इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

जहां पाषाण बोलते हैं

गंडई का भाँड़ देउर
डां. पीसी लाल यादव
छत्तीगसढ़ प्राचीनकाल से आस्था का केन्द्र बिन्दु रहा है। यहां सिरपुर,  शिवरीनारायण, राजिम,  मल्हार, रतनपुर, पाली, ताला, भोरमदेव, आरंग, जांजगीर, देवबलोदा, बारसुर, जैसे अनेक पुरातात्विक स्थलों का अपना पृथक - पृथक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पुरातात्विक महत्व है। यहां के मंदिरों के उत्कीर्ण शिल्पांकन तत्कालीन समाज की धार्मिक व सांस्कृतिक स्थितियों के जीवन्त साक्ष्य हैं। ये मूक होकर भी बोलते हैं। आवश्यकता केवल उनकी मूक भाषा को समझने की है। छत्तीसगढ़ के कोने - कोने में अनेक मंदिर इतिहास, कला व संस्कृति के साक्षी के रूप में विद्यमान हैं। ऐसा ही एक भव्य व प्राचीन शिवमंदिर गण्डई जिला राजनांदगांव में स्थित है।
गण्डई राजनांदगांव जिले का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है। यहां आसपास अनेक प्राचीन मंदिर व प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण स्थान है। गण्डई का शिव मंदिर टिकरीपारा, वार्ड नं. 15 में स्थित है। यह मंदिर इस अंचल में च्च् भाँड़ देउर ज्ज् के नाम से विख्यात है। भाँड़ छत्तीसगढ़ी शब्द से व्युत्पन्न है। जिसका अर्थ है - भग्न या गिरा हुआ और देउर का अर्थ - देवालय से है। भाँड़ देउर अर्थात् ऐसा देवालय जो भग्ïन हो। कालान्तर में यह मंदिर भग्न था जिसे केन्द्रीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित कर पुनर्निर्मित किया है। पुनर्निर्माण के चिन्ह्रï आज भी इस मंदिर में स्पष्टïत: परीलक्षित होते हैं। मंदिर स्थापत्य की दृष्टिï से पुरातत्ववेत्ता इस मंदिर को भग्न मानते हैं क्योंकि इस मंदिर का अन्तराल व महा मंडप नहीं है। केवल गर्भगृह व विमान ही शेष है, पर जो है अतिसुन्दर और कलात्मक है।
मंदिर का निर्माण शैली व स्थापत्य कला की दृष्टिï से पुरातत्ववेत्ताओं ने इस मंदिर को कल्चुरीकाल में 11 वीं - 12 वीं शताब्दी में निर्मित माना है। यह मंदिर भोरमदेव मंदिर का समकालीन है। तथा भोरमदेव मंदिर की तरह भव्य एवं मूर्तिकला की दृष्टिï से समुन्नत है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ प्रकार का व पूर्वाभिमुखी है। इस मंदिर में महा मंडप नहीं है किन्तु अंतराल का कुछ भाग सुरक्षित है। इससे यह प्रमाणित होता है कि मंदिर का महा मंडप व अन्तराल भी भव्य और अलंकरण युक्त रहा होगा। मंदिर के सम्मुख नंदी की अलंकारित पश्चिमाभिमुख प्रतिमा स्थापित है। आंशिक रूप से सुरक्षित अन्तराल के ऊपर पृथक शिखर स्थापित है। इस शिखर में ज्यामितीय आकृतियां व पुष्प वल्लरियों के साथ नारी मूर्तियाँ विद्यमान है। शीर्ष में गर्जन की मुद्रा में सिंह विराजमान है, जिसकी भव्यता कला प्रमियों को सम्मोहित करती है।
ललौंहे पत्थर से निर्मित मंदिर का प्रवेश द्वार सर्वाधिक अलंकृत है। लगता है इस भाग में शिल्पियों ने मूर्तियों में कोई लेप किया है अथवा महीन घिसाई की है, जिसके कारण की यह भाग आभामय है। किरणें पड़ती है तो एक अलौकिक चमक पैदा होती है। निर्माणकाल से लेकर वह चमक आज भी सुरक्षित है। इसकी भव्यता और सजीवता शिल्पी की कल्पनाशीलता और उसकी कला कुशलता को मुखरित करती है। प्रवेश द्वार का शिल्पांकन अद्वितीय है। प्रवेश द्वार के अधोभाग में प्रस्तर खंडों पर उत्कीर्ण वादन रत व नित्य रत नर - नारियों की मूर्तियां लघु रूप में होकर कला की सूक्ष्म भाव - भंगिमा व उसकी निपुणता के भव्य रूप को उद्घाटित करती है। शिल्प ने नृत्य मग्न कलाकार के पाँवों में बंधे घुंघरूओ को भी बड़ी कुशलता के साथ उकेरा है। चौखट के चारों ओर सूक्ष्म रूप से उत्कीर्ण लता वल्लरियाँ और पुष्प वल्लरियाँ अंकित है। खड़े चौखटों पर नृत्यरत मयूर शोभामान है। सूक्ष्म अंकन आंखों को संतृप्त करते हैं। अधोभाग में गणेशजी व सरस्वती की छोटी किन्तु सजीव मूतियाँ हैं।
प्रवेश द्वार के दोनों भाग में भगवान शिव का मानुषी रूप हाथ में त्रिशुल,डमरू व सर्प के साथ प्रदर्शित है। नीचे नंदी विराजित है। दोनों ओर सहचर भी है। अन्य मंदिरों की तरह द्वारपाल के रूप में मकरवाहिनी गंगा तथा कुर्म वाहिनी यमुना का सुन्दर व सजीव अंकन है। इसी स्थान पर सात - सात की संख्या में नाग कन्याओं की अति सूक्ष्म आकृतियां अंकित हैं, जो परस्पर प्रत्येक के पृच्छ भग से गुम्फित हैं। द्वार शाखा के सिरदल के मध्य नृत्यरत गणेशजी उत्खचित हैं। प्रवेश द्वार की ओर क्रमश: लक्ष्मी, दुर्गा व सरस्वती की शोभायमान मूर्तियां हैं। प्रवेश द्वार के ऊपरी भाग में पांडव परिवार द्वारा शिवपूजन का शिल्पांकन अप्रतिम है। महाभारत में स्वर्गारोहण के पूर्व पांडवों द्वार महादेव के पूजन का प्रसंग मिलता है। संभवत: यह उसी का दृष्यांकन हो। पांडव की मूर्तियों के मध्य महिष की पीठ पर शिवलिंग की स्थापना है। दोनों पाार्श्व ऋषिगण  पूजा की मुद्रा में है। पाण्डवों भ्राता अपने आयुधों के साथ अंकित है। यहां देवी द्रोपती व माता कुन्ती भी उपस्थित हैं। नीेचे पट्टिïका में इनका नामोल्लेखभी है, जो सुस्पष्टï एवं पठनीय है। माता कुन्ती का नाम यहां च्च् कोतमा ज्ज् अंकित है। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने महिष मूर्ति को नंदी माना है जबकि वह मूर्ति स्पष्टïत: महिष की ही परिलक्षित हो रही है। महिष की पीठ पर शिवलिंग की स्थापना और पांडव परिवार द्वारा उसकी पूजा - प्रतिष्ठïा कब की गई ? यह अन्वेषण का विषय है।
मंदिर के गर्भगृह में ग्रेनाइट प्रस्तर से निर्मित बड़ी जलहरी है। जिसमें शिवलिंग स्थापित है, परन्तु यह शिवलिंग मूल प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इसकी आकृ ति जलहरी के अुरूप स्वभाविक नहीं लगती है। शिवलिंग की जलप्रवाहिका उत्तर की ओर है। गर्भगृह की दीवारें सादी, अलंकरण विहीन है। गर्भगृह की पश्चिमी भित्ती पर आले में करबद्ध नारी प्रतिमा है। लोग जिसकी पूजा पार्वती के रूप में करते हैं। गर्भगृह के चारों कोनों में अलंकृत स्तंभ है। तीन भित्तियों पर छ: भारवाहकों की प्रतिमाएं हैं। ऊपर का शीर्ष भाग पाँच वृत्ताकार भागों में विभक्त हैं जो शीर्ष की ओर क्रमश: संकीर्ण होते गये हैं। गर्भगृह के केन्द्रीय शीर्ष पर पूर्ण विकसित कमल का अलंकरण है। यह अलंकरण बड़ा दर्शनीय और चित्ताकर्षक है।
मंदिर का वाह्यï शिल्प अतुलनीय और अद्वितीय है। इसमें भिन्न - भिन्न विषयों और भाव - भंगिमाओं से युक्त मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर का अधिष्ठïान, जंघा, शिखर व आमलक अत्यंत ही अलंकृत है। मंदिर की जगती भूमि पर ही निर्मित है। अधिष्ठïान के प्रथम भाग में ताड़ पत्रों व पत्रावलियों का अलंकरण है। द्वितीय भाग में प्रथम गजथर हैं जिसमें हाथियों को गतिशील मुद्रा में अंकित किया गया है। कहीं हाथी युद्ध की मुद्रा में है तो कहीं तरू पल्लवों के साथ क्रीड़ारत। कुछ दृश्यों में शिकारियों द्वारा हाथियों के शिकार का दृश्य है गजथर के ठीक ऊपर हय अर्थातï् अश्वथर है। इस थर में विभिन्न मुद्राओं में अश्वरोहियों को अंकित किया गया है। अश्वरोही हाथ में तीर - कमान, तलवार, भाला आदि धारण किये हुए हैं। अश्वथर में कुछ मिथुन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। इन प्रस्तर खंडों में शिल्पकला का अद्भूत नमूना विद्यमान है। अश्वथर के ऊपर नरथर है। नरथर में स्त्री - पुरूष की विभिन्न भाव - भंगिमाओं के साथ - साथ रामायण व कृ ष्णलीला से संबंधित दृश्यों का सजीव शिल्पांकन है। दक्षिण दिशा में कृष्ण द्वारा कालिया नाग का मर्दन, गोर्वधन पर्वत का धारण तथा त्रिभंग मुद्रा में बंशीवादन की मनोहरी दृश्यावलियां हैं। कुछ मिथुन मूर्तियां भी हैं। पश्चिम दिशा के नरथर में मैथुन क्रिया में रत मिथुन मूर्तियों तथा मल्ल युद्ध आदि का अंकन है। उत्तर दिशा में रामलीला से संबंधित चित्रण है। बालि - सुग्रीव युद्ध, बालि वध, अशोक वाटिका में शोकमग्न सीता, स्फटिक शिला पर बैठे राम लक्ष्मण के सम्मुख करबद्ध हनुमान तथा वानरों का नृत्य संगीत आदि का सहज दृश्यांकन इस मंदिर के कला वैभव को द्विगुणित करता है।
मंदिर के जंघा भाग में स्तंभाकृतियां नौ - नौ भागों में विभक्त है। प्रस्तर खंडों की जुड़ाई इतनी कुशलतापूर्वक की गई है कि खंडों में विभक्त होने के बावजूद ये प्रस्तर खंड एक ही शिलाखंड के रूप में प्रतीत होते हैं। इनमें उत्कीर्ण मूर्तियों की भव्यता व अंकन दर्शनीय है। इस भाग में अनेक देवी देवताओं, दशावतार, जीवन - जगत से जुड़े पहलुओं जैसे - नवयौवना, स्तनपान कराती मामा, प्रेमालाप करते नर - नारी, गदाधारी व धनुषधारी सैनिकों आदि की सुन्दर मूर्तियां उत्खचित है। उपरोक्त शिल्पांकन तत्कालीन समाज की स्थितियों और मानवीय संबंधों का प्रकटीकरण करते हैं। जंघा में आलों का भी निर्माण हुआ है। जिसमें केवल तीन आलों में काल भैरव, सती स्तंभ व महिषासुर मर्दनी की भव्य मूर्तियां है। शेष सात आले रिक्त हैं।
मंदिर का शिखर भाग भी अनेक अलंकरणों से परिपूर्ण है। शिखर के निचले भाग में तीनों दिशाओं उत्तर, पश्चिम व दक्षिण में एक - एक मंदिर का शिरांग आमलक कलश निर्मित है। जिनमें मूर्तियों के तीन थर है। अश्वरोही थर, नरथर में कृष्ण की बंंशीवादन में लीन सम्मोहित करती मूर्तियां व तृतीय थर में नायिका की दो मूर्तियां है। शिखर के शीर्ष भाग के चारों कोनो में देवपुरूष उत्कीर्ण हैं। शीशपर पकड़ी बांधे गंभीर भाव लिये ये मूर्तियां बड़ी भव्य हैं। इसके साथ ही शिखर में ज्यामितीय आकृतियों की बहुलता है। शिखर के शीर्ष पर वृत्ताकार आमलक संपूर्ण मंदिर को भव्यता प्रदान करता है। इस आमलक के ऊपर क्रमश: पाँच लघु आमलकों की श्रृंखला के पश्चात प्रस्तर कलश स्थापित है।
अद्भुत कलात्मक व अलंकरण युक्त ये मूर्तियां इस मंदिर के वैभव हैं, और यह मंदिर वैभव है इस अंचल का, इस जिले का और सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का। जहाँ पुरातात्विक संपदा आज संरक्षित और सुरक्षित रूप में कला - संस्कृति और इतिहास का गौरव गान कर रही है। प्रस्तरों में उत्कीर्ण मूर्तियां हमारी आस्था, श्रद्धा विश्वास और हमारे जीवन के विभिन्न क्रिया व्यवहारों तथा भाव - भंगिमाओं के गीत गा रही हैं। ये पाषाण सही, पर बोलते हैंं। जीवन में मधुरस घोलते हैं। यहां अंजान शिल्पियों ने अपनी भावनाओं और कल्पनाओं को हथोड़े व छेनी के माध्यम से प्रस्तर खंडों में उत्कीर्ण कर कला को अमर कर दिया है। जिसे विश्वास न हो, वे यहां आये, देखे - सुने और अनुभव करे। यहां पाषाण बोलते हैंं।
गण्डई - पंडरिया,जिला - राजनांदगांव ( छ.ग.)

कल और आज

माता कौशल्य का मायका छत्तीसगढ़
संत पवन दीवान
छत्तीसगढ़ राज्य हम सबका सपना था । पंडित सुन्दरलाल शर्मा,डां. खूबचंद बघेल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, मिनीमाता, चंदूलाल चंद्राकर की विरासत हमारे पास है । हम अपने जीवन काल में छत्तीसगढ़ राज्य को पा सके यह हमारी पीढ़ी का सौभाग्य है । बुजुर्ग सपना देकर चले गये । उनके आशिष से हमें हमारा राज्य मिल गया । मगर छत्तीसगढ़ राज्य अपनी विशेषता से आगे बढे यह मैं चाहता हूं ।
छत्तीसगढ़ कुछ मामलों मेें अन्य राज्यों से एकदम अलग है ।हमारी ताकत है - भाषा और संस्कृ ति । छत्तीसगढ़ संस्कृति की विशेषता है - मेल - मिलाप और आतिथ्य के साथ सत्य का आग्रह । यह गुरूघासीदास बाबा की धरती है । भगवान श्रीराम की माता कौशल्या का मायका है छत्तीसगढ़। कल्पना कीजिए कि माता कौशल्या ने भगवान राम से अपने मायके की भाषा में बात की होगी कि नहीं ? श्रीराम जब ननिहाल आते होगे तो किस भाषा में उनके मामा और अन्य लोग बाते करते रहे होंगे ? छत्तीसगढ़ी में ही । यह इतनी पुरानी और सार्थक भाषा है । छत्तीसगढ़ हनुमान जी की तरह है । इसे अपनी शक्ति विस्मृत हो जाती है । याद दिलाने पर जागृति भी आती है । छत्तीसगढ़ ने सदैव विलक्ष्ण काम किया है ।
भगवान श्रीराम के ननिहाल में आप देखें - भांजों को, यहां मामा पूछते हैं - च्च् कहां जा रहे हो भांजा राम? ज्ज्
गीत तक में गायक गाते हैं - जय सतनाम भांजा । क्यों यह बात आती है ? सतनाम और श्रीराम पर छत्तीसगढ़ की आस्था इसे पूरे विश्व में अलग मान दिलाती है ।
भगवान श्रीराम और माता कौशल्या की प्राचीन मूर्ति ग्राम चंदखुरी के तालाब में स्थित है । यह अकेली मूर्ति इतिहास की साक्षी है । इस जानकारी और इतिहास के सत्य को दुनिया जाने इसके लिए जरूरी है - माता कौशल्या और श्रीराम की भव्य और नई मूर्तियों की श्र्रंृखला की स्थापना । छत्तीसगढ़ राज्य अभी सजा नहीं है । इसे सज्जित करने का क्रम जारी है । सज्जित करने के संदर्भ में इतिहास और संस्कृति के प्रमाणों को जन - जन तक पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए ।
माता कौशल्या की गोद में बैठे श्रीराम की भव्य मूर्ति का माडल पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के प्रसिद्घ मूर्तिकार श्री जे.एम.नेल्सन ने बनाकर हम सबको चकित कर दिया। डां. परदेशीराम वर्मा के आग्रह पर अगासदिया के कार्यक्रम में पधारे प्रदेश के मुख्यमंत्री डां.रमनसिंह ने अत्यंत सुन्दर माडल का अवलोकन कर कलाकार की पीठ थपथपाने से नहीं अपने आप को रोक नहीं सके । वे मूर्ति देखकर अभिभूत हो गये । अगर ऐसी भव्य मूर्ति किसी पवित्र स्थल में भव्यता के साथ स्थापित हो जाए जहां लाखों लोगों का मेला लगता हो तो छत्तीसगढ़ के गौरवशाली इतिहास की जानकारी जन - जन तक प्रभावी ढंग से पहुंचेगी । यह स्थान कुम्भ आयोजन के कारण देश भर में चर्चित राजिम भी तो हो सकता है। एक जगह स्थपना के बाद क्रमश: ऐसी मूर्तियां अन्य स्थानों में भी स्थापित हो सकती है ।
छत्तीसगढ़ समन्वयवादी है। हिंसा, अक्रामकता पर इसकी आस्था नहीं है। इसने सबको सम्मान दिया।
माता कौशल्या महाराज दशरथ की पटरानी थी। छत्तीसगढ़ की बेटी अयोध्या गई। श्रीराम का विवाह जनकपुर में हुआ। इस तरह होता है भू - भाग का समन्वय। यहां संस्कृति मेल शुरू से रहा है,लेकिन सब अपनी पहचान के साथ ही मेल चाहते हैं। इसमें यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि हम अपनी पहचान मिटाकर मेल करें।
गुजरात में गुजराती,पंजाब में पंजाबी, महाराष्टï्र में मराठी, इस तरह भाषा - वार प्रांत है। ऐसे में यह बेहद दुख की बात है कि छत्तीसगढ़ी को भाषा का दर्जा नहीं मिला। छत्तीसगढ़ का मतलब ही है छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी, दलितों, पिछड़ों बाहुल्य है। वनों की दृष्टिï से यह देश का अव्वल राज्य है। खनिज यहां प्रचुर है। हीरा - लोहा यहां सब है। इसकी तरक्की बहुत तेजी से होगी। लेकिन संकट को समझना भी है। आज आवागमन और अन्य सुविधा भी बहुत है। छत्तीसगढ़ का सीधापन उसका दुश्मन है। सीधे - सादे छत्तीसगढ़ का हक उसे मिलना चाहिए। ऐसा न हो कि ताकत और चुस्ती के बल पर अन्य उसके हकों पर प्रहार कर दे। इससे असंतोष पैदा होगा। इसलिए छत्तीसगढ़ी मानस को समझते हुए इस दिशा में गंभीर काम होना चाहिए। मध्यप्रदेश तथा अन्य राज्यों में जो साहित्यिक गतिविधियां है। शासन के द्वारा प्रोत्साहन है। उसके अनुरूप यहां भी ठोस पहल जरूरी है। छत्तीसगढ़ी में एक विशिष्टï पत्रिका  जरूरी है जिसमें हिन्दी भी हो लेकिन छत्तीसगढ़ की विशेषता उसमें दिखे। ऐसा प्रयास अभी होना बाकी है।
च्च् बिहनिया ज्ज् पत्रिका की कोई विशेष पहचान इसलिए नहीं बनी क्योंकि वह नियमित नहीं निकलती। संस्कृति विभाग के पास दस तरह के काम है। उसमें पत्रिका भी एक है। इस तरह  गंभीर काम नहीं होते। मध्यप्रदेश सरकार की पत्रिका है। उत्तरप्रदेश,हिमाचल प्रदेश,पंजाब सबकी पत्रिकाएं प्रतिष्ठिïत हो चुकी है। छत्तीसगढ़ में जाने क्यों साहित्य का काम ढंग से नहीं हो रहा है।
छत्तीसगढ़ के जानकारों,संस्कृति के विशेषज्ञों और सुयोग्य व्यक्तियों की खोज कर दायित्व देने से छत्तीसगढ़ की फि$जा बदलेगी। सैद्धांतिक असहमति के बावजूद सही सोच के लोग बड़ा काम कर जाते हैं। जबकि सहमति और निष्ठïा का स्वांग भरकर कुटिल लोग नुकसान कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में कई ध्रुवों को एक ही मंच पर प्रतिष्ठïा मिली है। यहां सभी धर्मों के महापुरूष, आचार्य, अवतार और गुरू आये और उन्होंने भरपूर मान पाया। समन्वय की इस धरती में गुण के आधार पर ही व्यक्ति की प्रतिष्ठïा होती रही है। यह परंपरा और समृद्घ  हो ..........।
नयापारा,राजिम ( छ.ग.)