लें
पूरा नाटक,सारा किस्सा
कल इसी नक्‍कड़ पर
फिर खेला जायेगा
इस नाटक का शेष हिस्सा ।
                                    गीतिका
                                दाउ चौरा, खैरागढ़
जिला - राजनांदगांव  (छग.)

तुम्हारी मुस्कुराहट

कविता
डाँ नथमल झंवर
तुम नहीं जानती
तुम्हारी मुस्कुराहट से
जाने कितने जन्मों का रिश्ता है मेरा ?


जब भी तुम्हारी मुस्कुराहट
मेरे होठों पर
अपनी ऊंगलियां फेरती है
तब न जाने
कितने वर्षों की याद
तरोताज हो जाती है
मेरे जेहन पर
बाग - बाग हो जाता हूं -
तब मैं


तुम्हारी मुस्कुराहट
मेरे सीने पर
जब करती है
कोमल स्‍पर्श
मेरे अंतस का प्यार
छलक पड़ता है तब
अनायास ही
याद आ जाता है
हम दोनों का प्रथम मिलन


मेरे मन की वीणा में
तुम्हारी मुस्कुराहट की तार
जब झंकृत हो उठते हैं
तब झूम उठता है मेरा पोर - पोर
संगीतमय  हो जाता है
सारा वातावरण
दसों दिशाएं


और तब तुम्हारी मुस्कराहट
मुझे ले जाती है
उन वादियों में
जहां हम दोनों का प्यार
पला था
कसमें खाई थी
हम दोनों ने
साथ निभाने की
जन्म - जन्मान्तर तक
और तब
मेरी भी मुस्कुराहट
समाहित हो जाती है
तुम्हारी मुस्कुराहट में
एकाकार हो जाती है
तब दोनों

झंवर निवास
मेन रोड, सिमगा,
                                जिला- राय पुर (छग.)

आज के नेता

कविता
बोधन प्रसाद पाटकर
आज के नेता कुर्सी के बनगे दास
ये मन गरीबी ला मिटाही झन करहू आस
    भाषण आश्वासन देके जनता ल फुसलाये
    भूखा मा प्राण छूटत हे बिस्कुट देके बहलाये
गांव गांव मा पार्टी बंदी फूट समागे
जनता ल बरगलाय  बर नेता मौका पागे
    घरों - घर मा नेता बिलबिलागे
    आये दिन लड़ाई अदालत मा पैसा फूंकागे
जुन्‍ना सियान मन के नियाव नंदागे
पंच  - परमेश्वर के कहावत मेटागे
    पहली के गांव के , नक्‍सा चेहरा बदलगे
    आपस के प्रेम भाव सुख शांति उजड़गे
                            द्वारा - आनंद तिवारी पौराणिक
श्री राम टाकीज मार्ग
महासमुंद (छग.)

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

बिरवा लगा के


  • रूपेन्द्र पटेल 
बिरवा लगा के रूखवा सिरजाईलो मिलही सुख सरग के समान हो
गुनौ गा भइया सुन लौ बहिनी, रूखवा भुइंया के भगवान ये..

रूखवा ले बादर के पानी ओरवाती ले चुहत धार हे
पानी ले खेती खेत म धान ददरिया गावत किसान हे
रूखवा ये खिनवा पैरी करधन, एही धरती के सिंगार ये गुनौ गा...

रूखवा ले संसा संसा ले हंसा रूखवा ले बाढ़त परान हे
रूखवा उजारे जिनगी बिगारे रूखवा बिन छूट जाही परान रे
दू नही त चला एक - कल गावन, एही हम सबके ईमान ये गुनौ गा...

जेठ महीना नवातपा के घाम लीम छंइहा संगी जुड़ा लेबे
डहर रेंगत - रेंगत थक जाबे संगी बइठ मया - पिरीत गोठिया लेबे
कहूं बिमरहा हो जाही तन, रूखवा के अंगो अंग दवाई ये गुनौगा...
माटी के आखर अंव..
दया मया भरे मोर जिनगानी,सोनहा माटी संग मोर मितानिन ,
सावन अस बरसत बादर अंव,माटी के आखर अंव मय
 
कोरा पोथी नहीं रे संगी करम के गीत पढ़थव ना
मोर मया के किसन बरोबर अजुर्न जस वीरता रचथव ना
मोर महतारी मंय  लइका अंव, माटी के आखर अंव मय

बढ़ भागमानी जीव रे संगी ए भारत मं जनम धरेंव
एकर मान गुमान रखे बर सरबस अरपन करेंव ना
ऐकर चरन के धुर्रा् बने हवं, माटी के आखर अंव मय 

मोर नागर देख रे संगी बलदाऊ घलो घबरावय  ना
मोर करम के मोल धरेबर पुलकत लक्षमी आवय  ना
मन निरमल तुलसी बिरवा अंव, माटी के आखर अंव मय 

पता - ग्राम - लोहारा, डाकघर - पंडरिया,जिला - कबीरधाम (छग)

बेटों वाला बाप

कहानी


  • गिरीश बख्शी
देखते ही देखते भीड़ एकत्रित हो गई.बूढ़े दीनदयाल बाबू अब भी हांफ रहा था.उनकी छड़ी दूर जा गिरी थी और पूड़ा खुल जाने से सेव चूड़ा जमीन पर बिखर गये थे.कोई बोल उठा था - नहीं !! नहीं !! चिन्ता की कोई बात नहीं.दादाजी को खरोंच  तक नहीं आयी.वो तो अच्छा हुआ प्रकाश ने ठीक समय  पर उन्हें खींच  लिया नहीं तो जीप वाला..... ?'' 
- नहीं तो क्‍या होता भाई ?'' दीनदयाल ने जाने कैसी तो भर्राई आवाज में कहा - इस बेकार बूढ़े को हमेशा के लिए शांति मिल जाती.वही सबसे अच्छी बात होती .''
प्रकाश ने उनकी छड़ी उन्हें देते हुए कहा - नहीं, दादाजी नहीं, आप हमेशा ये मरने - मरने की बातें क्‍यों करते हैं ? हम लोग तो आपके पास ही हैं.जब कोई जरूरत हो हमें बता भर दीजिए.आप इतने निराश न हों.आइए, यहां प्लेटफार्म पर बैठिए. मैं सेव चूड़ा लेकर आता हूं.''
दुबले - पतले ठिगने कद के छोटे से आदमी दीनदयाल बाबू.झूरीर्दार गोल चेहरे पर बुझी - बुझी सी उनकी आंखें, आंखों पर लगा मटमैला फ्रेम का चश्मा, लगता था कि अब गिरा, तब गिरा.वे अपने बायें हाथ से चश्में को बार - बार नाक पर जमाते.धूल - धूसरित उटंग धोती, उस पर कभी नीले रंग की कमीज तो कभी सिर्फ बंडी पहने दिखाई पड़ते. पैरों में वेल्डिंग की गई प्लास्टिक की चप्पलें अटकी रहती, तो कभी कैनवास के लाल जूतों से उनके अंगूठे झांकते नजर आते.लेकिन हर समय उनके हाथ में एक आकषर्क छड़ी जरूर रहती.बाजार लाइन की व्यस्त सड़क पर अक्‍सर वे धीरे - धीरे आते - जाते दिखाई देते.चलते - चलते वे अचानक रूक जाते,एकदम चुप खड़े हो जाते,नाक पर अटका चश्मा ठीक करते, सिर को उठाकर मिच मिचाती आँखों से देखते, भर आयी सांस के सामान्य  हो जाने पर वे फिर धीरे - धीरे चलने लगते.उनके हाथ में कोई न कोई पूड़ा या पैकेट जरूर होता जो किराना सामान या सेव - चूड़ा का होता.इस बात से उन्हें बड़ी राहत मिलती कि अब किराना दुकानो में भी नमकीन मिक्‍चर मिलने लगा है.हम बूढ़ों के लिए ही शायद किराना वालों ने यह सुव्यवस्था कर दी है नहीं तो मैं बूढ़ा सिनेमा चौक तक कैसे जा सकता था ? बुढ़ापे में हर समय  सचमुच  कुछ न कुछ खाने की इच्छा होती है. पेट तो पचा नहीं पाता,पर मन को क्‍या करें ? घर में बहू होती तो तरह - तरह के व्यंजन बना - बनाकर खिलाती और तबियत बिगड़ने पर दवा - दारू भी करती पर अब तो घर में कोई नहीं है.लड़के सब अपने - अपने बाल - बच्‍चों के साथ नौकरी - चाकरी में बाहर चले गये हैं और उस पुरखौती मकान में बच  रह गये है सिर्फ दो प्राणी, एक वे और एक उनकी जीवन संगिनी- बड़े की अम्मा.बड़े की अम्मा भी ऐसी कि जनम की बीमार.इस बुढ़ापे में किसी तरह रो धोकर दो जून दाल - भात बना लेती है.खाँसते - खाँसते जब कभी उसका दम उखड़ने लगता है और वह बेसुध हो जाती है तो खुद दीनदयाल बाबू चूल्हे पर चांवल चढ़ा देते हैं और भात के साथ सेव - चूड़ा मिला कर खा लेते और बड़े की अम्मा को भी खिला देते .दोपहर को बड़े की अम्मा आंगन की आधी धूप, आधी छाँव में बैठी - बैठी चांवल से कंकड़ चुनती, आटे से कीड़े निकालती या चने की भाजी तोड़ती.तब दीनदयाल बाबू सामने दरवाजे पर की आराम - कुर्सी पर आराम से बैठकर अतीत से बातें करने लग जाते.
बड़ा लड़का सन 35 में हुआ था या 34 में.. शायद 34 में ही हुआ था... कुछ ठीक याद नहीं आ रहा.वे पूछ उठते - बड़े की अम्मा, जरा बताओ तो अपना बड़ा किस सन में हुआ था ?'' पर उधर से कोई जवाब नहीं आता.वे जोर से पूछ बैठते - अरे, तुमने सुना नहीं क्‍या ? पूछ रहा था बड़े का जनम... वे आंगन की ओर देखते. उनका हृदय  स्नेह और सहानुभूति से भर उठता.बड़े की अम्मा आंगन में ही गुड़ीमुड़ी हो सो चुकी होती.
आज जब वे बानी बाबू के ऊंचे प्लेटफार्म पर बैठे - बैठे प्रकाश की राह देख रहे हैं तो उन्हें फिर बड़े बेटे का जन्म दिन याद आ गया....।
सन 34 का साल हो या 35 का, पर बड़ा लड़का जब हुआ था तो पूरा घर जैसे जगमगा गया था.राजमहल से बड़े दाऊजी खुद आये थे.प्राय मरी स्कूल में एकाध साल कभी पढ़े थे - दाऊ घनश्याम शरणदास.फिर दाऊजी राजकुमार कालेज में पढ़ने च ले गये थे.इतने बड़े दाऊजी ने उनसे लिपट कर कितनी बधाई दी थी.खूब उत्साह से कहा था - ठहरो ! ठहरो, बाजे वालों को रूकने को बोलो दीनदयाल.पहले बंदूक छूटेगी, फिर बाजा बजेगा.और उन्होंने खुद बंदूक छोड़ी थी...दन्‍न दन्‍न दन्‍.. तीन बार. लगता है, यह सब कल की ही बात है.दाऊजी अब नहीं रहे.बड़ा भी अब कितना बड़ा हो गया - बाल बच्‍चेदार, पक्‍के गृहस्थ.
एक दिन जब उन्हें किसी की बात से चोट पहुंची थी, उन्होंने बड़े को पत्र लिखा था. जवाब तीसरे चौथे दिन आ गया था - बाबू जी मैं आप लोगों को यहां ले तो आता, पर घर बहुत छोटा है.समझ लीजिए - अपना गाय  कोठा जितना है.हमीं लोगों को तकलीफ होती है. फिर घर बस्ती से काफी दूर है और आस - पास कोई डाँक्‍टर बैद्य भी नहीं रहते.अम्मा को बीमारी उठने से परेशानी हो जायेगी. मैं रूपया भेज रहा हूं आपकी टानिक और अम्मा की दवा के लिए...।
बड़े बेटे पर उन्हें बड़ा भरोसा था.वे दोनों खुशी खुशी अपना सामान बांध - बूंध कर बड़े के घर जा पहुंचे थे.सोचा था - घूमने फिरने से मन बहलेगा और हवा बदलेगी तो बड़े की अम्मा की तबियत भी सुधरेगी और सबसे बड़ा कारण यह था कि बड़े की अम्मा को सुनसान घर काटने को दौड़ता था.एकाकी जीवन से वह उकता चुकी थी.दरअसल वह दादी का गौरव प्राप्‍त करना चाहती थी.बड़े के बच्‍चे को गोद में लेकर उन्हें दिन रात खिलाना - झूलाना चाहती थी,बेचारी बड़े की अम्मा बड़े, मंझले, छोटे और नन्हें उसके खुद के चार बेटे. जब वे छोटे छोटे थे तो अपने सास ससुर के लिहाज के कारण वह उन्हें गोद में नहीं ले सकती थी.प्यार से चूम पुचकार नहीं सकती थी.कभी वह फुरसत के समय अपने किसी बच्‍चे को छाती से लगाये दुलार रही होती कि ससुर के अचानक कमरे की ओर आने या खंखार सुनकर वह डर के मारे ऐसी सहम जाती मानो चोरी करते पकड़ी गई हो.अब जबकि वह खुद सास हो गई तो अपने नाती नातिन को अधिकार पूवर्क बेहिचक गोद में लेकर स्नेह - प्रेम से चूम - चूम कर मगन हो जाना चाहती थी.
घर से उस दिन वे कितनी आशा, कितना उत्साह ले कर निकले थे, पर बड़े के दरवाजे पर पैर रखते ही बेटे और बहू के बूझे - बूझे चेहरे को देख उनका सारा उत्साह मर गया था.बड़े बेटा तो जैसे डर गया था - अरे, बाबूजी ! आप ? आप दोनों अचानक ? मैंने तो.. मैने तो पत्र लिख दिया था. रूपये भी भेजे थे... नहीं मिले क्‍या ?'' और चौखट पर ही जो आघात लगा था वह भीतर पहुंचने पर बढ़ता ही गया.बूढ़े दीनदयाल बाबू बड़े की अम्मा की खातिर सब कुछ सह रहे थे, पर एक दिन जब बड़े की अम्मा भी कह उठी - बड़े के जनम दिन पर राजमहल के बड़े दाऊजी ने बंदूक चलायी थी, तो मेरी छाती गर्व से फूल उठी थी और बड़ी बहू तो रोज - रोज गोली चलाकर मेरी छाती को छलनी किये दे रही है.क्‍या अब भी अपने घर नहीं चलोगे.... ?''
फिर वे पहली गाड़ी से ही भूखे - प्यासे अपने घर लौट आये थे.
दीनदयाल को उसी दिन अपने दूसरे लड़के की याद आई थी.दूसरा लड़का - वह तो बस गया है दूर पहाड़ी लंका में.इस बूढ़ापे में यहां की ठंड तो बर्दाश्‍त होती नहीं तो वहां तो हडिड्यां कड़कड़ाती ठंड में टुकड़े - टुकड़े हो बिखर जायेंगी.साल दो साल में कभी - कभी वह आता है.हाल - चाल पूछपाछ कर चला जाता है.नौकरी उसकी सबसे अच्छी है और इसी कारण उसके बाल बच्‍चे भी अधिक हैं.यहां जब कभी वह अपने परिवार सहित आता तो उन्हें बड़ी तकलीफ होती है.दूसरे - तीसरे दिन से उनका सबका मन भगने - भगने को होने लगता है.पहाड़ी इलाके की बहू को इस घर में जाने कैसी तो बास आती है, उसका चौबिसों घंटे सिर दर्द करते रहता है.उनका सबसे छोटा मुन्‍ना गोरा - गोरा गोल मटोल गोलू कह उठता है - दादा गंदे, दादी गंदी.ये घर भी गंदा.तलो न मम्मी अपने अच्छे घर में...।''
दीनदयाल बाबू एक जोरदार जम्हाई लेकर कह उठे - हे राम ! अब तीसरे बेटे से क्‍या आशा करें ? वो तो अपने ससुराल में रहता है.उसे शर्म भी नहीं लगती.हर साल लिखता है - मैं यहां बड़े में हूं.अब की दीवाली के बाद मैं अच्छा सा मकान खोजूंगा और आप लोगों को वहां ले आऊंगा.आप लोगों को वहां कितनी तकलीफ है - यह मैं जानता हूं.पर अपने इस तीसरे बेटे को पिछले बेटे को पिछला सात सालों से कोई अच्छा मकान नहीं मिल रहा है.बड़े की अम्मा कभी कभी चिढ़कर कह उठती - तुम हाऊसिंग बोर्ड को क्‍यों नहीं लिखते जी.हमारा बेटा बेचारा ससुराल में दुख भोग रहा है,उसके लिए वे लोग कम से कम एक मकान तो बनवा दें...।
दीनदयाल बाबू,बानी बाबू के प्‍लेटफार्म‍ पर बैठे बैठे आज भी हंस पड़े.वैसे वे बड़े की अम्मा से मुसकरा कर कहा करते - तुम्हें अपने तीसरे बेटे से बड़ी चिढ़ है न ? अपना चौथा बेटा नन्हें देखना, एक दिन वही हमारा सुध लेगा ?''
बड़े की अम्मा मारे क्रोध के उबल पड़ती - वो नन्हें, तुम्हारा नकारा आवारा बेटा,और वो हमारा सुध लेगा ? ऊंह...।
दीनदयाल बाबू चुप रह जाते.चौथा बेटा तो सचमुच  सबसे अलग - थलग अपने में मस्त अलमस्त है.शादी उसने की नहीं.घर का भी कोई ठीक - ठिकाना नहीं.आज यहां तो कल जाने कहां ?किसी ने उन्हें बताया था कि नन्हें ने नौकरी भी अपनी प्रकृति के अनुरूप ढ़ूंढ़ ली - टूरिंग जाँब.किसी दवा कंपनी का एजेंट हो गया है.एक बार वह कश्मीर गया था तो वहां जाने कैसे अपने बाबू जी की याद हो आयी थी और खरीद लाया था वह उनके लिए एक खूबसूरत छड़ी.चौथे बेटे ने घर आकर उनके सामने छड़ी घुमाते हुए कहा था - बाबूजी, इस मजबूत छड़ी को मैंने खासतौर से आपके लिए ही खरीदा है.आपको मालूम,इससे बढ़िया छड़ी पूरे कश्मीर में नहीं है.देखिए, न मत कहिए.समय  को देखिए ? अब आपकी उमर हो गयी है.आपको सहारे की जरूरत है
पता नहीं नन्हें आज किस शहर मे होगा.वर्षो  से उसकी कोई खबर नहीं मिली है.फिकर तो उसने कभी किसी बात की नहीं.बच पन से ही वह बड़ा लापरवाह रहा है.
दीनदयाल बाबू को चिंता हुई - पता नहीं उस घुम्‍मकड़ बेटे को हमारे मरने की खबर लग पायेगी भी या नहीं ? वे एकाएक गहरी सांस भर कर व्याकुल हो उठे.बुदबुदाने लगे - कैसा था मैं ? कैसा था अपना घर ? और अब कैसे हो गया हूं मैं - दीनहीन बेबस, और अपना घर हो गया है निजर्न - बेजान .
इतने में प्रकाश सेव चूड़ा लेकर आ गया.वह ठिठक गया.देखा - दीनदयाल बाबू धीर गंभीर बुत सी गुपचुप बैठे हैं.वह कह उठा -दादी जी उठिए, घर चलिए शाम हो रही है.
दीनदयाल बाबू ने अचानक बड़े जोर से प्रकाश का हाथ पकड़ लिया.रो से पड़े - प्रकाश, बोल तो तू, तू मेरा बेटा क्‍यों नहीं हुआ रे ?
प्रकाश घबरा सा गया.फिर सम्हलकर बोला - ऊंह, छोड़िए दादाजी,यह सब उलूल - जलूल मत सोचिए. जो सामने है उसको देखिए.कवि मत बनिए.
- नहीं रे प्रकाश... दीनदयाल बाबू भर आये गले से बोल उठे - तू मेरा बेटा होता तो सच कहता हूं आज मैं इतना असहाय  नहीं होता.
प्रकाश - छब्‍बीस वर्ष का युवक प्रकाश तब उत्तेजित हो उठा.कड़वे स्वर मे बोला - तो सुनिए दादाजी,तब आपके चार नहीं पांच  बेटे होते और आपका यह पांच वा पुतर भी नौकरी और औरत के चक्‍कर में फंसकर कहीं दूर चला गया होता.यह अच्छा है कि मैं आपका लड़का नहीं हुआ.चलिए, जल्दी घर चलिए.अंधेरा घिर रहा है.
दीनदयाल बाबू भौचक्‍क प्रकाश को देखते रह गये.

ब्राम्‍हाण पारा,राजनांदगांव (छग)   

महमल्‍ल के दो गीत


1बरगद का पेड़
डाँ. एच .डी.महमल्‍ल
बरगद का यह पेड़ पुराना मौन खड़ा है ।
सदियों से इंसान न समझा कौन बड़ा है ?


        कितने पंछी आकर इसमें नीड़ बनाते,
        गिलहरियों के झुंड यहां सुख चैन बिताते,
        सुख दुख बांटे आपस में सब, कौन लड़ा है ।।


तप्‍त दुपहरी में तन जलता पांव में छाले ,
श्रमिक - युगल इस पेड़ में आते बहियां डाले,
तब भी बरगद नहीं पूछता कौन खड़ा है ।।


        जन्म- मरण का देख रहा वह खेल निराला,
        नहीं गया कब ? इस धरती पर आने वाला,
        काल न पूछे कौन बाल और कौन जरा है ?


कितनी आंधी, गर्मी कितनी, कितना पानी,
उसकी टहनी में लिखा है राम कहानी ,
सब जीवों के लिए स्नेह रस उमड़ पड़ा है ।।

        दिन कोलाहल, नि:शब्‍द निशा में भी जीवन है
        अटल अजेय  वृक्ष वट का यह अद्भूत तन है,
        जीवन में अमृत बरसाता अमर घड़ा है ।।
2 ऋतुराज
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में,
आते हो हर बरस, कुसुम - कानन में ।।

    महलों के उस पार जहां बेघर बसता है,
    पगडंडी की टेढ़ी रेखा ही रसता है,
    रोटी ही जिनके जीवन की परिभाषा है,
    घर - जल से कुछ अधिक नहीं जिनकी आशा है,
    देव - तुल्य  संतोष सदा जिनके आनन में ।।

साधन हीन सहज हाथों से गढ़ते जीवन,
कंच न- घट सा दमक रहा निर्धन का तन - मन,
सुख समग्र भौतिक साधन से हीन जहां हैं,
मानवता के पूजक बसते दीन यहां हैं,
कीच  मीत बन यहां ठहरता हर सावन में ।।

    अजगर सा पसरा सन्‍नाटा इस बस्ती में,
    पर बच्‍चे सब खेल रहे होते मस्ती में ,
    इनका तो बस मित्र एक है कौवा काला,
    किन्तु कभी वह आ जाता है फुग्गा वाला,
    सहज सरल मुस्कान समेटे अपने तन में ।।

छोड़ सको तुम मोह अगर नंदन कानन का,
समझ सकोगे पंछी सा विस्तार गगन का,
दे जाओगे क्षणिक किन्तु सच्‍चा सुख जिनको,
सप्तरंग तब सुमन खिलेंगे, इस उपवन में,
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में ।।
गुरूर, जिला (दुर्ग )

डाँ रतन जैन के दो गीत

समय का चक्र चलता है 

डाँ रतन जैन

समय  का चक्र चलता है ।
समय  सब दिन बदलता है ।।
    समय  के साथ चलना चाहिए ।
    समय  के हाथ पलना चाहिए ।।
    समय  का करें अभिनंदन ।
    कवि की है यही अर्चन ।।
समय  से दूर जाना ही विफलता है ।
समय  का चक्र ...................... ।।

    समय  न प्रेत बाधा है ।
    समय  मोहन न राधा है ।।
    समय  दिन रात जगता है ।
    समय  जल्दी ही भरता है ।।
समय  के द्वार मे नवदीप जलता है ।
समय  का चक्र .....................।।

    समय  सर - ज्ञान हैं बांटो ।
    समय  को समय  से काटो ।।
    समय  बीता नहीं आता ।
    समय  आगे बढ़ता जाता ।।
समय  से विमुख राही हाथ मलता है ।
समय  का चक्र ....................... ।।

    समय  न कहीं टिकता है ।
    समय  न हाट बिकता है ।।
    समय  जीवन है मरण का ।
    समय  पूजा है शरण है ।।
समय  अभ्‍यर्थना से खूब फलता है ।
समय  का चक्र ....................... ।।

मेरे देश की माटी

मेरे देश की माटी
मेरे माथे का है चंदन ।
हर सांसे करती है
मेरी भक्‍ितमय  अभिनंदन ।।
सागर की उत्ताल तरंगे,
लेती है अंगड़ाई ।
नित्य  सकारे रवि की किरणे,
देती है अरूणाई ।।
प्रकृति निरंतर छटा बिखेरे
सतरंगा परिवेश ।
अति प्राचीन संस्कृति वाला,
है यह मेरा देश ।।
पुन्‍य  रूप की करूं आरती,
आराधना शत वंदन ।
आर्य पुत्र हर वेदों के
मंत्रो को गाने वाले  ।
हर संकट में सभी एक
दुदुंभी बजाने वाले ।।
मौसम हंसता वन खेतों में
त्यौहारों का मेला ।
राम कृष्ण गौतम गांधी ने
इसके रज में खेला ।।
सूरज चांद सितारे करते
किरणों का स्पंदन ।
मेरे देश की माटी,
मेरे माथे का चंदन ।।
कश्मीर अनमोल रतन है
उच्‍च हिमालय  प्रहरी ।।
किल्‍लोलित करती है पावन
गंगा यमुना गहरी ।।
भिन्‍न - भिन्‍न भाषा बोली है,
पृथक - पृथक परिधान ।
सौ - सौ बार नमन करता हूं.
जय  जय  हिन्दुस्तान ।।
देता है संदेश प्रगति का
अल्हड़ मलय  पवन ।
मेरे देश की माटी,
मेरे मस्तक का चंदन ।।
अतुल यहां की खनिज संपदा,
हीरो की है खेती ।।
केवल देती दात्री धरती,
शांति निरस्‍त्रीरण हमारी
रीति - नीति पहिचान ।
इसिलिए दुनिया में अच्छा
मेरा देश महान ।।
गरिमा - महिमा यश गाथाएं,
हैं आखों का अंजन ।
मेरे देश की माटी,
मेरे माथे का चंदन ।।
छुईखदान , जिला - राजनांदगांव (छग.)

चंदा लुकागे


  • पुरूषोतम साहू

देख तो कान्हा बादर मं चंदा ह लुकागे
अब तो जावन दे मोला रतिहा अबबड़ होगे

    अभी - अभी आय  हवस, अभी चले जाबे
    काबर राधा तंय  मोला अकेल्‍ला छोड़ जाबे

घबरावत मन धरकत हे छाती मोर
काली फेर आहूं कहत हंव हाथ जोर

    जब भी तंय  आथस, जल्दी चल देथस
    अइसन तंय  काबर मोला तरसाथस

चले आथय  मंय  सुने ल  बंसी के धुन ला
रहिथे अबबड़ बूता करे बर घर मा

    कब पाबे तंय  छुटकारा बुता ले
    बता का काम होथय  बड़े मोर ले
मु,पो. बरोली
व्हाया - बसना
जिला महासमुन्द (छग)

देवारी तंय


  • गोपालदास साहू

    देवारी तंय  आवत होबे, दीया मन ल संग म लावत होबे
    हरेली अइस धान बर हरियर लुगरा लइस
    गहिरा मन बर लीम डारा दसमुर डोंटों कांदा  लाइस
    हस हस के घर कुरिया म लीम दसमुर खोंचिस
    नागर बसुला टंगिया धोइन लइका मन गेड़ी फांदिस
    गेड़ी चढ़ाके लइका मन ल खेलावत होबे
देवारी तंय  ........................।
    थोरके दिन मं अइस पोरा बिचारा मुरहा
    ठेठरी खुरमी भजिया लाइस अंगाकर गुरहा
    तीज के  दिन पारबती अइस पूजा करिन तिजहारिन
    चउत के दिन गनपति अइस नाचिन गाइन बनिहारिन
    नंदिया बइला चढ़के रेंगावत होबे
देवारी तंय .........................।
    कुंवार अइस पुरखा मन ल संग म लइस
    पुरखा बनके कउवा पनदरा दिन बरा भजिया खइस
    नवमी अइस धान बर पियर लुगरा लइस
    दसेरा म रावन मरिस धान के छटठी निपटाइस
    तलवार धर दसेरा तंय  आवत होबे
देवारी तंय ..........................।
    गाय  बर सोहई धर के अइस देवारी
    कोहड़ा कोचइ लइस दीया बारे नरनारी
    गहिरा सोहई बांधिन साजू अउ फूलेता साजिन
    दफड़ा दमउ बजइन झूमर के नाचिन
    आज गोपाल तंय  गोवर्धन खुंदावत होबे
देवारी तंय  .............................।
भंडारपुर (करेला)
पो.- ढ़ारा, व्हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)

इनकी उनकी आजादी

कविता

शत्रुघन सिंह राजपूत
अरे ! आजादी
रसगुल्‍ले की थाली है
जिसे मिले
उसकी दुनिया निराली है
वैभव बनकर कमनी बाला
नाचे उनके द्वार
प्रश्न उछालने का
तुम्हें क्‍या अधिकार ?
उन्होंने जनसेवक की
इमेज बनाई है
तब जाकर बेचारों ने
कुर्सी पायी है !

अरे, आजादी शराब है .. शराब
जो पीये वह मस्त रहे
जनता उनको
जनप्रतिनिधि कहे
गरीबों की हड्डियों
और मांस को चबाए
देश जिनके लिए
मांसाहारी भोजन
हो जाए !!

अरे, आजादी कुछ नहीं
नेताओं के पेट का
क्षेत्रफल है !!
बाहर कुछ
और भीतर छल है !!
आजादी
त्याग, बलिदान
लहू की कहानी
बात पुरानी
अब वह नेताओं की
औरत है
इसीलिए बेचारे
भोगरत है !

आजादी ऐश्‍वर्य पूर्ण  त्यौहार है
सारे सुखों पर
उनका एकाधिकार है
वे रंगमहल बनाते हैं
रंगरेलियां मनाते हैं
और
देश सेवा का भजन गाते हैं  !!

आजादी अब अत्याचार /
अनाचार है
नादीशाही अफसरशाही है
पहचानना मुश्किल है
कौन चोर, कौन सिपाही है !

आजादी.. झूठ है / लूट है
अन्याय  है,
अव्यवस्था है
पता नहीं
कौन सी व्यवस्था है ?
अरे, आजादी उन अफसरों की
जो गद्दीदार कुर्सियों पर
दिन - रात
गोल घूमते - घूमाते हैं
जनता का खून
जंगली शराब की तरह
पी जाते हैं
सरकारी पैसे को
जो अपने बाप का माल
समझते हैं
जन हितैषी दिखते हैं !
कागज पर सारी योजनाएं
दौड़ते हैं
कागजी पुल और बांध पर
अपनी तरक्‍की के गीत गाते हैं
अखबारों में
छपते
और प्रशंसा पाते हैं !

आजादी छल प्रपंच  और
स्वार्थ का मंच  है
स्वार्थी चमकते हैं
महकते हैं
इत्र है गुलाब है
रंग बदलता ख्वाब है !

आजादी शतरंजी चाल है !
सही लोगों का बुरा हाल है
आदर्शो ने
उल्टा लटका दिया है
पल पल
करारा झटका दिया है !!
नई नई हो गई है
नैतिक - शिक्षा
जिसका सारांश है
केवल परीक्षा !!

अरी ! आजादी तू कहां है ?
तूझे कहां कहां खोजें
या तेरा अपहरण हो गया है
कौन है वह जो कांटे ही कांटे
बो गया है ?
आजादी.. बहस हो गई है
राजप्रासादों में
ठहर गई है !
या गगनचुंबी
ईमारते उसे भा गई है ?

मेहनतकश
रोज अपनी
अतड़ियां बेलता है
अपने सपनो से खेलता है
और राजनीति सर्कस दिखाती है
तालियां बजवाती है

आओ
अब आजादी को खोजें
और अपनी
यात्राएं
नए सिरे से शुरू करें ।
                    एच  /1  कैलाश नगर, राजनांदगांव (छग.)

बोधन प्रसाद के दो गीत


बनिहार
  • बोधन प्रसाद पाटकर
दिन भर जांगर टोर कमाथे,
खाये बर पेज पसीया पाथे
    काम नई मिलय  वो दिन करम ठठाथे
    नोनी बाबू मन रोवत सुत जाथे
होली दसेरा देवारी तिहार आथे
नवा कपड़ा बर लइका मन तरस जाथे
    आज अइका मन मिठाई बताशा खाथे
    बनिहार लइका ल चांउर रोटी मं भुलियारथे
हालत देख लइका के जीव तरफ जाथे
आंसू पीयत, छाती पीटत तिहार चले जाथे
    बनिहार के बेटी बेटा जवानी मं बूढ़ा जाथे
    जीवन में दू घड़ी सुख बर तरस जाथे ।
2
खेत खार
धान के सोनहा बाली मस्ती म झुमरत हे
लइका पटकाउ मन मन गढ़कत हे
गंहू चांदी कस कर्रा मेछा ल अइठत हे
चना बिचारा लुटरा मुड़ उठाके देखात हे ।
पिंयर लुगरा पहिने सरसों गावत हे
सुवा ददरिया भौरा गीत सुनावत हे
कुसुम कुंवारी मटक मटक के नाचत हे
बुढ़वा राहेर मांदर मं थाप लगावत हे
खार खार मं महुआ तेंदू, आमा खड़े अटियावत हे
मुसुर मुसुर महुवा मुसकाथे, आमा के मोर महकत हे
चार मकाइया लइका मन के मन ला ललचावत हे
किंजर किंजर के भरे मंझनिया मन भर के खावत हे
                पता . व्‍दारा -, आनंद तिवारी पौराणिक
                श्रीराम टाकीज मार्ग
                    महासमुंद

दो कविताएं : रावण को मारने के लिए, हालांकि वे भी ....

रावण को मारने के लिए
संकल्प यदु
कठिन नहीं था -
रावण को मारना
राम के लिए
कभी भी ।
रावण को -
मारने के लिए
जरूरी नहीं
दिव्य  पुरूष
या दुनिया से बाहर के
आदमी का होना ।
रावण के पास थे
दस सिर
जबकि एक सिर
बमुश्किल सम्हलता है
एक सिर को सम्हाना
यानि राम हो जाना
रावण को मारने के लिए ।
2
 हालांकि वे भी ....
आग है अभी -
कुछ गिनी - चुनी लकड़ियों के बीच ,
जरूरत है उसे -
हम जैसी और  लकड़ियों की
जो जला देगी इस जंगल को -
अपनी आशाओं के लिए ।
साथियों !
इस अंधेरे में
हम जैसी तमाम दीयों को
जरूरी है -
घर में फैले अँधेरे के साथ ही
एक दूसरे के नीचे
पनपे अँधेरे को हरना
सुबह के लिए ।
अफसोस नहीं मुझे
अपने बुझने का
वजह देख रहा हूँ
अपने सामान दीयों को,
हालांकि वे भी बुझेंगे
मगर -
सूर्य लाने के बाद ।
                                                दाउचौंरा, खैरागढ़ 
जिला राजनांदगांव छग)

'' निश्‍छल '' के दो गीत


काबर करम ले भागथस जी
विटठल राम साहू '' निश्‍छल ''
 विटठल राम साहू '' निश्छल''
करम करे ले सुख मिलही गा,
काबर तंय  ओतियाथस जी
मेहनत के धन पबरीत भईया
बिरथा काबर लागथे जी ।


    रात दिन तंय  जांगर टोर,
    तंय  चैन के बंसी बजाबे जी
    करम के खेती ल करके भइया
    भाग ल काबर रोथस जी,


करले संगी तंय  मेहनत ल
काबर दिन ल पहाथस जी
मेहनत ले हे भाग मुठा म
बिरथा काबर लागथे जी ।


    गेये बेरा बहुरे नई संगी
    नई पावस तंय  काली लग
    समें झन अबिरथा होवय
    मुड़ धर के पसताबे जी ।


झन पछुआ तंय  काम - बुता म 
बेरा ल देख ढ़रकत हे जी
समे संग तंय  दउड़ भईया
अबिरथा काबर लागथे जी ।।
2
देवारी मनानच परही 
देवारी मनानच  परही ।
रीत ल निभानच  परही ।।


    लइका मन रद्दा जोहत होही ।
    मिठाई फटाका लेगेच  ल परही ।।


अंतस ह कतको रोवय  ।
उपरछवाँ हाँसेच ल परही ।।


    पूजा करना हे लछमी के ।
    त घर - दुआर लिपेच ल परही ।।


तेल - फूल, पीसान - बेसन, ओनहा नांवां ।
करजा करके लानेच  ल परही ।।


    मन म तो घपटे अंधियारी हे ।
    फेर डेरौठी म दीया बारेच  ल परही ।।


देवारी मनानच  परही ।
रीत ल निभानच  परही ।।
मौवहारी भाठा  महासमुन्द

समस्या समाधान शिविर !

कविता 

सुनील कुमार गुप्‍ता‍  
सरकार ने
समस्या समाधान शिविर लगाई
हर तरफ समस्याओं की बाढ़ आ गई ।

अफसर परेशान हो गये
कलेक्‍टर परेशान हो गया ।
कमर्चारियों का जीना हराम हो गया ।

शहर की दीवारों में
सूचना चस्पा करवाना ।
अखबारों में विज्ञापन छपवाना ।
निश्‍िचित स्थानों पर टैंट लगवाना ।
बिजली पानी की व्यवस्था करवाना ।
चपरासी से लेकर अफसर तक का
यहां जाना, वहां जाना ।

समस्या समाधान शिविर की सफलता हेतु
हर अफसर पूर्व समस्याओं से जूझने लगे ।
दूसरों को उजाला देने के लिए
खुद बूझने लगे ।
काम की अधिकता से हर कर्मचारी
परेशानियों से इतना बह गया ।
कि
समस्या समाधान शिविर अपने आप में
एक समस्या बनकर रह गया ।
पुष्पगंधा पबिलकेशन
राज महल चौक
कवर्धा

अंतिम प्रार्थना

कहानी

गिरीश बख्शी
सदानंद को देख मैं हतप्रभ रह गया. शाम जा रही थी. रात आने को थी.चारों तरफ अंधेरा धिरता चला जा रहा था और सदानंद गली के उस हनुमान मंदिर में जहां किसी ने अभी दीया भी नहीं जलाया था भीखभाव से अत्यंत विचलित स्वर में कह रहा था -हे भगवान, महावीर स्वामी. आज मेरी प्रार्थना सुन लेना प्रभु.अभी तक मैं आपसे प्रार्थना ही तो करता आया हूं. पर आज की मेरी प्रार्थना... हे दीनबंधु.. बलशाली ! मुझे निराश न करना आज ।''
इस बूढ़े सदानंद की प्रार्थना....मुझे तभी अचानक याद आ गयी, चौथी कक्ष का बच्‍चा सदानंद की प्रार्थना. अबोध पहले की बात एकबारगी तब जीवंत हो उठी - सदानंद मेरा सदा का साथी !
हमारा आमने सामने घर .मैं दिन - दिन भर उसके यहां रम जाता खेलकूद में.अम्मा बुलाती - आज खाना वाना भी नहीं है क्‍या अनु ? ईतवार का उपवास कर रहे हो ?मैं तुरंत दौड़ आता साथ सदानंद भी दौड़ जाता.मां डांटती - अरे संगधरा तुझे भूख वूख नहीं लगती ? पार्वती परेशान होगी. जा खा पीकर आना .''
हंसमुख सदानंद हंसकर कहता - चाची आप बहुत अच्छा खाना बनाती हो.मैं आज यहीं खा लूं अनु के साथ ?''
अम्मा उसकी होशियारी देख खुश हो जाती - बहुत चतुर चालाक है रे तू ! जा तू भी हाथ धो आ. मैं खाना परोसती हूं.''
हम दोनों सड़क - सड़क नहीं गली - गली स्कूल जाते.गंजपारा प्रायमरी स्कूल.सदानंद को तब गली पसंद थी क्‍योकि गली में रियासतकालीन हनुमानजी का बड़ा मंदिर था.वह बस्ता जमीन पर रख देता.हनुमान जी के पैरों तले लगे बंदन को उंगली से निकालकर माथे और गले में भी लगाता. मैं पूछता - बंदन, गले में क्‍यों लगाता है सदानंद ?''
सदानंद श्रद्धा से कहता - मेरी मां लगाती है इसलिए. वह फिर दोनों हाथ जोड़कर कहता -हे हनुमानजी, इस बर सदानंद का प्रार्थना है - बड़े होने पर आप मुझे पुलिसजी बनाना बजरंगबली.
मैं भी तब बच्‍चा था. उसकी प्रार्थना पर तब मुझे हंसी न आती.मैं कहता - सदानंद तू पुलिसजी क्‍यों बनना चाहता है ?''
वह शान से कहता - मैं .. मैं पुलिसजी बनकर बड़े बड़े लोगों को पकड़ूंगा.मेरा चोर से नहीं बनता. अच्छा  बता तू क्‍या बनेगा ?'' मैं भी घमंड से कहता - मैं जज बनूंगा.अपने चाचाजी जैसा जज. और मैं तुम्हारे पकड़े हुए चोरों को सजा दूंगा.''
पर बचपन की बातें. बचपन की प्राथर्नाएं. सब बचपन में खो गई.न सदानंद पुलिसजी बन सका और न मैं चाचाजी जैसा जज .
हम दोनों मैटि्क के बाद काँलेज में भर्ती हो गए.दोनों के सब्‍जेक्‍ट एक , क्‍लासरूम एक ,प्रोफेसर एक और पास हुए तो डिवीजन भी एक - मतलब सेकंड डिवीजन.पर नौकरी लगी अलग- अलग.सदानंद हुआ बैंक में क्‍लर्क और मुझे मिली स्कूल में टीचरशीप.
शाम को हम दोनों रानीसागर के किनारे - किनारे घूमने जाया करते.खूब बातें करते. वह अपने बैंक की क्‍लर्की से खुश न था. उसे मेरी मास्टरी नौकरी अच्छी लगती. और तनख्वाह कम होने के कारण मेरा आकर्षण बैंक सर्विस में था.दोनों अपनी - अपनी नौकरी की परेशानी बताते.सदानंद कहता - क्‍या‍ बढ़िया तुम्हारा जीवन.सदा बच्‍चों ‍ के बीच  मगन रहते हो।'' मैं दहला मारता - और तुम जो नोटों से खेलते रहते हो.लक्ष्मी जी की तुम पर कितनी कृपा है.हम चाक डस्टर वाले मास्टर को तो हरे - हरे नोट के दर्शन् ही नहीं हो पाते ?''
वह तुरंत जेब से सौ का एक नोट निकालकर कहता - लो, दर्शन कर लो. पर यह सच  है अनु,  शिक्षक जीवन सौम्य  शांत जीवन होता है.''
लेकिन एक दिन सदानंद ने अपने बैंक की नौकरी की खूब तारीफ की. उस दिन वह बड़ा प्रसन्‍न था.बोला - चलो मिठाई विठाई लेकर कहीं दूर किसी बगीचे में बैठे.मैं तुम्हें गोपनीय  बातें बताऊंगा.तुम किसी से न कहना .''
मैं उत्सुक हो उठा. सोचा - प्रमोशन आर्डर आने वाला होगा.पर अनुमान गलत निकला.सदानंद को प्रेम हो गया था.बैंक की सहकर्मी से.मैंने कहा - यार, तुम भी छुपे रूस्तम निकले.क्‍या नाम है कन्या का ... मतलब भाभी का ?''
उसने परेशानी से कहा - अनु,कन्या और भाभी के बीच  में सो मेनी अप्स एंड डाउंस है.पहली बात प्रेम मुझे हुआ है.पता नहीं उस कन्या को भी हुआ है कि नहीं.वैसे वह जब तब मेरे पास आफिशियल प्राब्‍लम लेकर आती रहती है. कहीं वह .. मतलब मेरे प्रेम को ठुकरा ... खैर .. अभी इस बात को छोड़ों.दूसरी बात, यदि कन्या भी मान लो प्रेमाभिभूत हो गई तो मुझे पिताजी का भय  है.वह विजातीय  से विवाह के लिए कतई राजी नहीं होगे. अनु वे जात - पात के मामले कट़टर है.''
मैंने सहानुभूति जताई - सदानंद कहो तो मैं तुम्हारे पिताजी से ...।''
वह एकदम कांप गया - नहीं - नहीं, उनसे कुछ मत कहना.वे भड़क जाएंगे.''
मैं पूछ उठा - तो फिर .... तू क्‍या ... एक दिन देवदास हो जायेगा ?''
वह हंसा नहीं. गंभीर था.बोला - मैं ही कुछ करूंगा.''
फिर हफतों उससे मुलाकांत नहीं हुई थी.वह बैंक के बाद कहां जाता, पता न लग पाता. एक शाम मुझे अकेला घूमते देखकर एक परिचित घुमक्‍कड़ बोला - आजकल तो तुम्हारा सदानंद वो गली में रोज शाम को जाता है क्‍या चक्‍कर है उसका ?''
मैं चकित हुआ - गली में ! कहां कौन - सी गली में ?''
उसने बताया - वही गली, जो गंजपारा स्कूल की ओर जाती है .''
मैं तुरंत लौट पड़ा.मेरी शंका सही थी.सदानंद इसी रियासतकालीन हनुमान मंदिर में हनुमानजी की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े खड़ा था.वह कह रहा था - हे संकटमोचन. हे रामभक्‍त. इस प्रेमी सदानंद की प्रार्थना सुन लो, प्रभु मेरा विवाह मेरी सहकर्मी क्‍लर्क कमला से करा दो. कमला से करा दो, हे महावीर बजरंगबली.''
मैंने खंबे की आड़ से देखा - उसके माथे और गले मे बंदन लगा था.
जवानी में जैसे अन्य  लोगों का प्रेम का चक्‍कर कुछ दिनों का होता है, ठीक वैसे ही सदानंद के प्रेम की भी परिणति हुई.कमला के तबादला होते ही उसका एकांगी प्रेम भी अपने - आप तिरोहित हो गया.
एक दिन पिता जी ने जिस कन्या से उसकी शादी तय  की उसी के साथ उसने चुपचाप सात फेरे लगा लिया.पत्नी ही फिर उसकी प्रियतमा हो गई.जीवनचक्र मजे से घूमने लगा.उसके दो लड़के और दो लड़कियां हुई.उसने सबको पढ़ा लिखाकर उसका विवाह किया. लड़कियों की बिदा की.लड़के अपनी - अपनी नौकरी में सपरिवार बाहर है और भगवान की दया से दोनों लड़कियां ससुराल में स्वस्थ एवं सुखी हैं.
और अब रह गये घर में  फिर वही दो के दो.
सदानंद बैंक की नौकरी से रिटायर होकर वृद्ध हो गया और उसकी प्रियतमा बूढ़ी होकर बहरी हो गयी है. तो वही मेरा बचपन का साथी सदानंद हनुमानजी की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े विचलित स्वर में कह रहा था -इस बूढ़े सदानंद की प्रार्थना आज सुन लो, प्रभु ! महीनों बिस्तर में पड़े,नाक में नली लगे दरबारी की दुदर्शा देखकर मैं अभी अस्पताल से सीधे आपके पास आ रहा हूं. मैं भयातुर हो गया हूं स्वामी.हे बजरंगबली. हे मेरे ईष्‍टदेव !!मेरी यह अंतिम प्रार्थना है, संकटमोचन, हे कृपासागर. मुझ पर कृपा करना - मुझे स्वस्थ मृत्यु देना, मुझे स्वस्थ मृत्यु देना भगवान ।
  • पता- ब्राम्‍हाण पारा, दिग्‍िविजय कालेज रोड, राजनांदागांव ( छग)

अन्तर्द्वंद


कहानी
सुरेश सर्वेद
 घंटी बजते ही मैंने दरवाजा खोला.सामने खड़ा युवक अनचाही मुस्कान ओंठ पर बिखेरने के साथ ही मुझसे पूछा- खन्‍ना जी घर पर हैं ...?
मैं जवाब देती इससे पूर्व पापा पहुंच  चुके थे.बोले- कहिये....।
- जी, मैं मकान देखने आया हूं....।
हम समझ गये- इसे किराये का मकान चाहिए.पापा उसे भीतर ले गये.कल ही एक कमरा खाली हुआ था.पापा उससे जानना चाहा कि शादी शुदा हो या अविवाहित.वह क्षण भर चुप रहा.संभवत: वह इस प्रश्न से थक हार चुका था.पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय  उसने कहा- यदि मैं शादीशुदा न होऊं तो  क्‍या मकान नहीं मिलेगा ?
पापा चुप रहे.उसने कहा-यदि यह बात है तो मैं चलूं....।
पापा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-दरअसल,घर में जवान बेटी....।
पापा अपनी बात पूर्ण  कर पाते कि उसने कहा- आपका कहना गलत नहीं.मैं चलता हूं ....।
वह जाने लगा.मुझे और पापा को अच्छा नहीं लगा. पापा ने उसे रोकते हुए  कहा- तुम मकान देख तो लो.तीन सौ रूपए मकान किराया है.बिजली बिल पटाना होगा.
औपचारिकता रूप प्रश्न पर विराम लग गया.अब उसे कमरा देखकर हामी भरनी थी.उसने कमरा देखा,परखा और तीन सौ रूपये में उसने हामी भर दी.उसने किराये का अग्रिम तीन सौ रूपए पापा के हाथ में थमा दिया.
दूसरे दिन उसका समान आया.वह हमारे घर रहने लगा.
प्रति माह बिना कहे वह बिजली बिल और मकान किराया दे देता था.उससे हमारी शुरू-शुरू में निकटता नहीं थी.कुछ महिनों बाद हम उसकी आदत व्यवहार से परिचित हो चुके थे.पापा ने उससे दो तीन बार हमारे घर भोजन करने कहा.वह नहीं खाया.हमें उसका अस्वीकारना बुरा नहीं लगा.हमने सोचा -शायद,इसे दूसरे के घर भोजन करना ठीक नहीं लगता होगा.
वह जब तक घर में रहता,भीतर ही घुसा रहता.आंगन में निकलता तो भी चुप रहता.उसकी मौन मुद्रा ने न जाने कब,कैसे मेरे मन को उसकी ओर आकषिर्त किया.महिनों बीत जाने के बाद भी उसने मेरी ओर नजर डालने की आवश्यकता नहीं समझी थी.कभी-कभी मुझे लगने लगा था कि वह मेरी ओर देखे.मुझसे बातें करे.सच  कहो तो मैं उसकी आदत व्यवहार से आकषिर्त थी.मैं उसे चाहने लगी थी.जब कभी भी हमारी नजरें टकराती तो मुझे सुखद अनुभुति होती.कैसी सुखद अनुभुति ! मैं समझ नहीं पायी थी.
अब मैं देर रात तक जागती.मुझे उसका इंतजार रहता.उसका आगमन मेरे लिए सुखद होता.वह जब तक नहीं आ जाता मैं आंगन में टहलती रहती.मेरी इच्छा तो कई बार उससे बातें करने की होती मगर शबद विस्फारित होने से जी चुराता था.
पापा आफिस कार्य से बाहर गये हुए थे.घर में मैं अकेली थी.पापा को तीन दिन नहीं आना था.सोची थी- किराएदार मेरी कह मानेगा.पूर्व अनुमान से ही मैंने अपने साथ उसके लिए खाना बना ली थी.मैं आंगन में टहलती उसका इंतजार करने लगी.वह अपने समय  पर ही आया.नहीं आया था तब तक तो इंतजार करती रही मगर उसके प्रवेश करते ही मेरे हृदय  की धड़कन बढ़ गयी.मुंह पर शब्‍द आया पर बाहर नहीं निकला.वह भीतर घुस कपाट भिड़ा दिया.मैं कुछ कह नहीं सकी.मैं बेमन धड़कती धड़कन लिए भीतर घुस गयी.मेरा मन अशांत था.उसके कमरे से स्टोव्ह की आवाज आने लगी.मैं कभी कीचन में जाती फिर कभी आंगन में आती.उसका दरवाजा खटखटाना चाहती थी.मेरें इन तमाम प्रतिक्रियाओं से निश्चिंत वह भोजन तैयार करने व्यस्त था.स्टोव्ह बजना बंद हो गया.बतनों की आवाज ने स्‍पष्‍ट कर दिया कि वह भोजन करने जुट गया .मैं उस रात खाना नहीं खा सकी .
सुबह नास्ता बनायी.उन्हें बुलाकर खिलाना चाही.यह भी रात की ही तरह विफल रहा.वह तैयार हो काम पर चला गया.मैं स्वयं को कोसती रही.निश्‍चय किया कि चाहे कुछ भी हो मगर आज उससे आग्रह करूंगी.मन तो चाह रहा था कि वह दिन में ही घर आ जाये.उसे बीच  में नहीं आना था नहीं आया.आया तो अपने समय  पर ही.वह आंगन में पहुंचा कि कल रात और आज दिन भर  की बेचैनी मुझसे सहा नहीं गयी.अनायास मैं कह उठी-तुम्हारे लिए खाना बनाई हूं,हमारे घर खाना...।
वह चुप रहा.अपने कमरे में चला गया.मुझे चोट लगी,आत्मा में चोट.यह तो घोर अपमान था.उस रात उसके कमरे से स्टोव्ह की आवाज नहीं उभरी.मैं जानती थी- वह होटल में खाता नहीं है.उस रात हम दोनों बिना खाये रहे.
मेरे भीतर कितनी छटपटाहट थी यह मैं ही अनुभव कर रही थी,सिर्फ मैं...। मैं स्वयं पर झूंझला भी रही थी कि क्‍यों इसके पीछे पड़ी हूं.यह एक श्‍ाब्‍द उगलने तैयार नहीं और मैं पागलों की तरह इसका इंतजार करती हूं वह भी घंटों...। अब मुझे इसका इंतजार नहीं करना चाहिए.
आज मैं इंतजार नहीं करना चाहती थी.उसे देखना भी नहीं चाहती थी.बावजूद मैं इंतजार करते जाग रही थी.थोड़ी सी आहट से मेरे कान खड़े हो जाते.आंखें दरवाजे की ओर दौड़ पड़ती.घड़ी पर बार बार नजरें जाती.मेरे लिए क्षण-क्षण भारी पड़ रहा था.जब वह आया तो मैं अनायास पलंग से उठ बैठी.हृदय  की धड़कन बढ़ गयी.मैं बिना सोचे समझे तेज कदमों से उसकी ओर लपकी.वह दरवाजा खोल चुका था.भीतर घुसने जैसे हुआ मैं उसके सामने हो गयी.वह क्षण भर हड़बड़ा गया.कहा- सोनाली,तुम जो कर रही हो,वह ठीक नहीं है....।
मैं खीझ उठी- क्‍या ठीक नहीं है.मैंने ऐसा क्‍या किया है जो अनुचित है.क्‍या मैं सुन्दर नहीं हूं....?
वह शांत हो गया.एकदम शांत.फिर बोला-सोनाली तुम सुन्दर हो,बहुत ही सुन्दर तन-मन सबमें.मैं तुम्हारी इस सुन्दरता पर अपनी काली छाया पड़ने नहीं देना चाहता
- मनीष,मैं तुमसे बेहद प्यार करती हूं. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकती.
मैं उससे लिपटने उद्धत हुई.उसने मुझे परे धकेल दिया.फिर अचानक मेरी कलाई पकड़ी.मैं सिहर उठी. वह मुझे खींचते कमरे में ले गया.कमरा अंधेरा में डूबा था,उसने लाईट जलाई.सामने सुन्दर  तस्वीर टंगी थी.नीचे लिखा था- स्वगीर्य  बिजली.....।
मेरी आंखो के सामने बिजली कड़की.वह कहना जारी रखा- सोनाली,मैं इससे बेहद प्यार करता था.यह भी मुझसे प्यार करती थी.हमने जब प्यार का इजहार किया.साथ जीने मरने की जिस दिन हमने कसमें खायी उस दिन मैं बहुत खुश था.पहली दिन जब उसे लेकर जा रहा था कि सड़क दुघर्टना में इसकी जान चली गयी.मैं कलंक का बोझ उठाये जी रहा हूं....।
उसका गला भर आया था.आंखें भर आयी थी.मैं उसका आंसू पोंछा देना चाहती थी मगर यह अधिकार मुझे मिला नहीं था.मैं कुछ नहीं कर सकी.उसने कहा- मैं नहीं चाहता कि इस कहानी का पुनरावृत्ति हो....।
मैं चुपचाप उसके कमरे से बाहर आ गयी.उस रात न मैं सो पायी और शायद वह भी नहीं सो पाया.तीसरे  दिन पापा आ गये.वह आज सुबह से निकल गया था.जब आया तो उसके साथ दो कुली एक जीप थी.उसने पापा से कहा- मैं आपका मकान खाली कर रहा हूं...।
पापा को कुछ समझ नहीं आया.वह जीप में सामान डालवा चलता बना.पापा और मैं उसे दूर तक जाते हुए देखते रहे.वह हमसे दूर चला गया...बहुत दूर....।
                                        तुलसीपुर राजनांदगांव

सोमवार, 25 मार्च 2013

जनम कुँवारी

                            मंगत रवीन्द्र
पहली हमर ददा हर कहै - पेड़ ल कुलहरिया पास थे अउ मनखे ल लकवा मार थे.कुलहरिया पासे पेड़ म रोंट - रोंट थाँव, आप सुभाव रटाक ले टूट जा थे अउ बई मारे मनखे, टाटक पोटक म अर पर जा थे.लकवा कई रकम होथे - मुह ल मारथे ता सुसवा हर एकंगी हो जाथे अउ लार थिपत रथे.दूसर लकवा होथे टंगरी या हाथ ला मारथे एमा हाथ गोड़ खूंटी मे टंगाये पउहा कस ओरम जाथे. अउ एक ठन बड़े बाई होथे जेमा आधा अंग ल मार देथे हालत म खटिया म कथरी कस फेंकाय  ल परथे. ऐमा दू पार के बुता रथे.ढ़लगे रूख फेर ठाढ़ नई होवै अइसे लकवा मारे मनखे फेर ऊपर करके दरंग - दरंग नई रेंगै न मुंह भर खलखला के हंसय .
जइसे भी रहै भगवान हर कहूं ल अइसन झन करै. दुख के डबकत तेल म झन झपावै.जेठू कका के दू ठन बेटा - सुजाना अऊ सुखरू.. सुजाना बने होसियार रहै, पढ़े लिखे में चेत करै.फेर सुखरू.. सिटपिटहा बानी,ओतहा..रिसा के खायेच  के पातुर रहै.ददा हर स्कूल म भरती करिस.. हफता, महिना भर पेले ढ़केले म गइस फेर एक दिन गुरू जी हर आन लइका ल रहपट म ठठाइस ता सुखरू ओला देख के छुलुल - छुलुल मूत डरिस,पोटा कांप गे अउ उही दिन ले घर म गलियार बइला कस अड़ दिस.ददा हर कतको समझाइस तभो ले तरी मूड़ ले उपर मूड़ नई करिस. जा जेकर जइसे बदे हे तइसे होथे -
'' जेकर भाग म जइसे, तेला मिलथे तइसे
जेकर करम खोटहा हे ता का करही
प्यास लगही तभे तो नरवा म जा मरही ''
सुजाना सही म सुजाना ए.ददा दाई के कहे करै.चेत लगा के पढ़िस लिखिस अउ एक दिन पढ़ लिख के ग्राम सेवक बनगे.ऐती सुखरू जस के तस.. जइसे तरिया घाट के पखरा.पूरा आही त के धूप  आही ता अपन ठउर ल नई छोड़य .सुजाना के दुरिहा म पोष्टिंग होइस.महिना के छै महिना म घर आवै.जवजरिहा भाई सुखरू.. घर के काम बूता म फंदागे.ऐती पगार मिलत गिस थोरकन फुरफुरावत गइन.ददा जेठू हरदुनों भाई के बिहाव ल एके मड़वा म निपटा दिस.सुघर बहू पाइस.सुमता में गिरहस्ती के फुलवारी चार दिन बढ़िया महमहाइस फेर उजरत बेर नई लागे.सुजाना हर अपन बई ल अपन ठउर म लेगे.कतेक ल घेरी - बेरी घर आवै.सरकारी काम अउ गिरहस्ती म तीरा झिंगका होवत रहिस.बने करिस नारी पुरूष एके ठउर म रथें ता सुमता हर जादा बाढ़थे.छोकरा लइका बर तो  रंधई कुटई हर सजा ए... नोनी जाते हर एला जानै....।
'' रांधै कुटै घर बाली,पहिरे लुगरा लाली
कुटे ढ़ेंकी खोवै खोना,खीर परोसे दोना - दोना ''
मांग के आये रथें, तइसे लागथे.बेरा आथे ता बेरा घला केवटिया ले ले थे.केरा के पान ल पकराय  मं बेर नई लागै.सेमर के फुल कतको अद्घर म चकचक ले फूले रहै बदाक ले गिरे ल परथे. भाटा हर कतको गोलिंदा रहय  एक दिन कड़ा जाथै.मनखे कतको सतवादी हे तभो ले एक दिन बेरा म नीय त हर डोल जा थे.
सुजाना अउ सुखरू के परवार के बढ़ती अउ एती दाई ददा के जांगर के घटती.. दाई - ददा के रहत ले सुमत हर बने रथे.आगू पाछू होके दाई ददा मन के सरगवास होगे.राग पानी उठाइन.सुखरू बिचारा घर ल सम्भालिस अउ ओती सुजाना हर सरकारी सेवा म बिधून हे.कथे न - मिरचा हर झार रथे तभो हर एक दिन ओकर भीतर भुरिया जाथै.गोरिया नरिया देह ले मनखे के पूरा गुन ल जाने नई सकावै.मन हर कतका कच लोइहा हे तेला कोन जान सकत हे.
दाई - ददा के मरे ले सुजाना के मन हर धीरे धीरे भाई कती कलदब आये लगीस.परवार बाढ़गे.अपन ल देखै के भाई ला... अब तो धीरे - धीरे धूरिहा होए लगीस.बच्छर पुट खेत बिसावै अउ अपने नाम म रजिस्टी करै.भाई ल पुंछेल देवै ओकर हिस्सादारी नई रहै.. गुमसुम सब बुता ल कर डारै.देख कतका तार कपट हे तेला.. सुखरू ए गम ल का जानै.. ए तो अतके के खुश रहय  के भाई हर साहेब हे... ओकरो पहुना ल बने खाय  पीये ल देवय  मान गउन करै.
सुखरू हर भइसा कस कमाए ल जानै... अउ नींद भर सुतय .एकरो पोट्ठा परिवार बाढ़ गे.तीन नोनी, दू बाबू..। नोनी बिहाव क रै के लाइक होगे.भाई ल संसो नइए.. ओ तो चीज जोरे के धून म हे... सुखरू के बड़े नोनी सगियान होगे.दाई - ददा के चेत हे के कहुं कती ले सगा पहुना आतिस ता भांवर ला किंदार दते ओ.. फेर बिधाता के अइसन मन नइए...।
सुखरू मुरूम खने गये हे.गांव मं पहुंच  मारग बनत हे.फुटहा मंदिर के इटटा हिंठथे, बर के नहीं..। भरे टेक्‍ट्रर खइया म जा के बोजागे.जम्मों लेबर मन मुरूम म दब गीन.धरा लगाके हेराई घलाई म दु चार झन बचिन फेर सुखरू बेचारा प्रान ल तज दे रहिस. ओ तो मंज म परे रहिस सांस के जथा नहीं... घर म करलाई मातगे.रोना राही.. बिपत के पहार लदागे... अभागिन बेलिया, मुंह पटक - पटक के रोवै.दुख के बइहर ल कोन भाय  सकही.. अलदा थाव ल कुलहरिया पास दिस... कतेक ल कहिबो, राग पानी उठाइन. अब तो बेलिया के जिनगी टूटहा दउरी कस होगे.तुनै त तुनै कोन... जु कमची म नवा कमची कोन खोचै ? लइका मन के बाढ़ती, कुरा ससुर के कुमया, धनी के सरग वास... एके पइंत तीन जकना फलक गे.... बेटी के सुख के सपना देखत रहिस.. अउ ओही आंखी ले आंसू के धार गाल के कोन्टा ल टार बना डारे हे. जेमा संझा - बिहनिया  मधीम - मधीम धार ढ़रत रथे.जिनगी बोइर कांटा तरी म माढ़े हे.
बेटी सुनैती के देह म मोती के पानी चढ़गे हे. दाई देख अंधियारी रात के अधचना चंदा कस देख फेर मन के खोली म चुपचाप लुका जाथे.एक दिन बड़े ल कहिस - हहो बड़े, नोनी बर सगा आवत हे. कुछू करा धरा न...। सुजाना हर आगू म तो हहो कहीस फेर पाछू कुंवरहा कस बादर फर नई फिरिस... बेटी सुनैती हर दाई के मन के पीरा ल बढ़ दुरिहा ले सुन के कहिस - दाई, मोर संसो छोड़... तोर देहे हर घुनाए लकरी कस होगे.कब टूट जाही गम नई मिलय .मैं जनम कुंवारी रइहौं अउ मोर सब भाई - बहिनी मन के बनोकी बनइय बनै चाहे दुनिया मोला हंसे एक संसों नई हे, अइसे गुन सोच  के नोनी सुनैती खूब पढ़िस.अपन पांव म खड़े होये के मनसा धरे हे.
एही बीच  बड़े ददा, पोसे के डर म दु:खियारिन बहू ल अलग कर दिस. बांटा खोंटा कर दीस.सुख के फिरै अउ जाय  म समय  नई लागय .बेटी सुनौती अपन बल म तीर के धरम अस्पताल म नरस बाई बनगे.अब तो जिंदगी के फूलवारी म पानी पले लगीस.दाई के अउटे गाल के ओही टार म रबोदहा पानी के धार के बदला म सुख के निरमल पानी बहे लगीस.मन के संसों के काई छंटागे.
एती बड़े ददा के मन के कपट भाव देखे नई सकत हे.कथें न - काय रता जिस चेहरे का श्रृंगार करती है, मक्खियाँ भी बैठने से इंकार करती है.ओकर जम्मों लइका गंवार निकल गे.पढ़े - लिखे म ककरो चेत नई.फकट लोफरई.. ।तलब गुटका म परान.. पर के चारी म परान... टी.वी., रेडियो अउ किरकेट म चेत.लइका मन के गंवारी ले घर हर बंदरो बिनास होवते हे.आँड़ी के काड़ी नई करै.फेर खाये ल चिन - चिन खोजथय .बड़े घर के पटंतर देथे के फलाना घर के कइसे खाथे..कइसे पहिरथे.. फेर ऐ नई सोचय कि वोमन कइसे पढ़े लिखे हे अउ नउकरी करत हे.खेती - बारी, बाग - बगीचा म चेत हे.इहां अइसन कहां पाबे..।
बड़े ददा सुजाना हर छुटटी म घर आये हे.थोरकन - पीये रहिस ओती तो ओकर बिना रहिबे नई करै,ऊपर ले पुतकी म गांजा...। क थे ना...
'' भांग मांगे रूखी सुखी, गांजा मांगे घी ।
शराबी मांगे च प्पल, मन लागे तव पी ।।''
संझा के बेरा.. सुवारी मन रंधई - कटई म लगे हे.रउत के गरूवा के टोंटा के टापर ढ़नढ़नाढ़न बाजत हे.पनिहारिन मन तरिया ले लहुट गेहे.दाई हर गोरसी के छेना आगी म लइका ल सेंकत हे. परोसी मंगलू हर माखूर मांगे के ओड़हर बुले ल आये हे.बड़े ददा सुजाना हर सीढ़ी ले उतरत रहिस त न जाने का होगे. धीरे बांधे करके उतरिस फेर एक ठन हाथ अउ गोड़ हर थोथवागे मुंह हर एकंगी अइठागे.फाटे कोटना के पसिया बरोबर लार बोहावत हे.ढ़ेखरा म ओरमे पड़ोरा बस एक ठन हाथ हर ओरम गे.देखा - देखा होगे.फुकइया - झरइया ल बलाईन.बइगा मन सर भर उपाय  करिन.. पर सुधार नई हे. गांव - पारा म हल्‍़ला होगे के - फलना चिट्ट ल लकवा मार दीस.सनौती बेटी सुनिस त अस्पताल के गाड़ी ले के दउड़िस अउ अपन अस्पताल म भरती करिस.सूजी उपर सूजी, बोतल ऊपर बोतल चढ़िस ता मरे ले बांचगे.फेर जेला घुरे ल रथे तेकर बर ओखद घला काम नई करै.. खटिया म परे सब बुता होवत हे.फूटे बांस कस गोठ हर निकले.बकि हर पूरा नई फूटै. बेटी सुनौती ल पास म बला के कहिस - बेटी, मंय  अधरमी आंव, पापी अउ चंडाल आव. अपन करम के करना ल भोगत हंव... छिमा कर देबे बेटी मोला... तोर बाप संग भारी छल - कपट करे हो तेकरे सेती आज भुगतत हौं.
बेटी सुनौती के आंखी मं आंसू आगे. कहिथे - बड़े ददा, अइसन नोहे, तंय  गलत सोच त हस.ऐहर कोनो पाप नोहे.. तोर ऐहर मन के मनसा ए...एहर तो एक परकार के बीमारी ए..मंय  हर जी - जान ले तोर ईलाज पानी ल करिहौ.... सेवा म मेवा हे.. कहत बेटी घला बोमफार के रो डारिस..... ।
कथे न - मन के पाप हर छानी च ढ़के नाच थे... जइसे भी रहै, सुजाना अपन मन के पाप ल उगल डारिस...।
                                        मु.पो. कापन (अकलतरा)
                                    जिला - जांजगीर चाम्पा (छग.)      

निगाहें कातिल

नलिन श्रीवास्तव
निगाहें कातिल में हिजाब नहीं
हैं कत्ल कितने किये, हिसाब नहीं -
    मेरी बस्ती में है सवाल ही सवाल,
    एक चेहरा भी बा - जवाब नहीं -
आसमां लगता है, बियाबां - सा,
कोई आफतबो महताब नहीं -
    जिसके किस्से में तू नहीं मैं नहीं,
    क्‍या ऐसी कोई किताब नहीं -
जब्‍त है कहकहों की तम,
मुस्कराता सा भी कोई ख्वाब नहीं -
    है जहन जलता हुआ आफताब सा,
    पर सुबह की रौशनी का ताब नहीं -
हर कदम पर दम है बस उखड़ता सा,
सोचता हूं फिर भी इन्कलाब नहीं -

पता - वार्ड नं. - 32, ब्राम्हाणपारा, राजनांदगांव(छग)

सं‍पादकीय कार्यालय‍ एवं संपादक

                 वर्ष - 6           अंक - 4             फरवरी 2013 से अप्रैल 2013
                              विचार  वीथी
                      साहित्य - कला - संस्कृति की त्रैमासिक

संपादक
सुरेश सर्वेद

    सहयोगी
    आचार्य सरोज द्विवेदी
    वीरेन्द्र बहादुर सिंह
    डाँ सुनील गुप्ता  '' तनहा''
 (संपादन पूर्णत: अवैतनिक एवं अव्यवसायिक)

सदस्यता शुल्क
मूल्य - 10  दस रूपये
एक वर्ष - पैंतीस रूपये
दो वर्ष - पैंसठ रूपये
आजीवन - एक हजार एक रू .
(केवल मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट ही स्वीकारे जाएंगे)

मुख्य कार्यालय
वार्ड नं. - 16, तुलसीपुर,
शास्त्री चौक, राजनांदगांव (छग.)
पिन कोड नं. - 491- 441
मो :- 94241 - 11060
 0 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन सुरक्षित 0 प्रकाशित सामाग्री के किसी भी प्रकार के उपयोग के पूर्व प्रकाशक - संपादक की सहमति अनिवार्य है 0 पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं से प्रकाशक - संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है 0 किसी भी प्रकार के वाद - विवाद एवं वैधानिक प्रक्रिया केवल राजनांदगांव न्यायालयीन क्षेत्र के अंर्तगत मान्य।

       कविता
मरघट के सेवा
  •                         आनन्द तिवारी पौराणिक
एक झन टुटपुंजिहा नेता ह
मरघट के करिस उद्घाटन
अऊ दिस सुग्घर भासन
दाई, ददा, भईया
मोर लाज के रखईया
तुम्हर सेवक आंव पतियावव
मोर लाइक अऊ कोनो सेवा बतावव
ओतके म कबर ले
निकलिस एक ठन मुरदा
चारों मुड़ा बगरगे धुर्रा अउ गरदा
मुरदा ह बड़े जोर से चिल्लाइस
अपन गोठ ल बताइस
भईया अभी तैं अपन कोती जा
लात देके सुते रह अउ आराम फरमा
अभी त जियत हस जादा झन गोठिया
सेवा हमर करना हे त  मुरदा बनके आ
                                                                            श्रीराम टाकीज मार्ग,
                                                                                    महासमुंद,छग

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बिन्दा

जन्म -26 मार्च, 1907
फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु -11 सितंबर 1987
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
कहानी
                                                            
                           महादेवी वर्मा
भीत- सी आंखोंवाली उस दुर्बल छोटी और अपने - आप ही सिमटी - सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।''
-नहीं यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी।'' सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - मेरी दूसरी पत्नी है,और आप तो जानती ही होंगी ?'' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिन्दा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा ..ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिन्दा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्गगमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा मे छोटे - छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त - सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती सीढ़ियों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आंख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता - भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निरूसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दॉत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी - छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े - मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा - रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार - द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने -पिलाने,सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।
और बिन्दा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिन्दा नयी अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे -  कसे चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी - सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई ऑखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर - सा सिन्दूर उनींदी सी ऑंखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग - बिरंगी चूड़ियाँ और घुंघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।
यह सब तो ठीक था पर उनका व्यवहार विचित्र - सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना - मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था। तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च - से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन - तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रॅभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी। परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। उठती है या आऊं बैल के - से दीदे क्या निकाल रही है। मोहन का दूध कब गर्म होगा। अभागी मरती भी नहीं। आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी,उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।
कभी- कभी जब मै ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिन्दा ही आंगन से चौके तक फिरकनी - सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आंगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नयी अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था। क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव - से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी - कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था,तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था। वहीं बिन्दा घर में चुपके - चुपके कौन - सा नटखटपन करती रहती है? इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात - दिन ऊधम मचाती रहती, पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न ऑखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी .. क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ? मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त हैं से न बिन्दा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पायी।
बिन्दा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी, परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी - हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ - पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत् उसे भय में बदल देता था। और बिन्दा की आंखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।
एक बार जब दो - तीन करके तारे गिनते - गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- वह रही मेरी अम्मा,तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में ? पूछने पर बिन्दा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है वह बिन्दा की नयी अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती। इसी से मैंने सोचकर कहा - तुम नयी अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती। फिर वे न नयी रहेंगी और न डॉटेंगी।
बिन्दा को मेरा उपाय कुछ जॅचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नयी को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी। अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।
पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा। अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा - तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें। माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया, नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नयी अम्मा पालकी में बैठकर आ जायेगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जायगी . और मुझे बिन्दा बनना पड़ेगा। माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुठी में दबाकर ही मैं सो पायी थी।
बिन्दा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे,पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिन्दा को ऑगन की जलती धरती पर बार - बार पैर उठाते और रखते हुए घंटो खड़े देखा था। चौके के खम्भे से दिन - दिन भर बॅधा पाया था और भूख से मुरझाये मुख के साथ पहरों नयी अम्मा को खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था। इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिन्दा को मिला। उसके छोटे - छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी पर बिन्दा ऐसे बैठी रही मानों सिर और बाल दोनों नयी अम्मा के ही हों।
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिन्दा ने नन्हें - नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिन्दा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिन्दा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।
उसे मै अपने घर में खींच लाई अवश्य पर न ऊपर के खण्ड में मॉ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूंध दीं इसी हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था पर बिन्दा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।
मैं तो शायद सो गई थी, क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने ऑंखें मलते हुए पूछा - क्या सबेरा हो गया ?
मॉ ने बिन्दा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई यह बताना कठिन है। पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमा का स्थान था न अपील का अधिकार।
फिर कुछ दिनों तक मैंने बिन्दा को घर - ऑगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहॉ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती? पूछने पर वह मुंह में कपड़ा ठूंस कर हंसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की ऑख बचाकर बिन्दा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिन्दा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। ऑंखें गङ्ढे में धँस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली- सी चादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर दवा की शीशियॉ सिर पर हाथ फेरती हुई मॉ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी ने बिना भी बीमारी का अस्तित्व है यह मैं नहीं जानती थी इसी से उस अकेली बिन्दा के पास खड़ी होकर मैं चकित - सी चारों ओर देखती रह गयी। बिन्दा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नयी अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे - शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।
फिर तो बिन्दा को दुखना सम्भव न हो सका क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं।
एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्द कर बार - बार ऑंखें पोंछती हुई बिन्दा के घर चल दीं। जाते - जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर - उधर से झॉककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी परन्तु वह विशेष अनुनय - विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय - विनय करना मेरे आत्म- सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत:खिड़की से झॉककर मैं बिन्दा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है,उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है,और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जायेंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच - विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुंची कि बिन्दा का विवाह हो रहा है और उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिन्दा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।
कई दिन तक बिन्दा के घर झॉक - झाककर जब मैंने मॉ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश - वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस - पास फैले छोटे तारों में बिन्दा को ढूंढ़ती रहती पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिन्दा और उसकी नयी अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?